गूगल ने डूडल बनाकर ब्रिटिश भारत की पहली महिला ग्रैजुएट कामिनी राय को याद किया है। कामिनी राय अविभाजित बंगाल के एक संपन्न और शिक्षित परिवार की महिला थीं। उनके पिता ब्रह्मसमाज के अनुयाई थे और स्त्री शिक्षा के हिमायती भी। उनके भाई कोलकाता के मेयर थे और बहन नेपाल के शाही परिवार में फिजिशियन थीं।
कामिनी राय ने कलकत्ता के प्रसिद्ध बेथ्नयू कॉलेज से ग्रैजुएशन किया और वहीं अध्यापिका नियुक्त हुई थीं। आरंभ में उनकी रुचि गणित विषय में थी लेकिन आगे चलकर उन्होंने संस्कृत भाषा में स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी।
कामिनी राय का सफरनामा
12 अक्टूबर 1894 को जन्मी कामिनी राय का विवाह 30 वर्ष की आयु में हुआ था और यह बिल्कुल लीक से हटकर था। वह विवाह के बाद कुछ समय तक हज़ारीबाग में रहीं, वहां साहित्य पर उनकी चर्चा कई लोगों से होती थी। वहां के नामचीन रचनाकार भी उनके संपर्क में थे। राजनीतिक तौर पर भी वह काफी सक्रिय रहीं।
उन्होंने इलबर्ट बिल वापसी के आंदोलन में बढ़ चढ़कर भूमिका निभाई थी। वयसराय लॉर्ड रिपन के कार्यकाल के दौरान 1883 में इल्बर्ट बिल लाया गया था, जिसके तहत भारतीय न्यायाधीशों को ऐसे मामलों की सुनवाई का भी अधिकार दिया गया, जिनमें यूरोपीय नागरिक शामिल होते थे। इसका यूरोपीय समुदाय ने विरोध किया था लेकिन भारतीय इसके समर्थन में आंदोलन करने लगे।
उन्होंने 1886 से लेकर 1894 तक बेथ्यून कॉलेज में अध्यापन का काम किया था। इसके साथ वह बंगाल लेजिसलेटिव काउंसिल में बंगाली स्त्रियों के पूर्ण मतदान के अधिकार के लिए भी लड़ीं थी। वह सन् 1922-23 में स्त्री श्रम पर बनी समिति की सदस्या रही थीं।
कॉलेज के दिनों में ही उनकी मुलाकात अबला बोस से हुई थी। अबला भी महिला अधिकारों की हिमायती थी, इससे दोनों को एक-दूसरे का साथ मिला और महिलाओं के हक की लड़ाई मज़बूत होते चली गई। उन्होंने उस समय महिला अधिकारों की वकालत की जब समाज में कुप्रथाओं का जमावड़ा था।
कामिनी राय रवींद्रनाथ टैगोर और संस्कृत भाषा से काफी प्रभावित थीं। उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा जगत तारिणी स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया था।
लेखकों को कामिनी से मिलती थी उत्साह
वह हमेशा से लेखकों और कवियों के प्रोत्साहन का कार्य करती थीं। अपने 1923 के बारेसल दौरे में उन्होंने एक सुफिया कमाल नामक लड़की को लिखने के लिए प्रेरित किया था लेकिन उन्होंने स्वयं विवाह और बच्चों के जन्म के बाद कविता लिखना छोड़ दिया था।
उस वक्त उन्होंने कहा था, ‘‘मेरे बच्चे ही मेरी कविता हैं’’ लेकिन पति और बड़े पुत्र की मृत्यु के बाद वह फिर से कविता के संसार की तरफ मुड़ गईं क्योंकि अंतर वेदना की पुकार शायद शब्दों और रचनाओं से ही बाहर आती है।
उनकी हिन्दी में अनुवादित एक कविता प्रस्तुत है, जिसका शीर्षक है ‘सुख’
सुख नहीं है क्या?
सुख कहीं नहीं है क्या?
यह धरा क्या केवल विषादमय है?
मनुष्य जन्म पाकर केवल
पीड़ा में जलना रोना और मरना ही है क्या?
छिन्न वीणा पर ऊंचे स्वर से बोलो,
ना, ना, ना, मानव जीवन के लक्ष्य ऊंचे हैं, सुख उच्चतर
सृजन रोता नहीं ना कभी दुहाई देता है।
कार्यक्षेत्र प्रशस्त खुला है,
युद्भभूमि है संसार यह,
जाओ वीर भेष में सजकर इस युद्ध में,
जो जीतेगा सुख भी वही भोगेगा।
दूसरों के लिए अपने स्वार्थों की दो बलि,
यह जीवन मन सब कुछ दे दो
इस देने जैसा सुख और कहीं है क्या?
भूल जाओ अपने को
दूसरों के लिए मरने में भी सुख है,
‘सुख’ ‘सुख’ कह और विलाप मत करो
जितना रोओगे, जितना सोचोगे,
उतना ही बढ़ेगा हृदय भार।
यह क्रंदन निर्लज्ज है
संसार से परे कोई नहीं लौटा है,
सभी के पीछे सब हैं,
हर कोई दूसरे के पीछे खड़ा है।
अनुवाद-सुधा सिंह
महिला के अधिकारों की लड़ाई और उन्हें उनका हक दिलाने वाली कामिनी राय की मृत्यु 19 सितम्बर 1933 में हुई मगर अपने कार्यों और कविताओं द्वारा वह आज भी मानव स्मृति में शामिल हैं।