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“लड़कियां अगर देवी हैं, तो उन्हें लड़कों से कम क्यों आंकता है समाज?”

लड़कियों से भेदभाव क्यों

केन्द्रीय स्वास्थ्य परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी सर्वेक्षण 2021 के आंकड़ों के अनुसार पहली बार देश में लड़कियों की संख्या लड़कों से अधिक हुई है। सर्वेक्षण के अनुसार प्रति हज़ार लड़कों पर 1020 लड़कियां हैं।

आज़ादी के बाद पहली बार 

माना यह जा रहा है कि आज़ादी के बाद यह पहली बार है, जब देश में लड़कियों की संख्या ना केवल एक हज़ार को पार कर गई बल्कि लड़कों से अधिक हो गई है और भारत के जनसांख्यिकीय बदलाव का यह सुखद संकेत है।

इससे यह तो साबित हो  रहा है कि अब देश में लड़का और लड़की के बीच अंतर और लड़कियों को कमज़ोर समझने वालों की सोच में बदलाव आने लगा है। यह सोच अब विकसित होने लगी है कि जो काम लड़के कर सकते हैं, वही काम लड़कियां भी बखूबी और पूरी ज़िम्मेदारी के साथ कर सकती हैं। वास्तव में यह बदलाव देश में महिला सशक्तिकरण की दिशा में भी मील का पत्थर साबित होगा।

संविधान ने महिलाओं को बराबर माना 

आज के इस युग में इस बात पर ज़ोर दिया जाता है कि लड़का-लड़की एक समान हैं, दोनों को शिक्षा, सुरक्षा एवं अन्य सभी अधिकार समान रूप से मिले हुए हैं। आज़ादी के बाद ही हमारे संविधान निर्माताओं ने इस बात को सुनिश्चित किया था कि किसी के साथ भी धर्म, जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा, लेकिन इसके बावजूद आज भी हमारे समाज में यह सारी बुराइयां मौजूद हैं।

क्योंकि हमारे समाज में सबसे अधिक भेदभाव का शिकार महिलाएं ही होती हैं, उनके साथ भेदभाव समाज के सभी वर्गों में पाया जाता है। हालांकि शहरों में यह अपेक्षाकृत रूप से कम है, लेकिन ग्रामीण भारत में आज भी लड़के और लड़कियों में भेदभाव और व्यवहार के तरीके में अंतर साफ़ तौर से नज़र आता है। ऐसे समय में भी जब आज के युग को विज्ञान और तकनीक का युग कहा जाता है।

लड़कियों को महत्वहीन मानता समाज 

समाज में कुछ वर्ग ऐसे हैं, जहां लड़कियों को प्रताड़ना सहन करनी पड़ती है। इसका कारण केवल यह है कि उन वर्गों में आज भी शिक्षा का स्तर अच्छा नहीं है और लड़कियां आज भी अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं हैं और इसी वजह से  उन्हें अपना वास्तविक महत्व पता नहीं चलता है, इसीलिए माता-पिता को भी यह अहसास नहीं होता है कि जो उम्मीद और आशाएं वह बेटे से करते हैं, वही उम्मीदें और आशाएं बेटी भी पूरा कर सकती है।

कई अवसरों पर लड़कियों ने यह साबित किया है कि वो  किसी भी क्षेत्र में और कोई भी फील्ड में लड़कों की तरह ही काम कर सकती हैं और अपने आप को कामयाब बना सकती हैं लेकिन इसके बावजूद भारतीय ग्रामीण समाज में लड़का और लड़की के बीच भेद किया जाता है।

प्रथा और मान्यताओं की बेड़ियां

पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के ग्रामीण समाज में भी यह विभेद गहराई से अपनी जड़ें जमाए हुए है।  यहां के दूर-दराज़ के गाँवों में प्रथा और मान्यताओं के नाम पर लड़कियों को कमतर आंका जाता है

समाज एक तरफ उसे देवी की तरह पूजता है मगर जब बात बराबरी की आती है, तो वही समाज उसे लड़कों की तुलना में कम आंकता है।फिर चाहे पैतृक संपत्ति के अधिकार का मामला हो या फिर शिक्षा जैसे मौलिक अधिकारों की! सभी ज़गह उसे लड़कों के बाद ही स्थान दिया जाता है।

सवाल यह उठता है कि क्या लोगों की यह सोच कभी बदल पाएगी? क्या वास्तव में उत्तराखंड के दूर दराज़ इलाको में लड़के और लड़कियों के बीच किए जाने वाले इस भेदभाव को क्या कभी मिटाया जा पाएगा? क्या कभी ऐसे क्षेत्रों में लड़कों की तरह लड़कियां को भी आगे बढ़ने और पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा?

लड़के पहली प्राथमिकता क्यों?

इस क्षेत्र में इसका जवाब आज भी पूरी तरह से हां नहीं होगा! जहां लड़के और लड़कियों के बीच अंतर किया जाता हो? लड़कियों की तुलना में लड़कों को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, लड़कों को घर के काम से लेकर बाहर काम करने तक में प्राथमिकता दी जाती है। उसके जन्म पर खूब उत्साह मनाया जाता है और मान-सम्मान किया जाता है।

यानि कहने का मतलब साफ है, भला जो समाज लड़कियों के जन्म को अभिशाप समझता है, बल्कि उसके जन्म के बाद से ही समाज उसके मां-बाप को उसकी शिक्षा पर खर्च करने की जगह दहेज़ का सामान जुटाने की सलाह देता है, भला वहां लड़का-लड़की बराबर कैसे होंगे?

शिक्षा तक का अधिकार नहीं?

वहीं, कुछ घरों में तो लड़कियों को स्कूल तक नहीं भेजा जाता है और अगर किसी ने 12वी तक पढ़ाई की भी है और उसके बाद अगर वो उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज में पढ़ना भी चाहती है, तो उसे पढ़ने नहीं दिया जाता है और उसकी शादी करवा दी जाती है।

यदि कोई जागरूक माता-पिता अपनी लड़की को 12वीं के बाद आगे पढ़ाने की सोचते भी हैं, तो समाज उन्हें ताने देकर ऐसा नहीं करने के लिए मजबूर कर देता है,जबकि अगर लड़कियों को पढ़ाया जाए तो वो भी बहुत आगे बढ़ सकतीं हैं और हर उस क्षेत्र में अपनी कामयाबी के झंडे गाड़ सकती हैं, जिसे पहले केवल लड़कों के लिए ही खास माना जाता था।

उत्तराखंड का गनी गाँव 

उत्तराखंड के गरुड़ ब्लॉक स्थित इस गनी गाँव की ऐसी बहुत सी लड़कियां हैं, जो ना केवल पढ़ने में तेज हैं बल्कि चित्रकारी, कहानी और कविता में भी गजब की महारत रखती हैं। यदि उन्हें उचित मंच मिले तो साहित्य के क्षेत्र में यहां की लड़कियां विश्व पटल पर नाम रौशन कर सकती हैं, लेकिन उन्हें यह अवसर नहीं मिल पाते हैं, जिसकी वे हकदार हैं और इसी वजह से उनकी कलाएं एक जगह सिमटकर रह जातीं हैं।

यहां लड़कियों को पढ़ाया नही जाता, क्योंकि घर वाले सोचते हैं कि उन्हें तो पराए घर ही जाना है। दरअसल, अशिक्षा और जागरूकता की कमी इस क्षेत्र के विकास में ना केवल बाधा है, बल्कि लड़कियों के लिए भी सबसे बड़ी समस्या है, जिसे दूर किये बिना ना तो लड़कियों को आगे बढ़ने के अवसर मिलेंगे और ना ही समाज का सर्वागीण विकास संभव होगा? 

योजनाओं के साथ जागरूकता ज़रूरी 

दरअसल समाज के विकास के लिए ढेरों योजनाओं के बाद भी हमारा समाज इसलिए भी पीछे रह जाता है, क्योंकि इसमें जागरूकता का अभाव है। यदि समाज को शिक्षित बनाना है, तो पहले उसे जागरूक बनाना होगा क्योंकि यही वो माध्यम है जो ना केवल शिक्षा की महत्ता को समझता है

वहीं, इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि जो समाज जितना अधिक शिक्षित होगा, वही समाज अन्य की तुलना में विकसित होगा, क्योंकि शिक्षित समाज ही लड़कों की तरह ना केवल लड़कियों को अवसर प्रदान करता है, बल्कि उनकी क्षमता का भी भरपूर लाभ उठाता है।

बल्कि लड़के और लड़कियों को समान अवसर भी प्रदान करता है। आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी यदि हमें समाज में भेदभाव पर चर्चा करनी पड़ रही है तो यह नीति निर्माताओं के सोचने का समय है, उनके इस प्रकार की योजनाओं को लागू करने का समय है, जिससे समाज में जागरूकता बढ़े।

यह आलेख उत्तराखंड के बागेश्वर जिला स्थित गरुड़ ब्लॉक के गनी गांव की युवा लेखिका हेमा रावल ने चरखा फीचर के लिए लिखा है।

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