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“यह मुस्लिम लड़कियों को शिक्षा से दूर रखने की राजनीतिक साज़िश है”

"अनिवार्य बुर्का, लड़कियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर धार्मिक कटाक्ष करने जैसा है"

महिलाओं की पोशाक पर तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले समाज में दंड या भेदभाव करना कोई नई बात नहीं है। लड़कियों के जींस या शार्ट्स पहनने पर समय-समय टोका-टाकी और विकृत मानसिकता समाज की ही नहीं,कई सामाजिक संस्थाओं की भी आती रही है।

बीते दिनों  साड़ी पहनकर होटल में प्रवेश को लेकर काफी हंगामा हुआ था। इसके पूर्व भी कुछ ऐसे मामले सामने आए थे जिसमें बुर्के पहनकर डिग्री लेने पहुंची महिला को खाली हाथ लौटा दिया गया था। इसके पूर्व में महिलाओं के परिधान सार्वजनिक दायरे में कैसे होने चाहिए? इस पर ढेर सारी लान्नतें औरत जात को मिलती रही हैं। कोई भी परिधान पहनने की महिलाओं की च्वाइंस को कोई भी आज़ादी देना नहीं चाहता।

कुछ दिनों से कर्नाटक में उड्डपी वुमेन्स पीयू कॉलेज मैनेजमेंट का गेट लड़कियों के लिए इसलिए बंद है, क्योंकि वे हिजाब पहनती हैं। न्यायालय के दखल के बाद पूर्व की यथास्थिति बनी है। हालांकि, इसके पूर्व भगवा शाल लेकर भी एक प्रदर्शन हो चुका है, जिसने इस मामले को मजहबी राजनीति के दायरे में लाकर खड़ा कर दिया है।

यह बात केवल हिजाब या भगवा स्कार्फ की नहीं है, उस धार्मिक विभाजन की है जो एक-दूसरे धर्म के प्रति सम्मान का भाव पनपने नहीं दे रहा है फिर किस विविधता पर अभिमान किया जाता है और गंगा-जमुनी संस्कृति की बात होती है। बेशक स्कूल और कॉलेजों में इस तरह की पाबंदियां संविधान के संवैधानिक मूल्य समानता, सम्मान और सार्वजनिक व्यवस्था को धक्का पहुंचाती हैं।

मुस्लिम लड़कियों का स्वयं को शिक्षित करने का रास्ता भी ऎतिहासिक रूप से कई उतार-चढ़ावों से भरा रहा है। बेगम रूकैया सखावत हुसैन जब कलकत्ते में मुस्लिम लड़कियों को शिक्षित करने के लिए प्रयास कर रही थीं, तब पर्दादारी का सख्ती से पालन करने को विवश थीं, उनको लाने के लिए जाने वाली बैलगाड़ियां तक ढांक-तोप कर लाई जाती थीं। आज कब लड़कियां स्वयं उस समाजीकरण के साथ सहज हो गई हैं, तो उनको हिजाब के बिना स्कूल-कालेज आने का फरमान थमा दिया जा रहा है।

यह मुस्लिम लड़कियों को शिक्षा की तमाम गतिविधियों से दूर रखने की राजनैतिक साजिश है और कुछ नहीं। यह अधिक दुखदायी इसलिए भी है क्योंकि मुस्लिम समाज में महिलाओं का शैक्षणिक आंकड़ा सबसे अधिक पिछड़ा हुआ है।

पहले कोरोना के कारण स्कूल-कॉलेजों का बंद रहना और स्कूल-कॉलेजों के खुलने के बाद सरकारी संस्थानों के इस तरह के फरमान, सभी सरकारी स्कूल-कॉलेज संस्थान का यूनिफार्म को लेकर अनिवार्य नियम बनाना, साथ-ही-साथ मौजूदा बजट में शिक्षा बजट में कटौती। ये तीनों बातों का एक साथ घटित होना, कुछ नई परिस्थितियों की तरफ इशारा करता है। यहीं नहीं केंद्र सरकार की दूरगामी और व्यापक नीति “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओं” की महत्वाकांक्षा को मिट्टी-पलीद तो करता ही है।

लड़के हो या लड़कियां फिर चाहें वह किसी भी धार्मिक आस्था में विश्वास रखते हों, शिक्षण संस्थानों में काम करने वाला मामूली चपरासी भी बता देगा कि बच्चों की पढ़ाई-लिखाई में गुणवत्ता का कोई संबंध स्कूल-कॉलेज में पहने जाने वाले परिधानों या ड्रेस से नहीं है परंतु किसी स्कूल के द्वारा लागू किया गया विशेष परिधान नियम उस स्कूल संस्था के लिए शुद्ध रूप में वित्तीय हित को साधने का मामला है, जो केवल परिधान पर ही नहीं कॉपी-किताब और पेन-पेन्सिल पर भी लागू होता है।

आजकल तो हर स्कूल में लड़के-लड़कियों को कम-से-कम तीन-चार तरह की ड्रेस तो पहननी ही पड़ती है। स्कूल या तो खुद ड्रेस देता है या उसका बाहर की किसी दुकान के साथ 50 प्रतिशत कमीशन सेट होता है। इस तरह लड़के-लड़कियों से ड्रेस के नाम पर ऊंचे दाम पर पैसे वसूले किए जाते हैं। एक बच्चे के माता-पिता से ड्रेस कोड के नाम पर बचपन से स्कूल खत्म होने तक लाखों रुपये खर्च करा लिए जाते हैं।

मज़ेदार बात यह है कि स्कूल के ड्रेसकोड में लड़के तो पैंट-शर्ट पहनकर आएंगे मगर लड़कियां स्कर्ट और स्कर्ट की साइज भी स्कूल निर्धारित करता है कि घुटने से कितना ऊपर स्कर्ट होना चाहिए। इसके निर्धारण में मोजे का रंग भी अगर बदल जाए, तो आपको क्लास से बाहर कर दिया जाएगा।

स्कूल-कॉलेजों में ड्रेस, किताब-कॉपी, जूते-मोजे, स्वेटर-कोर्ट मुनाफा कमाने का इतना चोखा ज़रिया है कि सरकारी स्कूल भी आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए इस बाज़ार में उतरने को विवश है। कर्नाटक के सरकारी स्कूलों में उपजा हिजाब-शाल विवाद के मूल में असल में सरकारी स्कूल-कॉलेजों के सामने खड़ी आर्थिक चुनौतियां हैं, जो महजबी-राजनीति की कड़ाही पर चढ़ गईं हैं।

अगर न्यायालय में मामला संवैधानिक अधिकार के आगे गिर भी गया, तो हिंदुत्व की राजनीति अपना मैदान तो बना ही लेगी। अपने संवैधानिक अधिकार के लिए जिन लड़कियों ने न्यायिक दरवाज़ा खटखटाया है, उनको अपने संघर्ष के लिए सुप्रीम कोर्ट तक का सफर तय करना होगा।

यह और बात है कि हिजाब या भगवा शाल या गमछा पहनना किसी भी लड़के-लड़की की जागरूकता, प्रगति और मर्जी के दायरे में आता है। किसी को नीचा दिखाने, जलील करने या थोपने के दायरे में नहीं और जब बात जीवन के बड़े हित जैसे शिक्षित होने की आती है, तब किसी के लिए यह मुश्किल नहीं होना चाहिए कि उसे क्या त्याग देना चाहिए और क्या नहीं?

लड़कियों की शिक्षा जीवन का सबसे बड़ा सवाल होना चाहिए, क्योंकि शिक्षा का मुकाम हासिल करके ही वह जीवन का हर मुकाम अपने शर्तों पर तय कर सकती हैं।

मुस्लिम लड़कियों के लिए शिक्षा के लिए अलख जलाने वाली बेगम रूकैया ने भी अपने लेख “महिलाओं की अवनति” में  कहा है कि “स्वयं को शिक्षित रखने के लिए जिस भी चीज़ से समझौता करना पड़े, लड़कियों को करना चाहिए, क्योंकि शिक्षा ही उनके जीवन में उजाला ला सकती है, जिस चीज़ से समझौता किया है, वह नहीं।”

सैंकडों-हज़ारों की भीड़ के आगे मुठ्ठी तानकर खड़े होना, बहुत खूब था मेरे दोस्त। तुम्हे अपने अधिकारों के लिए ज़रूर तन के खड़ा होना चाहिए पर तुमको बताता चाहता हूं, हिजाब तुम्हारी पहचान नहीं है, ना ही तुम्हारा गर्व है और ना ही इज्जत। बेशक हिजाब के नाम पर जो राजनीति हो रही है, वह गलत है और उसका पुरजोर विरोध होना चाहिए परंतु कोई भी च्वाइस तुम्हारे शिक्षा के अधिकार से बड़ी नहीं हो सकती है। शिक्षा ही तुम्हारे जीवन में तुम्हारी च्वाइस को तय करती है इसलिए इसको अधिक प्राथमिकता मिलनी चाहिए।

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