मेरा नाम अमित कुमार है और मैं राजस्थान के झुंझुनू ज़िले में बतौर गाँधी फेलो कार्यरत हूं। इस लेख के ज़रिये आपके साथ एक अनुभव साझा करने जा रहा हूं। ज़िले के उदयपुरवाटी तहसील में 40 ग्राम पंचायत हैं, जिनके 350 गाँवों में से एक गाँव का नाम टिटनवाड है। इस गाँव के सरकारी स्कूल में शनिवार को एक बाल सभा आयोजित हुई।
इस दौरान अनेक गतिविधियां, जैसे- गाँधी जी की 150वीं जयंती के उपलक्ष पर चित्र प्रदर्शनी, भाषण प्रतियोगिता, क्विज़, कविताएं, खो-खो खेल इत्यादी का आयोजन किया गया। इन दौरान एक बहुत ही अच्छी चीज़ देखने को मिली और वो यह कि एक 5वीं कक्षा का इंतज़ार नाम का बालक अपनी पाठ्य पुस्तक से “मेहनत की कमाई” नामक एक कहानी को बहुत ही भाव भंगिमा के साथ-साथ वर्णन कर रहा था। क्लास के और भी बच्चे स्टोरी टेलिंग में अव्वल दिखाई पड़े।
ऐसा लग रहा था मानो वह उस कहानी का सजीव प्रसारण कर रहा हो। कहानी सुनकर काफी प्रसन्नता हुई और मैंने उसी समय अपनी जेब से कलम निकालकर उसको प्रोत्साहित किया। बहुत दिनों बाद कुछ ऐसी प्रतिभा देखने को मिली। क्या ऐसी प्रतिभा का प्रदर्शन भारत के सभी विद्यालयों में नहीं होना चाहिए?
शायद किसी भी पाठ्य पुस्तक की कहानी लिखते एवं छापते समय यही उद्देश्य और उम्मीद होगी कि सभी बच्चे इस कहानी को पढ़कर ज्ञान अर्जित करे पाएं। हमारे पाठ्य पुस्तक में दी गई कहानियों का एक उद्देश्य बच्चों द्वारा भाव भंगिमा के साथ पढ़ना और यथार्थ रूप में समझना भी है।
क्या मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में इस उद्देश्य की पूर्ति हो पा रही है? क्या यह उद्देश्य केवल किताबों में छपी कहानियां बनकर रह गई हैं, जिन्हें हमारे बच्चे ना तो सही से समझ पाते हैं और ना ही पढ़ पाते हैं।
लगभग सभी विद्यालयों में हम अकसर देखते हैं कि बच्चे कहानी के सार को ना समझकर रटने लगते हैं, जिससे वे मूल चीज़ों से दूर चले जाते हैं। हमें यह समझना होगा कि क्या वास्तव में कहानी का उद्देश्य प्रश्नोत्तरों याद करना है? अथवा कहानी का उद्देश्य अपनी समझ को विकसित करना है?
नैतिक मूल्यों के विकास में कहानी की अपनी अहमियत है, जिसे हमें समझना होगा। मैं अपने इस छोटे से लेख के ज़रिये आप सभी से अनुरोध करना चाहूंगा कि कहानी को महज़ कहानी ना बनने दें, बल्कि इसे नैतिक मूल्यों एवं विकास का साधन बनाएं। तभी तो हमारा समाज आदर्श समाज बन पाएगा।
आज हमारे देश के तमाम सरकारी विद्यालयों में ऐसी पहल करने की ज़रूरत है ताकि हमारे बच्चे क्लास में पीछे बेंच पर ना बैठकर मुखर बनें। गाँधी फेलो के तौर पर हम आज इन विद्यालयों में है, कल मेरी जगह कोई और होगा मगर जो सबसे ज़रूरी है वो यह कि हमें बच्चों को लगातार मौके देने हैं।