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क्या 250 रुपये से कम में घर चलाना मुमकिन है?

दो साल के तांडव के बाद फिलहाल देश में कोरोना की स्थिति पूरी तरह से कंट्रोल में है, जिसके बाद धीरे-धीरे आम जनजीवन पटरी पर लौट रहा है। स्कूल से लेकर कल-कारखाने तक पहले की तरह सामान्य रूप से काम करने लगे हैं। हालांकि चीन और कुछ पश्चिमी देशों में इसका प्रकोप फिर से बढ़ने से देश में भी जून-जुलाई तक चौथी लहर आने की आशंका व्यक्त की जा रही है।

लेकिन सरकार और सभी एजेंसियां किसी भी स्थिति से निपटने के लिए सतर्क नज़र आ रही हैं, यही कारण है कि सब कुछ सामान्य होने के बावजूद मास्क और दो गज़ की दूरी जैसी सतर्कता आज भी अनिवार्य है।

मज़दूर वर्ग की मुश्किलों का क्या?

पिछले दो वर्षों से भी अधिक समय से कोरोना आपदा के कारण सबसे अधिक मज़दूर वर्ग को नुकसान हुआ है। यह वह वर्ग है, जिसका घर प्रतिदिन की आमदनी से चलता है। अर्थात यह वर्ग रोज़ कुंआ खोदता है और रोज़ पानी निकालता है।

जिस दिन काम नहीं मिलता है, उस दिन उसके पूरे परिवार के सामने भुखमरी की नौबत आ जाती है। इस वर्ग की सहायता के लिए कई राज्यों ने अपने-अपने स्तर पर खाद्यान योजनाएं चलाई हैं, जिससे गरीब और मज़दूर वर्ग को मुफ्त या बहुत ही कम राशि में राशन उपलब्ध कराया जा रहा है।

250 रुपये से भी कम पैसे में गुज़ारा करते हैं मज़दूर

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

2021 में आई एक रिपोर्ट के अनुसार, देश में प्रतिदिन एक व्यक्ति की आय लगभग 372 रुपये आंकी गई है, जो सामान्य व अमीर दोनों वर्गों के लिए है मगर हमारे देश के मज़दूर इससे भी कम आय में अपना जीवन-यापन करने के लिए मजबूर है। यह वर्ग अक्सर समाज की मुख्यधारा से ओझल होता है। इसकी प्रतिदिन आय लगभग 250 रुपये या उससे भी कम आंकी गई है।

ऐसे में समाज और सरकार को इस वर्ग के उत्थान के लिए गंभीरता से सोचना होगा। विशेषकर, कोरोना महामारी के बाद जबकि नौकरियों के अवसर काफी कम हो गए हैं, ऐसे में इस वर्ग के लिए अवसरों को तलाशना बहुत ज़रूरी हो गया है। जबकि हमारे समाज की प्रथा इस प्रकार हो गई है कि अमीर व्यक्ति और भी अधिक अमीर और गरीब और भी ज़्यादा गरीब होता जा रहा है।

कोरोना महामारी के कारण आर्थिक रूप से सभी प्रभावित हुए हैं। पहली लहर में लॉकडाउन के बाद से देश की अर्थव्यवस्था काफी हद तक प्रभावित हुई। अचानक किए गए लॉकडाउन से हज़ारों मज़दूरों के सामने रोज़ी-रोटी का संकट खड़ा हो गया। जिन्हें पैदल घर जाने पर मजबूर होना पड़ा था, क्योंकि कल-कारखाने बंद हो गए थे। इससे देश के लघु उद्योगों को सबसे अधिक झटका लगा था।

अर्थव्यवस्था में गिरावट से हज़ारों लघु उद्योगों पर ताला लग गया है, जिसमें काम कर प्रतिदिन कमाने वाले लाखों मज़दूर एक ही झटके में बेरोज़गार हो गए थे। हालांकि इस वर्ग को संकट से उबारने के लिए केंद्र से लेकर सभी राज्य सरकारों ने सराहनीय प्रयास किया था। एक ओर जहां इस उद्योग को फिर से खड़ा होने के लिए आर्थिक पैकेज प्रदान किए गए, वहीं मज़दूरों के लिए मुफ्त अनाज वितरण कार्यक्रम चलाया गया ताकि उनके घर का चूल्हा जलता रहे।

यदि फिर कोरोना आया तो?

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

दूसरी लहर में अर्थव्यवस्था से अधिक लोगों की जानों का नुकसान हुआ था लेकिन नौकरियों के जाने का सिलसिला बरकरार रहा। ऐसे में मज़दूरों के लिए नौकरियों के अवसर का होना बहुत ही मुश्किल है। देश में लगभग 40 प्रतिशत आबादी मज़दूरी कर अपना जीवन-यापन कर रही है। कोरोना काल में यह दर बढ़ी है।

विशेषज्ञों के अनुसार, यदि पुनः कोरोना का प्रहार होता है, तो दर में बढ़ोतरी के साथ देश के लिए रोज़गार व भुखमरी की समस्या पैदा हो जाएगी। देश के अन्य राज्यों की तरह उत्तराखंड में भी दैनिक मज़दूरी करने वालों की एक बड़ी संख्या मौजूद है, जो दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़ सहित देश के विभिन्न हिस्सों में कार्यरत हैं। कोरोना काल और लॉकडाउन के बाद इनमें से अधिकतर बेरोज़गार हो गए हैं।

क्या कहते हैं मज़दूर?

प्रवासी मज़दूर। फोटो साभार- Getty Images

इस संबंध में नैनीताल स्थित रामगढ़ के लेटीबुंगा गाँव के माधो सिंह कहते हैं कि वो मजदूरी का कार्य करते हैं। मजदूरी भी ऐसी जो हमेशा साथ नहीं देती। इस कार्य से जो पैसा आता है, वह दैनिक कार्यो की पूर्ति में भी कम पड़ता है। ऐसे में उनके बच्चे शिक्षा से वंचित हो रहे हैं।

उपयुक्त भोजन न हो पाने की दशा में परिवार स्वास्थ संबंधित परेशानियों से ग्रसित हो रहा है और किस्मत का कहर यह है कि सरकारी अस्पतालों की लंबी भीड़ और निजी अस्पतालों में खर्चा देखकर अक्सर बिमार होने पर मरीज़ को भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है। वहीं, ग्राम शशबनी की कौशल्या देवी बताती हैं कि कोरोना महामारी में अपने दोनों पुत्रों को खोने के बाद अपनी बहुओं व नाती पोतियों की वही एकमात्र आस है लेकिन उनकी आजीविका कृषि अथवा दैनिक मज़दूरी है।

कृषि पर जंगली जानवरों का आतंक होने से आय नगण्य सी है। किसी प्रकार दैनिक मज़दूरी से घर की आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है। पिछले लॉकडाउन की भयावह रूप देखकर उनके मन में इतना खौफ है कि दोबारा लॉकडाउन की कल्पना से आंखों में आंसू आ जाते हैं।

वो कहती हैं कि यदि फिर से कोरोना का प्रकोप बढ़ने पर लाॅकडाउन लगा तो उनके परिवार को अत्यन्त ही मुश्किलों का सामना करना पड सकता है, जिसकी हालत में वह और उनका परिवार नहीं है। धारी ब्लॉक स्थित सेलालेख गाँव के मनोहर लाल बताते हैं कि वह रजाई गद्दा बनाकर आय सृजन करते हैं।

परिवार की वर्तमान आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं है। बड़ी मुश्किल से कोरोना पाबंदियों के हटने से परिवार की हालत सुधर रही है, ऐसे में यदि फिर से कोई लाॅकडाउन लगता है तो उनके परिवार की आर्थिक स्थिति पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा। दिन भर कार्य करने व बिकने के बाद रु.200-रु.300 की आय होती है।

सरकार की क्या ज़िम्मेदारी बनती है?

योजनाओं का धरातलीय सच देखना हो तो ग्रामीण क्षेत्रों और मज़दूर वर्गों के बीच जाने की आवश्यकता है, जिन्हें इन योजनाओं की जानकारी तक नहीं होती है। ऐसे में सरकार को इस प्रकार के रोज़गार सृजित करने की आवश्यकता है, जो इन्हें आसानी से मिल सके। इसके अलावा रोज़गार का खाका भौगोलिक परिस्थिति को ध्यान में रखकर बनाए जाने की ज़रूरत है, ताकि सभी क्षेत्रों के मज़दूरों को सालों भर रोज़गार उपलब्ध रहे।

सरकार को चाहिए कि वह लघु उद्योगों को अधिक बढ़ावा दे, क्योंकि यह कम लागत में आसानी से स्थापित हो जाता है और इससे बेरोज़गारी पर भी काफी हद तक काबू पाया जा सकता है, क्योंकि इस वक्त देश में बड़े उद्योगों के साथ-साथ मज़दूर वर्ग को भी विशेष सहायता ज़रूरत है।

नोट: यह आलेख उत्तराखंड के नैनीताल स्थित सतबुंगा से राजेंद्र सिंह ने चरखा फीचर के लिए लिखा है।

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