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क्या मुसलमानों को देश से हटाना इस नए भारत का लक्ष्य है?

कतार में खड़े मुस्लिम समुदाय के लोग

कतार में खड़े मुस्लिम समुदाय के लोग

कहानी का सबसे रोचक पड़ाव पढ़ने वाले का विचार तय करता है और वह किसी भी भाग को चुन सकता है। वह अपनी इक्छा से वो भाग चुन सकता है, चाहे वो आखिरी भाग हो या पहला भाग या बीच की घटनाओं का समुच्चय।

यह लेखक की हमेशा नैतिकता होती है कि वो  घटना के किस भाग को दिखाता है और कौन सा भाग छुपा लेता है और जब ये  कहानी हम 50 साल बाद पढ़ रहे हों, तो हमें यही लगता है कि कहानी उतनी ही थी जितनी बताई गई है।

लिखा गया इतिहास किसका ?

क्या ये इतना मुश्किल है कि कहानी की सच्चाई का अनुमान या किरदार के काम को मापा ना जा सके? दक्षिण कोरिया का जेजू द्वीप जो किसी समय में कोरिया का दक्षिणी भाग हुआ करता था, बंटवारे के बाद दक्षिण कोरिया मे चला गया। आज वो दक्षिण कोरिया का एक प्रसिद्ध पर्यटन केंद्र है। जहां लाखों सैलानी हर साल आते हैं और वहां की खूबसूरत वादियों और समुद्री किनारे से अपने जीवन में खुशी भरने की कोशिश करते हैं।

क्या था जेजू नरसंहार?

मगर इनमें से काफी कम लोगों को जेजू का पुराना इतिहास पता होगा जिसके कई दशकों के पन्ने वहां के लोगों के ही खून से लिखे गए है। दरअसल यह घटना कोरिया युद्ध के समय कि है जब कोरिया को 2 भागों में बांट दिया गया और कई लोगों के लिए ये इतिहास के पन्नों को बंद करने के लिए काफी है। कुछ तथ्यों को जान लेना और उसे अपने उत्तर पुस्तिका में उतार भर देना इतिहास तो नहीं है?

उन गुफाओं में कई यादें हैं जो हमारे फोन की गैलेरी में सुरक्षित होगी पर वहां पर उन लोगों के निशान खुरच के मिटा दिए गए जो जेजू नरसंहार के समय वहां छिपने गए और उन्हे बेरहमी से मार दिया गया। वहां उस झूले की जगह अब  इलेक्ट्रॉनिक कोलमबस गोल घूमता है, जहां बच्चे को उसकी माँ के गोद से उतार कर इसलिए मार दिया गया, क्योंकि वो उस माँ का बच्चा था, जो अपने ही देश के पुलिस और सेना के द्वारा चलाए जा रहे दमन के खिलाफ विद्रोहियों का साथ दे रही थी। इस नरसंहार में 30000 से ज़्यादा लोग मारे गए, 10000 से ज़्यादा घरों को उजाड़ दिया गया।

क्या व्ही सच है जो रटाया जाता है?

आज हमें बैलन्स ऑफ पावर, पावर डेटेरेंस, जिओ पॉलिटिक्स जैसे शब्द काफी आम लगते हैं, जो कि अंतर्राष्ट्रीय संबंध ही नहीं अपितु हमारे आम जन जीवन में भी ज़्यादातर मुद्दों का विषय हैं। हां ये बात अलग है कि वो हमारे आम जीवन को कितना प्रभावित करता है, परंतु मीडिया द्वारा हमें रटाया जाता है कि हमारी समस्याओं का कारण कोई बाहरी है, हम आम जन मानस में कई मान्यताएं बहुत गहराई से बिठाई गई है कि इतिहास हमेशा ही काला रहा है।

आम लोगों के लिए और तकतवारों ने कमजोरों के ऊपर शासन किया है। अल्प संख्यक ने बहुसंख्यक के ऊपर शासन किया है, गोरों ने कालों के ऊपर शासन किया है, साम्राज्यवादियों ने उपनिवेश के ऊपर शासन किया है। जैसे इतिहास की कोई दिशा ही ना हो, वह बस घट रहा है और एकाश्म (मोनोलिथ) पड़ा हो। जैसे उसके सारे किरदार बस एक परिस्थिति के ग़ुलाम थे और बस वैसे ही मार गए या शहीद हो गए। पर ऐसा सच है क्या? क्या सच में हमारा मुस्तकबिल या जीवन को प्रभावित करने वाले कुछ लोग ही थे जिनके पास शक्तियां थी या हैं। या उसमे हमने कोई यहां किरदार निभाया या निभा सकते हैं?

आखिर क्या है ज्ञान?

चेतना के विकास के बारे में दार्शनिकों के बीच काफी विवाद रहा है कि चेतना  है क्या? चेतना का निर्माण हमारे दिमाग में होता है या पदार्थ से या चेतन को बाहरी शक्ति चलती है? ये तमाम सवाल ज़रूरी ही क्यों हैं? आखिर हमें चेतना  के सही आधार को खोजने की ज़रूरत ही क्या है? इन तमाम सवालों के जवाब हमें इसलिए जानने ,हैं क्योंकि हम इस इतिहास के निष्क्रिय भागीदार नहीं हैं। यहां हमारा हर एक दिन कुछ जुड़ रहा है तो कुछ टूट रहा है इस सारे संसार में।

साथ ही सही ज्ञान, सही चेतना  के विकास के लिए बेहद ही आवश्यक शर्त है और वास्तविक ज्ञान है क्या? इसके परीक्षण के लिए दो महत्वपूर्ण बिन्दु हैं, जिस पर हमें गौर करने करने की  ज़रूरत है। पहला इंद्रियों द्वारा जो हमे ज्ञान प्राप्त हो रहा है और दूसरा वस्तुनिष्ट परीक्षण(अब्जेक्टिव अनैलिसिस) है।

हमारे देश के लगभग सभी जगहों पर कुछ यह कहावत प्रचलित है कि “आंखों से देखी हुई हर बात सच नहीं होती या जो दिख रहा है सच केवल सच उतना ही नहीं होता”। अर्थात इंद्रियों से प्राप्त सूचना केवल ज्ञान का कुछ भाग ही हो सकता है, जिसे इम्पीरिसिस्ट सम्पूर्ण ज्ञान का आधार मानते हैं। इसे एक उद्धरण के साथ समझ सकते हैं जैसे मुगलों ने चित्तौड़ के राजा  को हरा कर उन्हे मार दिया और वहां के समस्त साम्राज्य को अपने अधीन कर लिया।

क्या मुगलों ने सिर्ग राजपूतों को मारा?

ये  बात सच है और देखने से यही प्रतीत होता है कि मुग़लों ने राजपूत राजा को मार दिया पर अगर हम यह जानने की कोशिश ना करें कि क्या मुग़लों ने युद्ध के दौरान किसी अन्य राजा को भी मारा है या केवल राजपूत राजा ही मारे गए या उनके पूर्वजों ने अरब ईरान क्षेत्र के राजाओं को भी युद्ध में मार और संपत्ति अधिग्रहित की थी। अगर हम यह जाने बिना की घटना के प्रति कौन से कारण ज़िम्मेदार हैं या कौन सी विचारधारा काम कर रही है या और कौन से और प्रधान पहलू हैं, जो इस घटना के इतिहास को तय कर रहे हैं?

क्या हम किसी निर्णय पर पहुंचने का प्रयास करें, तब हम सही ज्ञान तक नहीं पहुंच सकते हैं। ठीक उसी तरह सिर्फ कारणों और उसके प्रभावी ज़िम्मेवार पहलू को देख कर हम इंद्रिय द्वारा प्राप्त सूचना को गलत नहीं कह सकते, जैसे की आमूमन तर्कवादी(Rationalist) दार्शनिक करते हैं।

ऐतिहासिक मुल्यांकन हर परस्थिति का ज़रूरी है 

जैसे अगर हम पूंजीवाद के शुरुआती दौर में बात करें तो, वो  अपने प्रगतिशील चरण में है और वह सामंतवाद से लोहा लेकर एक नई प्रगतिशील नैतिकता को ला रहा है, परंतु उस रैसनल के आधार पर ही हम साम्राज्यवाद के शोषणकारी चरित्र जो दिख रहे हैं उसे नज़रंदाज भी नहीं कर सकते हैं।

अर्थात प्रत्येक समय, स्थान और परिस्थिति का उचित ऐतिहासिक मूल्यांकन और सही दृष्टि की तालमेल ही हमें वास्तविक ज्ञान तक पहुँचने में मददगार सिद्ध हो सकती है। इसी परिपेक्ष में हमें भारत के लोगों के मध्य लोकतान्त्रिक चेतन के विकास को समझने का भी प्रयास करना चाहिए। अर्थात परोसे गए तथ्य और विवेचना का ऐतिहासिक वैज्ञानिक परीक्षण ही हमे सही चेतन की ओर ले जाने में सक्षम है।

लोकतान्त्रिक चेतन भी हर प्रकार की चेतन की तरह संघर्ष और अंतर्विरोधों से विकसित हुई चेतन होती है जिसमें हम समानता, स्वतंत्रता, अधिकार, न्याय आदि को मानवीय जीवन में लाने के लिए संघर्ष करते हैं और उन तमाम ताकतों के खिलाफ संघर्ष करते हैं जो हमें यहां तक पहुंचने से रोकते हैं और इन बुनियादी मूल्यों के बिना लोकतान्त्रिक मूल्य को नहीं प्राप्त किया जा सकता है। अर्थात यह बात तय है कि बिना संघर्ष के लोकतान्त्रिक समझ का विकसित होना भी संभव नहीं है

क्या हमें  चुनाव के पीछे की समझ मालूम है?

भारत के लोगों के मध्य अंग्रेज़ों के विरुद्ध समझ का विकास भी उनके दमन के विरुद्ध संघर्ष से ही हुआ था, जिसमें जनता ने एक लंबे संघर्ष के साथ कुछ मूल्यों की कमी को बहुत करीब से देखा था, जिसे हमने संविधान के माध्यम से लोगों तक पहुंचने  का प्रयास किया था। परंतु क्या साम्राज्यवाद की समझ व उसके तमाम पहलुओं को समझ पाने में हम कामयाब रहे? क्या हमने चुनाव के पीछे की लोकतान्त्रिक समझ को विकसित करने प्रयास किया? क्या हम शक्ति के केन्द्रीकरण और राज्य के असीम क्षेत्रों को सवालों की कसौटी पर लाने का प्रयास किया?

यह तमाम बिन्दु हमारे परीक्षण का विषय हैं और इन सवालों को समाधान तक पहुंचे बिना हमारी लोकतान्त्रिक चेतना का सही और विकसित रूप सामने भी नहीं आ सकता है। भारतीय जनता के जनतान्त्रिक चेतन के विकास में सबसे बड़ी बाधा जातिवादी व्यवस्था को मानना और साम्राज्यवादी आर्थिक राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों और व्यवहारों को पालन करना है और इन दोनों ही विचारधाराओं का एक मिलजुला रूप भारत के अंदर फासीवादी विकास है।

हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का लक्ष्य किसका?

इस प्रारूप का लक्ष्य भारत में हिन्दू राष्ट्र की स्थापना है। जिसमें भारत के भौगोलिक क्षेत्र में निवास करने वाले हर एक व्यक्ति को हिंदुवादी संस्कृति का पालन करना पड़ेगा, चाहे वो किसी भी धर्म, संस्कृति की विचारधारा को मानने वाला हो, जिसके विकास में सबसे बड़ी समस्या मुसलमान, पाकिस्तान और चीन है, परंतु क्या यह पूरा सच है? नहीं!

एक तरफ खुलेआम मुसलमानों पर हमले किए जा रहे हैं वही दूसरी तरफ सरकारी ढांचों(पुलिस, अर्ध- सैनिक बल, न्यायालय आदि) को पूरी तरह से अपने हाथ खींचने के आदेश दे दिए गए हैं। इस पूरी प्रक्रिया में भारत के अंदरूनी इलाकों में सैन्यीकरण की प्रक्रिया को काफी बढ़ावा दिया जा रहा है। परंतु सैन्यीकरण की इस प्रक्रिया का केवल अर्थ भारत के अंदर से मुसलमानों या विकास में बाधक तत्वों को हटाना है? या नव उदारवादी व्यवस्था के इस चरण में इसका कोई और भी महत्व है? हम इन प्रश्नों का जवाब आगे ढूँढने का प्रयास करेंगे?

नवउदारवादी नीति और सैन्यवाद

नवउदारवादी नीति का विकास दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही प्रारंभ हो जाता है। जहां साम्राज्यवादी देशों ने उपनिवेशों पर अधिकार स्थापित करने के लिए एक दूसरे के विरुद्ध 6 वर्षों का युद्ध लड़ा और विश्व ने एक भयानक त्रासदी का सामना किया। इसके तुरंत बाद ही नव-उपनिवेशवाद की प्रक्रिया को विधिवत रूप से ब्रिटेनवुड्स कॉनफेरेंस(1944) तथा संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के साथ लाया गया। नव उदारवाद वह व्यवस्था है जिसमें देश और राष्ट्रों को प्रत्यक्ष रूप से अधिकार में लेने के बजाय पूंजी को प्रत्यक्ष रूप से उस देश में पहुंचाया जाता है तथा वहां  के संसाधनों का उपयोग कर मुनाफा बड़े पूंजीपति के पास चला जाता है।

इसके साथ ही यह पूंजी अपने साथ एक बड़े बाज़ार के निर्माण के उद्देश्य के साथ किसी देश में दाखिल होते हैं, जिससे उनका सामान आसानी से बेच जा सके। परंतु पूरे विश्व में यह प्रक्रिया इतनी शांतिपूर्ण नहीं रही जिसका दावा नव उदारवादी बड़े पूंजीपति और उसकी पोषित सरकारें करती हैं। बढ़ते निजीकरण के कारण जो बेरोज़गारी धीमी गति से बढ़ रही थी नव-उदारवादी पहल ने उसे और बढ़ा दिया है।

बेरोज़गारी चरम पर 

2020 के सरकारी आंकड़े ये बताते हैं कि भारत में बेरोज़गारों की संख्या 53 मिलियन से ज़्यादा है और रोज़गार कर रहे लोगों में ज़्यादातर  जनसंख्या असंगठित क्षेत्रों में काम कर रही है। पूरे लॉकडाउन काल में जहां लोग खाने के बिना और इलाज के अभाव में मर रहे थे  वैसे में भारत के बड़े दलाल पूंजीपति(जिनके नाम पर विदेशी पूंजी को भारत में ग्रीन कार्ड दिया जाता है और लोगों को भरमाया जाता है कि यह हमारे देश में पूंजी का निर्माण करेंगे) का मुनाफा तेजी से बढ़ा है।

ऐसे में देश के प्रत्येक क्षेत्र और जनता के तरफ से तीव्र प्रतिरोध भी देखने को मिला है। ऐसे प्रतिरोधों को रोकने के लिए और नवउदारवादी पूंजी को आसान रास्ता देने के लिए विशाल सैन्यीकरण एक आवश्यक शर्त है।

क्या है नव उदारवाद?

भारत के अंदर जो वर्तमान में सेना को बढ़ावा देने और ज़्यादा से ज़्यादा ताकत को सेना के हाथ देने की प्रक्रिया सैन्यीकरण से आगे बढ़कर सैन्यवाद की ओर इशारा करती है। राज्य की सुरक्षा और संप्रभुता को सुरक्षित रखने के लिए उदारवादी राजनीतिकशास्त्रियों ने हमेशा ही सेना को एक अनिवार्य अंग के रूप में देखा है, जहां सेना का मुख्य काम जनता की रक्षा करना होता है।

परंतु नवउदारवादी प्रकार के विकास ने सैन्यावाद को बढ़ावा देने का कार्य किया है। जिसमें न केवल सेना की अनिवार्यता पर बल दिया गया अपितु उसे राष्ट्रीय गौरव और सम्मान से भी जोड़ा गया। लोगों के बीच उनकी परेड करना, उसके ऊपर गीत सिनेमा बना कर लोगों के मनोविज्ञान को उनके केंद्र में रखकर अनुकूल बनाना शामिल है। जहां लोग न केवल सेना की अनिवार्यता को समझे अपितु उसके कार्यों को गैर- आलोचनात्मक नजरिए से देखा जाए। ऐसी स्थिति में हर एक स्थान को जनता के सहज स्वीकृति के साथ सैन्यीकृत करना भी आसान हो गया। भारत में नव उदारवाद के विकास के साथ ही सेंट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स,बॉर्डर सिक्युरिटी फोर्स, सेंट्रल इन्डस्ट्रीअल पुलिस फोर्स आदि रूपों में सैन्यीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया गया। ऐसा केवल भारत में ही नहीं हो रह था।

आर्थिक स्तर पर लोकतंत्र की बदहाली 

एक जैसे अर्थशास्त्री जहां नव-उदारवाद को अभी तक के विचारों म स्वतंत्रता का हिमायती बताने में लगे हुए थे उस समय चिली और अर्जेन्टीना में नव उदारवाद के हिमायती अमेरिकी शासक वर्ग वहां की लोकतान्त्रिक सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए व्यापक सैन्यीकरण का प्रयोग कर रहे थे। चिली में पीनोश की नव उदारवादी दलाल सरकार को स्थापित करने के लिए अमेरिका के सीआईए द्वारा ना केवल वहां के बुद्धिजीवियों को शिकागो विश्वविद्यालय में ट्रैनिंग दी गई अपितु, वहां अलग से पाठ्यक्रम की शुरुआत की गई । अमेरिका के नागरिकों को गुमराह करने के लिए ये बोला गया कि यह चिली में ज़्यादा स्वतंत्रता और वहां  के विकास के लिए ज़रूरी है।

इस पूरे प्रकरण में ना केवल अमेरिका अपितु सर पश्चिमी विश्व तमाशबीन बना रहा और वहां की जनता को भयानक विपत्ति का सामना करना पड़ा। अमेरिका में इराक के हस्तक्षेप का प्रमुख कारण वहां पर तानाशाह के शासन की समाप्ति और लोकतंत्र की बहाली थी, जो अमेरिकी और नाटो देशों का महज़ एक दावा भर से ज़्यादा कुछ नहीं था।

झूठे आरोपों से नरसंहार तक 

वहां के सभी आर्थिक क्षेत्रों को विदेशी कॉम्पनियों को बेच दिया गया। जिसमे अमेरिकी सरकार का समर्थन वहां का शासक वर्ग प्रत्यक्ष रूप से करता रहा। परंतु वही यह गौर करने की बात है कि नव उदारवादी व्यवस्था के आगमन के साथ ही जहां अमेरिका ने अपने सैन्य बल को घटाने का दावा किया है वही अमेरिका दुनिया का सबसे बाद मिलिटरी खर्च करने वाला देश बन गया पर यह हुआ कैसे?

व्यापक परीक्षण के बाद यह स्पष्ट हुआ की अमेरिका ने इराक के शासक वर्ग के साथ मिलकर इराक का व्यापक सैन्यकरण किया है। जिसमें ना केवल तकनीक अपितु शस्त्र बाज़ार,सीधे रूप से आर्थिक सहायता सरकार को मुहाईया करवाए गए हैं। जिसका व्यापक रूप से इराकी नागरिकों द्वारा विरोध किए जाने के बाद वहां  के सरकार ने खुद लोगों पर झूठे मुकदमे लगवाए, नरसंहार किए और जेलों में लोगों को भरने के साथ हर प्रकार के यूनियन को बनाने के लोकतान्त्रिक अधिकार का सेना दमन किया गया। भारत के अंदर बढ़ते सैन्यीकरण को हमें इसके निरन्तरता में देखने का प्रयास करना चाहिए।

सैन्य खर्चों में इजाफा क्यों?

जहां एक तरफ सरकार लोगों के आवश्यक ज़रूरतों से सरकारी खर्चों में कमी कर रही है, वहीं सेना और सैन्य खर्चों में लगातार इजाफा कर रही है। परंतु इसे हमे इस प्रकार दिखाया जाता है जैसे सभी देशों में सैन्य खर्चों को लेकर एक प्रतियोगिता चल रही हो और चीन से भारत को सैन्य खर्च ज़्यादा करना चाहिए। वॉरल पौपुलेसन रिव्यू के 2021 के आँकड़े की बात करें तो भारत दुनिया का तीसरा सबसे ज्यादा सैन्य खर्च करने वाला देश है।

जहां अमेरिका और चीन ही इससे सूची में आगे हैं। परंतु भारत की मीडिया इस पूरे रिपोर्ट को कुछ इस तरह से पेश करती है जैसे भारत को बने रहने के लिए सबसे आवश्यक शर्त चीन से ज़्यादा मिलिट्री  खर्च अनिवार्य है, नहीं तो चीन कभी भी भारत पर आक्रमण कर सकता है और जब हम चारों तरफ से अपनी ही सेना से घिर रहे हैं, तब राष्ट्रवाद की आड़ में हमारे मनोविज्ञान को पूरी तरह से राज्य अपने अनुरूप करने का प्रयास करती है। यह मनोविज्ञान हमारे लोकतान्त्रिक चेतन को काफी हद तक नियंत्रित करने का प्रयास करती है और वास्तविकता से दूर करने का कार्य करती है।

सैन्यीकरण का महिमामंडन; बाजार की आवश्यक शर्त

यह एक कल्प नहीं एतिहासिक सत्य है कि जब जनता ज्यादा परेशान होती है, तब वो व्यवस्था से सवाल करती है और सवालों के जवाब ना  मिलने पर उसका प्रतिरोध करती है और इसी प्रतिरोध की गर्भ से नए सामाजिक मूल्यों और विचारों का जन्म होता है ।

भारत में 1990 के दशक से स्ट्रक्चरल अडजस्टमेंट की प्रक्रिया को अपनाया गया है, परंतु इसके पूर्व से ही पूंजी की प्रकृति पूरी तरह से जनता विरोधी रही और सैन्यकरण की प्रक्रिया को मजबूरी से रखा गया। परंतु 90 के दशक के बाद नव उदारवाद अपने दमनकारी रूप में सामने आया जिससे देश में बेरोजगारी की समस्या के साथ-2 भयानक संसाधनों पर विदेशी पूंजी के नियंत्रण को बढ़ावा दिया गया जिसे ‘विकास” के मॉडल के रूप में लोगों के सामने रखा गया।

परंतु इस विकास के मॉडल ने जहां देश की एक बड़ी संख्या को संसाधनों से वंचित कर दिया वही जिन लोगों को रोजगार प्राप्त भी हुए वह लगातार एक सामाजिक असुरक्षा में जीवन जीने को बाध्य है। जहां भी लोगों ने इसके विरोध के लिए अपने आवाज़ को उठाने का प्रयास किया उसे सेना, अर्ध- सैन्य बाल, पुलिस द्वारा बुरी तरह कुचल दिया गया। सेना के या जाने भर से हमने सारे घटनाओं को राज्य के पक्ष में डाल दिया।

हमारे लोकतान्त्रिक चेतन को सीमित करने के लिए भारतीय राज्य ने “विकास” को एक सामान्य शब्द की तरह से प्रयोग किया। परंतु यह नहीं बताया की किसका विकास और किसके लिए विकास? जो जनता इससे प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित है, वह इस विकास में तो है ही नहीं। डेविड हार्वे इसे “डेवलपमेंट ऑफ डिस्पोजेसन” का नाम देते हैं। अर्थात बाज़ारवादी विकास के लिए और संसाधन की लूट के लिए सरकारों ने सेना का उपयोग लोगों की आवाज़ को ना केवल दबाने के लिए किया जबकि दूसरे क्षेत्रों में लोगों को विकास के मार्ग में बाधा भी बताती है।

विश्वविद्यालयों में भी मिलिटरी और इन्स्ट्रूमेंट्स की पढ़ाई

आज के समय में इसे बाज़ार में पेश करने के लिए भारतीय राज्य ने डिफेन्स एक्सपो जैसे तरीकों को अपनाने का प्रयास किया है जिसमें कहने के लिए तो देश में उत्पादन पर जोर दिया जाता है, परंतु वास्तविकता में अत्याधुनिक हथियारों का एक बाद नव उदारवादी बाज़ार प्रायोजित किया जाता है। इसके अलावा मिलिटरी खर्चों को केवल यहीं तक सीमित नहीं रखा जा सकता है। विश्वविद्यालयों में भी मिलिटरी और इन्स्ट्रूमेंट्स की पढ़ाई और रिसर्च के लिए विदेशी कॉम्पनियों द्वारा फन्डिंग की जा रही है। जिसका सीधा असर नौकरियों पर पड़ रहा है।

जहां थोड़े रोज़गार होने से भारत का निम्न पूंजीपति वर्ग उस तरफ मुड़ जाएगा, परंतु यह केवल रोज़गार या पढ़ाई तक सीमित नहीं होता, यह हमे अपने ही देश में अपने लोगों के खिलाफ सत्तापरस्त होने की ट्रैनिंग भी देता है और हमारे आलोचनात्मक नज़रिए को सीमित करता है।

इस नवउदारवादी विनिर्मित सहमति(manufactured consent) को आलोचनात्मक दृष्टि से देखने के साथ देश के आंदोलन को समर्थन देने के साथ हमे आगे आकार उसमें  शामिल होना चाहिए। केवल क्रांतिकारी आंदोलनों के द्वारा ही सही चेतन और लोकतान्त्रिक व्यवस्था को प्राप्त किया जा सकता है। भारत में बढ़ते राजकीय सैन्यकरण का हमे पुरजोर विरोध करना चाहिए।

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