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मैं उन सैंकड़ों लड़कियों में से एक हूं, जिनके पंख लगने से पहले ही काट दिए जाते हैं

Girl

Girl In Captivity

हाल ही में संपन्न हुए अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर अपने संदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महिला शक्ति को नमन करते हुए महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए अपनी सरकार की प्रतिबद्धता को दोहराया।

इस अवसर पर उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार सम्मान और अवसरों पर विशेष ज़ोर के साथ अपनी विभिन्न योजनाओं के माध्यम से महिला सशक्तिकरण पर ख़ास ज़ोर देती रहेगी, इसके साथ-साथ उन्होंने महिलाओं के स्वावलंबन के लिए हर स्तर पर प्रयास करने पर भी ज़ोर दिया ताकि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं और अधिकार उन्हें प्राप्त हों।

महिला सशक्तिकरण के लिए सरकार की योजनाएं

इसमें कोई शक नहीं कि केंद्र से लेकर सभी राज्य सरकारें महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए हर संभव प्रयास करती रहती हैं, इसके अंतर्गत कई योजनाएं संचालित की जा रही हैं, फिर चाहे वह मुद्रा लोन के रूप में उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त बनाना हो या फिर सुकन्या समृद्धि योजना के अंतर्गत उनका भविष्य उज्जवल बनाना हो।

हालांकि एक ओर जहां सरकार सराहनीय प्रयास कर रही है, वहीं सामाजिक रूप से भी महिलाओं के सशक्तिकरण के प्रयास किये जाते रहे हैं लेकिन शहरों की तुलना में अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की सामाजिक स्थिति में कोई विशेष सुधार देखने को नहीं मिल रहा है?

ग्रामीण भारत में बेटियां अब भी बोझ!

उन्हें आज भी ऐसी कई प्रचलित और अमानवीय प्रथाओं से गुज़रना होता है, जिससे उन्हें ना केवल शारीरिक बल्कि मानसिक रूप से भी यातनाओं को सहना पड़ता है।

बेटी के जन्म के साथ ही उसे बोझ समझा जाने लगता है। पराया धन के नाम पर परिवार उसे शिक्षा और अन्य बुनियादी आवश्यकताओं से भी वंचित कर देता है। रूढ़िवादी धारणाओं के नाम पर उसे आगे बढ़ने से रोक दिया जाता है।

अपनी पहचान के नाम पर उसे केवल पुरुष की सेवा करने वाली जीव की संज्ञा दी जाती है। पहले पिता और भाई, फिर पति और पुत्र की सेवा के आधार पर ही उसके स्वर्ग और नर्क का फैसला सुना दिया जाता है।

बागेश्वर का कपकोट भी इससे अछूता नहीं

महिलाओं का समूह

देश के ऐसे कई दूर दराज़ ग्रामीण क्षेत्र हैं, जहां महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के बागेश्वर जिला का कपकोट भी उन्हीं में एक है, जहां देवी शक्ति की आराधना तो की जाती है लेकिन महिला अधिकार के नाम पर ही समाज की सोच संकुचित हो जाती है।

इन क्षेत्रों में महिला समानता से अधिक रूढ़िवादी धारणाएं हावी हैं। यहां आज भी लड़कियों की तुलना में लड़कों को प्राथमिकता दी जाती है। उनके लिए शिक्षा के विशेष प्रयास किये जाते हैं, जबकि लड़कियों के सपनों को घर की चारदीवारियों तक सीमित कर दिया जाता है।

साथ ही उसे बार-बार यह याद दिलाया जाता है कि वह पराई है और उसका स्थाई ठिकाना उसका ससुराल होगा। केवल शादी होने तक ही वह इस घर में रह सकती है और यही कारण है कि लड़कियों को पढ़ने  के लिए भी स्कूल कम ही भेजा जाता है और बेटों की शिक्षा पर ज़्यादा  ध्यान दिया जाता है।

हमें, हंसने तक की इजाज़त नहीं!

इस संबंध में गांव की एक किशोरी पूजा कहती है कि आज भी यहां पर महिलाओं को कलंकित समझा जाता है, उन्हें  सभी अधिकारों से वंचित रखा जाता है,  यहां तक कि उसे घर में अपनी बात तक रखने का अधिकार नहीं है।

वो आगे कहती है कि बेटी का अधिकार समाज ने एक ऐसी पुश्तैनी कालकोठरी में दबा कर रख दिया है, जहां किसी की नज़र ही नहीं पड़ती है! और अगर किसी की नज़र पड़ भी जाए, तो वह इस प्रकार अनदेखा कर देगा, जैसे उसने कुछ देखा ही नहीं हैं। समाज ने एक ऐसी संकुचित विचारधारा को ग्रहण कर लिया है, जहां बेटी को केवल संसार का बोझ समझा जाता है।

पूजा अपनी बात में मुखर होकर सवाल करती हैं  कि क्या इन पुरुषों को समझ में नहीं आता है कि उन्होंने भी एक स्त्री की कोख से ही जन्म लिया है, फिर हम उन्हें क्यों अपमानित करें?

वह कहती है कि मैं अपनी बात यहां पर रखती हूं, क्योंकि मै एक बेटी हूं इसलिए उन बेटियों का दर्द जानती हूं, जिन्हें हंसने तक नहीं दिया जाता! जिनसे बोलने का अधिकार तक छीन लिया गया है, जिनके सपनों को पंख लगने से पहले ही काट दिया जाता है और उन उन सैंकड़ों लड़कियों में से मैं भी एक हूं।

समाज में जागरूकता सबसे बड़ी ज़रूरत

ग्रामीण महिलाएं और पुरुष (साभार ट्विटर)

पूजा जैसी कई लड़कियां हैं, जिनके सपनों को केवल इसलिए कुचल दिया जाता है, क्योंकि वह लड़की है। अधिकतर पहाड़ी इलाके की किशोरियों को कुछ करने का मौका केवल इसलिए नहीं मिल पाता है, क्योंकि समाज की नज़रों में वह कमज़ोर और लाचार हैं और अगर कभी उन्हें मौका मिल भी जाए तो समाज के ताने उन्हें जीने नही देते हैं।

दरअसल जागरूकता और शिक्षा की कमी इस समस्या की सबसे बड़ी जड़ है। यही कारण है कि यहां के लोगों का मानना है कि लड़कियां  घर कि चारदीवारी  के अंदर ही सुरक्षित हैं।

यदि लड़की  अपने माता-पिता को कुछ समझाने के लिए अच्छी बातें बोल भी दे, तब लोग ताने सुनाने लगते हैं  और बोलते हैं कि लड़की अब बड़ी हो गई है, इसलिए ज़ुबान लड़ा रही है, जबकि वही बात यदि लड़का कहें तो समाज उसे समझदार मानता है।

बहरहाल, महिलाओं के प्रति समाज कि इस सोच को बदलने की ज़रूरत है, जो शिक्षा और जागरूकता मात्र से ही संभव है महिलाओं को उचित स्थान और सम्मान दिलाने के लिए सरकारों की ओर से किये जा रहे प्रयास सराहनीय है, लेकिन अब ज़रूरत है एक ऐसी योजना की जो समाज में जागरूकता फैलाने पर आधारित हो, जिसके माध्यम से ग्रामीण भारत में लड़का और लड़की के बीच भेदभाव वाली सोच को समाप्त किया जा सके।

अच्छी बात यह है कि नई नस्ल ऐसे भेदभाव आधारित समाज को नकारने लगी है  लेकिन देश के ग्रामीण क्षेत्रों में इस सोच को अधिक-से-अधिक बढ़ावा देने की ज़रूरत है, ताकि न्यू इंडिया में लड़कियों को भी सम्मानपूर्वक उनका अधिकार मिले।

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