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किशोरियां बाहर जाने से कतराती हैं! कारण क्या है?

ट्रिंगर वॉर्निंग- आर्टिकल में सेक्शुअल वायलेंस का ज़िक्र है।

आज मैं एक ऐसे मुद्दे की बात करने जा रही हूं, जो मुझे और मेरे आसपास की युवतियों, स्त्रियों और LGBTQIA समुदाय के ज़ुबान पर ना सही मगर दिल में एक कसक के तौर पर हमेशा से रहा है। बात है हैरसमेंट की:

मैंने जब हिन्दी भाषा में इसका अर्थ खोजना चाहा तो छेड़खानी के अलावा अन्य परिभाषा मुझे नहीं मिल पाई। सच कहूं तो इसे परिभाषित करना बेहद जटिल है। हैरसमेंट (हैरसमेंट से हमारा मतलब है ‘इव टीज़िंग’ मगर एक संस्था के तौर पर हम उन शब्दों के प्रयोग से बचते हैं, जो किसी इंसान या कम्युनिटी को कमज़ोर दिखाए) समाज में मौजूद उन कुरीतियों में से है, जिसे शायद कहा कम और महसूस अधिक किया गया है। इससे होने वाले बुरे प्रभावों की बात करूं तो शायद उस दिशा में अभी बहुत कुछ होना बाकी है। विचार-क्रिया-बदलाव की कड़ी मे शायद अभी हम वैचारिक आंदोलन में ही फसे हैं।

मैंने यह मुद्दा ही क्यों चुना? 

जब देश मे भुखमरी, बेरोज़गारी, धार्मिक अराजकता और क्लाइमेट चेंज आदि जैसे मुद्दे हल नहीं हो पाए हैं, तो यह हैरसमेंट जैसा हल्का मुद्दा क्यों? कुछ किताबी ज्ञान नहीं फेंकूंगी! बस अपना अनुभव साझा करती हूं। मैं अभी करीब 27 वर्ष की हूं और लगभग 17 वर्ष की उम्र से घर से बाहर रह रही हूं। पढ़ाई, जॉब, घूमने और भारत देखने की इच्छा के कारण। इन 10 सालों मे मैं किशोर से युवास्था मे आई हूं। मानसिक, शारीरिक और व्यक्तिगत तौर पर विकसित हुई हूं और मेरे आसपास का वातावरण भी बदला है। 

एक चीज़ जो नहीं बदली है और वो है अकेले बाहर जाने का स्त्रियों का डर। मैं जब पहली बार घर से बाहर निकली तो सीख ही रही थी कि अकेले रहने के तौर तरीके क्या हैं व बाहरी दुनिया का वातावरण कैसा है. कुछ 10 दिन ही हुए थे राजस्थान के कोचिंग कैपिटल, कोटा में गए और इस दौरान मैंने एक तरीका सीखा।

ड़क के बगल की कच्ची पगडंडी के एकदम किनारे पर चलना और अगल-बगल देखते रहना

शायद यह मेरा डिफेन्स मेकनिज़म था जो मुझे एक बार हुई घटना के बाद ऐसा करने को प्रेरित कर रहा था। मैं जब पहली बार घर से बाहर निकली, तो इतना तो पता था कि पूरे कपड़े पहनकर बाज़ार मे जाना होता है। कस्बे में मैं घूरे जाने की आदत से तो परिचित थी। मुझे सड़क पर आराम से चलने की आदत थी, बेपरवाह और अगल-बगल की चीज़ों को देखते हुए। 

एक बार ऐसा हुआ, मैं बस चल रही थी, अपने काम से जा रही थी, बहुत तेज़ी से दो बाइकसवार आए और पीछे वाले ने मुझे बहुत तेज़ छाती पर मारा। यह मेरे लिए बहुत बड़ा झटका था। शारीरिक दर्द शायद ठीक हो गया मगर मानसिक नहीं। 5 दिन तक सो नहीं पाई, बहुत रोई और समझ नहीं पाई ऐसा क्यों हुआ? मेरे हाथ में कुछ नहीं था, उन लड़कों की शक्ल भी याद नहीं मगर प्रभाव आज भी एक छाप की तरह है। 

एक समूह में चलना और काम खत्म होते ही घर पहुचना

बात है गुलाबी नगरी जैसे सुंदर और शांत शहर जयपुर की। यहां सबसे चोट करने वाली घटना मैंने किसी और के साथ होते हुए देखी और वह डर मेरे दिमाग में बैठ गया| मैं कुछ लड़कियों के साथ कॉलेज से वापस आ रही थी। वही सड़क के एकदम कोने में चलते हुए मैंने देखा कि 2 बाइकसवार आए और इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाती, मेरे बगल में चल रही दो लड़कियों में से एक पर तेज़ी से ऐसिड की बॉटल फेंककर फुर्र हो गए।

बस मैंने उस लड़की को तेज़ी से अपनी और खींचा और ऐसिड की कुछ बूंदें ही हम तक आईं! खुशकिस्मती से बॉटल रोड पर ही फूटी मगर उसका असर मेरे दिल पर बहुत तेज़ी से फूटा। दिल बैठ गया और सुन्न हो गया। जिस लड़की को मैंने बचाया था, उसकी हालत देखते नहीं बन रही थी।

जब वो शांत हुई तो मैंने पूछा तुम जानती थी उसे. उसने कहा कि वो मेरे पीछे काफी दिनों से पड़ा था। मैंने उसका प्रपोज़ल ठुकरा दिया था, शायद इसलिए ऐसा हुआ। अब मैं क्या कहूं, इस डर से मैंने अपने आसपास के ऐसे लड़के, जो मेरे मित्र थे और शायद मुझे पसंद थे, उनसे भी बात करना बंद कर दिया। 

अपने साथ चाकू और पेपर स्प्रे रखना

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- साक्षी अग्रवाल

बात है हैदराबाद की, पढ़ाई के चलते कुछ समय मैं वहां रही। मैंने एक पूल कैब ली अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचने के लिए। मैं हमेशा आगे वाली सीट पर बैठना पसंद करती हूं। थोड़ा सेफ अनुभव होता है इसलिए। कैब में कोई और पैसेंजर नहीं आया और दो बार किसी पैसेंजर की रीक्वेस्ट आने पर भी कैब वाले ने वह कैन्सल कर दी।

मैंने सोचा कि शायद ड्राइवर से गलती हुई होगी। कुछ समय बाद मुझे डर लगा तो मैंने मेरी लोकेशन ट्रैक करनी चाही। देखा तो मैं अपने एक्सपेक्टेड रुट पर नहीं थी। ड्राइवर ने लोकेशन ट्रैकिंग और इंटरनेट बंद कर दिया था। मैं पैनिक हो गई। मैंने उसे गाड़ी रोकने को कहा मगर ड्राइवर ने अनसुना कर दिया। काफी बार बोलने पर भी उसने गाड़ी नहीं रोकी।

गाड़ी उसने अपनी तरफ से मास्टर लॉक कर दी थी। मैं गेट नहीं खोल पा रही थी। जैसे ही गाड़ी हल्की आबादी वाले इलाके में आई, मैंने शीशा पीटना चालू किया और तेज़ तेज़ चिल्लाने लगी। शायद ड्राइवर डर गया और उसने गाड़ी रोक दी। मैं फट से उतरकर सड़क के कोने में भागी। मैं इतनी घबरा गई कि बस ज़मीन पर बैठ गई। जैसे चारों ओर सब सफेद और धुंधला दिखने लगा। सारा शोर शून्य हो गया। दिमाग मे 1000 विचार एक सेकंड में आ गए। 

अगर वो किसी बिल्कुल सुनसान इलाके में गाड़ी ले जाता तो? अगर वो मुझे किड्नैप कर लेता तो? अगर मेरा रेप हो जाता तो? मैंने अपने आप को कोसा कि मैंने यह कैब ली ही क्यों? इस घटना से बाद मैं आज तक अपने साथ पेपर स्प्रे हमेशा रखती हूं। 

अगर मैं चलती गाड़ी से कूद जाती और मर जाती तो? अगर वो किसी बिल्कुल सुनसान इलाके में गाड़ी ले जाता तो? अगर वो मुझे किडनैप कर लेता तो? अगर मेरा रेप हो जाता तो? 

मैंने अपने आप को कोसा कि मैंने यह कैब ली ही क्यों? इस घटना के बाद मैं आज तक अपने साथ पेपर स्प्रे हमेशा रखती हूं। 

यह सभी कुछ ऐसे अनुभव हैं, जिन्हें मैं समय के साथ बाहरी लोगों से साझा करने में कुछ हद तक सहज हुई हूं। बहुत ऐसे भी अनुभव हैं, जिससे मैं काफी प्रभावित हुई मगर साझा करने में सहज महसूस नहीं करती। मैंने अपने आस पास की कई स्त्रियों और किशोरियों से बात की। सभी के साथ कुछ ना कुछ ऐसा ज़रूर हुआ है, जिससे उन्हें महिला होने की सीमाओं का पता चला है। 

अच्छा, कमाल की बात यह है कि इसमे समाज महिलाओं और स्त्रियों को सतर्क रहने को ज़्यादा कहता है। हम विक्टिम ब्लेमिंग से ग्रसित है।

जेन्डर ट्रैनिंग में आदर्श स्त्री का चित्रांकन करती कच्छ की किशोरियां (KMVS संस्था के माध्यम से)

जिसके साथ गलत हुआ, ज़िम्मेदारी उसकी भी तो है। गलत करने वालों को कहां तक रोका जा सकता है? लोग तो गलत कहते ही हैं! किस-किस का मुंह पकड़ें? आमतौर पर कही जाने वाली ये बातें शायद आपके भीतर एक विचार उत्पन्न करें और आप शायद यह समझ पाएं कि मैंने इव टीज़िंग के नाम पर होने वाले हैरसमेंट के मुद्दे को क्यों चुना। मैं इस मुद्दे की महत्ता का मूल्यांकन पाठकों पर छोड़ती हूं। 

मैं इसके प्रभाव को रिपल इफेक्ट के तौर पर देखती हूं

जैसे कि हम पानी में एक पत्थर फेकते हैं, जहां पत्थर पानी को छूता है, उसके चारों और गोलाकार में तरंगें बनने लगती हैं। एक छोटी तरंग, बड़ी तरंग को जन्म देती है। यह सिलसिला तब तक नहीं रुकता जब तक पत्थर के फेंके जाने वाली ऊर्जा सम्पूर्ण रूप से अपने आप को क्रियान्वित नहीं कर लेती।

मेरा मानना है कि हैरसमेंट भी कुछ उसी फेंके गए पत्थर के समान है, जो कि एक गहरा और लंबा प्रभाव छोड़ता है। ऐसा प्रभाव, जिसे माप पाना जटिल है और जिसे मापने का शायद प्रयास भी बहुत कम हुआ है मगर निश्चित तौर पर इससे एक युवती के जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव की कई परतें हैं। आपके लिए शायद यह बस हैरसमेंट की घटना या एक सुनके खराब लगने वाला विषय हो मगर एक किशोरी/युवती/महिला के मन पर यह एक ठेस है। 

ऐसी भारी विषय वस्तु जिसका प्रभाव अत्यंत गहरा है, हम उसे केवल हैरसमेंट कहकर दरकिनार कर देते हैं। इसके प्रभाव स्वरूप प्राथमिक तौर पर यह सब संभव है: 

  1. सेल्फ कान्फिडन्स गिरना 
  2. घर से बाहर निकलना बंद हो जाना 
  3. स्वतंत्रता छिन जाना 
  4. व्यक्तिगत विकास में बाधा आना 
  5. सेल्फ इमेज पर प्रभाव पड़ना 
  6. अत्यधिक घबराहट से पैनिक अटैक आना 
  7. गलत होने पर खुद को दोषी मानने की प्रक्रिया का आगाज़ होना (सेल्फ ब्लेमिंग)
  8. अपनी बात मन मे रखना
  9. गलत को नज़रअंदाज़ करना 
  10. भीड़ में जाने से डर लगना (अगोराफोबिया)

अगर हैरसमेंट को रोका ना जाए, तो शायद ये ग्रोपिंग, रेप, ऐसिड अटैक की घटनाएं, मर्डर तक का स्वरूप ले सकती हैं।  

क्या हैरसमेंट केवल महिलाओं के साथ संभव है? 

यह कहना गलत होगा कि केवल महिलाएं ही इसका शिकार हैं। मैं यहां हमारे सामाजिक ढांचे का एक पैटर्न देखती हूं। कमज़ोर का गला पकड़ने का पैटर्न। ऐसा कम होता है कि शोषण किसी ऐसे व्यक्ति के साथ हो जो कि शक्तिशाली और प्रभावशाली हैं, मैं यहां पुरुष, प्रभावी स्त्री (जिसके पास सत्ता हो) और नॉन-बाइनरी सभी लोगों की बात कर रही हूं। किसी से साथ ऐसा हो भी जाए तो इससे व्यक्तिगत तौर पर लड़ना और इसके खिलाफ आवाज़ उठाना भी संभव है।

परंतु जब बात करते हैं ऐसे जेन्डर वर्ग की, जो कमज़ोर माना गया है, सामाजिक तौर पर पिछड़ा है। उनका शोषण भी आसान है और आवाज़ दबाना भी। शायद इसीलिए युवतियां, किशोरियां, छोटी उम्र के लड़के, LGBTQI++ समुदाय के लोग, दलित वर्ग से आने वाले युवा व युवतियां इसका शिकार आसानी से बनते हैं।

सत्ता और अधिकार जमाने की भूख कुछ ऐसी होती है, जिसका कमज़ोर को निगले बिना पेट नहीं भरता। मैं हैरसमेंट को महज़ हैरसमेंट कहकर टाल देने के पक्ष में नहीं हूँ बल्कि इसे बहुत गहन मुद्दे की तरह देखती हूं। यदि मानसिक, मौखिक हिंसा, शोषण को उचित वक्त पर रोका जा सके तो शायद संगीन जुर्म होने से बचा जा सकता है।

स्त्री, अल्पसंख्यक या कमज़ोर वर्ग के साथ शोषण होने पर विक्टिम ब्लेमिंग, मॉरल पुलिसिंग छोड़कर ऐसा करने वाले बदमाशों और अपराधियों पर लगाम कसना ज़रूरी है। उनकी मानसिक गंदगी के कचरे को स्वाहा करने की ज़रूरत है। सभी कहते हैं प्रिवेंशन इज़ बेटर दैन क्यॉर! इसे वास्तव में अमल करना भी अति आवश्यक है।

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