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“माहवारी के दिनों में मुझे गौशाला में बंद रखा गया”

उत्तराखंड और अंधविश्वास

21वीं सदी के भारत को विज्ञान का युग कहा जाता है, जहां मंगलयान से लेकर कोरोना के वैक्सीन को कम समय में तैयार करने की क्षमता मौजूद है, लेकिन इसके बावजूद इसी देश में अंधविश्वास भी समानांतर रूप से गहराई से अपनी जड़ें जमाए हुए है।

इतना अंधविश्वास क्यों?

वहीं, देश के शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में अंधविश्वास का प्रभाव अधिक देखा जाता है, जहां अनजाने में ही लोग मान्यताओं और संस्कृति के नाम पर अंधविश्वास का शिकार हो जाते हैं। शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण ही ऐसे मामले सामने आते हैं।

दरअसल, अंधविश्वास का मूल कारण व्यक्ति के अंदर का डर होता है, जिसकी वजह से वह खुद को इस जाल में फंसने से रोक नहीं पाता और जब कोई व्यक्ति कोई कार्य करने जाए और किसी के द्वारा उसे यह कह दिया जाए कि आज ये कार्य करने से कुछ बुरा हो सकता है, तो वो डर के कारण चाहते हुए भी वो कार्य नहीं करता है।

अज्ञानता की रूढियां

अंधविश्वास का दूसरा मूल कारण अज्ञानता या अल्प ज्ञान भी है, जो जागरूकता में कमी के कारण होती है। यही अल्प ज्ञान जब इंसान पर हावी हो जाता है, तब उसके, स्वयं की क्षमता और विश्वास में कमी आ जाती है, जिससे वो अंधविश्वास की ओर अग्रसर होता चला जाता है। देश के दूर दराज़ ग्रामीण क्षेत्रों में जहां भी शिक्षा का स्तर कम होगा, वहां अंधविश्वास अधिक मज़बूत नज़र आएगा और ऐसा नहीं है कि पढ़े-लिखे शहरी क्षेत्रों में अंधविश्वास बिल्कुल समाप्त हो चुका है।

कई शिक्षित और उच्च सोसाइटी में भी किसी ना किसी रूप में हमें इसका प्रतिबिंब साफ नज़र आ जाता है। हालांकि, ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा शहरी क्षेत्रों में अंधविश्वास का समर्थन करने वालों की संख्या काफी कम है, लेकिन वैज्ञानिक युग में देश के महानगरों से अंधविश्वास पूरी तरह से समाप्त हो गया हो, यह कहना कठिन होगा। वहीं,  ग्रामीण क्षेत्र की एक बड़ी संख्या को  अंधविश्वास के जाल ने जकड़ा  हुआ है।

उत्तराखंड! इलाज़ नहीं, झाड़ फूंक ज़रूरी

पहाड़ी क्षेत्र उत्तराखंड भी ऐसा ही एक राज्य है, जहां के ग्रामीण क्षेत्रों में अंधविश्वास का बोलबाला है। राज्य के बागेश्वर ज़िला स्थित गरुड़ ब्लॉक का लमचूला गांव इसका एक उदाहरण है।

अंधविश्वास यहां के समाज पर इस कदर हावी है कि गांव में अगर कोई बीमार हो जाए, तो उन्हें डॉक्टर के पास ले जाने से बेहतर झाड़-फूंक करवाना समझते हैं। बड़ी से बड़ी बीमारी के लिए भी डॉक्टर को दिखाने की जगह झाड़ फूंक को प्राथमिकता दी जाती है, जिससे कई बार व्यक्ति की जान तक चली जाती है। अंधविश्वास उन्हें खत्म कर रहा है, परंतु लोग इस अंधविश्वास से बाहर निकलना ही नहीं चाहते हैं और अंधविश्वास की यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है।

वहीं, समाज इसे अंधविश्वास की जगह मान्यता नाम देता है और इसे वह गर्व से अपनाता भी है। हालांकि शिक्षा के प्रसार के बाद नई पीढ़ी में इसके विरुद्ध जागरूकता आई है और वह इसे विज्ञान के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करता है लेकिन अभी भी ऐसी सोच वालों की संख्या सीमित है।

झाड़ फूंक ले रहा जानें

इस संबंध में गाँव की एक किशोरी दीपा का कहना है कि अगर गाँव में किसी को पेट दर्द, सर दर्द अथवा स्वास्थ्य संबंधी कोई अन्य परेशानी आती है, तब लोग उसे डॉक्टर को दिखाने की जगह किसी के द्वारा किया गया जादू-टोना मान कर उसकी झाड़ फूंक करवाने का प्रयास करते हैं, जबकि उस समय उसे मेडिकल ट्रीटमेंट की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है।

बीमार व्यक्ति को अस्पताल ले जाने की बजाय उसे घर पर ही रखते हैं और बोलते हैं कि बाबा को बुलाओ और इन पर लगे देवताओं को हटवाओ, वे रोगी को अस्पताल में दिखाने की जगह लगातार झाड़-फूंक करवाने का प्रयास करते रहते हैं और आखिरकार उचित इलाज नहीं मिलने के कारण उस इंसान की मौत हो जाती है। इस सबके बावजूद अक्सर समाज यह स्वीकार करने को तैयार नहीं होता है कि बीमार व्यक्ति को समय पर इलाज की ज़रूरत थी।

माहवारी में लड़कियां/महिलाएं भी इसकी शिकार 

ऐसा केवल बीमार व्यक्ति के साथ ही व्यवहार नहीं किया जाता है बल्कि माहवारी के चक्र से गुज़र रही किशोरियों और गर्भवती महिलाओं के साथ भी किया जाता है। दीपा के शब्दों में ”ऐसा ही माहवारी के दिनों में बेटी और महिलाओं के साथ भी व्यवहार किया जाता है, उसे 11 दिनों तक घर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता है और ना ही किसी चीज़ को छूने दिया जाता है। माहवारी के दिनों में लड़कियों और महिलाओं को अशुद्ध मान कर उसे घर से बाहर गौशाला में रहने पर मजबूर किया जाता है और ये घर से जुड़ी सबसे गंदी जगह होती है, जबकि माहवारी के दिनों में सबसे अधिक साफ-सफाई की आवश्यकता होती है! ना केवल शरीर बल्कि रहने की जगह भी साफ होनी ज़रूरी है।

वहीं, इस दौरान कई किशोरियों को पेट में दर्द अथवा अन्य तकलीफें होती हैं, जिसके लिए समय-समय पर डॉक्टर की सलाह आवश्यक होती है, लेकिन अंधविश्वास में डूबा समाज उस पीड़िता को मेडिकल चेकअप की जगह झाड़-फूंक पर अधिक ज़ोर देता है और इतना ही नहीं? इस दौरान किशोरियों को कड़कड़ते जाड़े के दिनों में भी ठंडे पानी से ही नहाने पर मजबूर किया जाता है।

अंधविश्वास के इस ज़ोर के कारण कई बार शारीरिक रूप से कमज़ोर लड़कियां बीमार पड़ जाती हैं, जो बीमारी थोड़ी सजगता से ठीक हो सकती थी, वो अंधविश्वास के कारण एक बड़ी समस्या बन जाती है, कई बार इसके कारण लड़कियों को जीवन भर शारीरिक रूप से कष्ट उठाना पड़ता है।

क्यों महिलाएं भी नहीं तोड़तीं ये परम्पराएं?

इस संबंध में दीपा और अन्य किशोरियों का कहना है कि हिमालय से सटे इस पहाड़ी क्षेत्र में चाहे कितनी ही ठंड क्यों ना हो? किशोरियों को चाहे कितनी ही परेशानियां क्यों ना हो, हमें नदी के पानी में ही नहाना होगा, फिर चाहे नदी कितनी भी दूर क्यों ना हो, हमें वहां जाना ही होगा और चिंता की बात ये है कि सदियों से चली आ रही इस परंपरा को स्वयं महिलाएं निभा रही हैं।

गाँव की एक अन्य किशोरी चांदनी का कहना है कि माहवारी के दिनों में यहां लड़कियों और महिलाओं को मंदिरों में प्रवेश तक नहीं करने दिया जाता है, इस दौरान उसे अशुद्ध मानकर सभी प्रकार के पूजा-पाठ या अन्य विधि विधान के कार्यों से दूर रखा जाता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में अंधविश्वास का शिकार सबसे अधिक महिलाएं और किशोरियां होती हैं, जिन्हें परंपरा और मान्यता के नाम पर इसकी मार झेलनी पड़ती है। इसे शिक्षा और जागरूकता के माध्यम से ही दूर किया जा सकता है।

यह आलेख उत्तराखंड के बागेश्वर जिला के गरुड़ ब्लॉक स्थित सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से अति पिछड़े एक गाँव लमचूला से कुमारी कविता ने चरखा फीचर के लिए लिखा है।

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