मान्यवर कांशीराम ने भारतीय समाज के वंचित तबको, गरीबों, दलितों को जीने की एक मुकम्मल राह दिखाई है। उनमें आत्मविश्वास की ललक पैदा की है। कांशीराम का उद्देश्य सर्व जनहिताय, सर्व जनसुखाय रहा, किन्तु वह वंचित समुदाय को ‘बहुजन समाज’ नाम के पदबंध से संबोधित करते हैं।
कांशीराम और बहुजन समाज
वह कई बार अपने भाषणों में कहते हैं कि समाज में जनसंख्या के हिसाब से वंचित समाज की संख्या अधिक है, इसीलिए इसे बहुजन समाज कहना ज़्यादा समीचीन होगा। बहुजन समाज को वह भारतीय समाज का असली वारिस मानते हैं। कांशीराम उन लोगों में से थे जो अपना सुख आराम त्याग कर गरीबों की सेवा में अपना जीवन न्यौछावर कर देते हैं। उनके समकालीन तमाम ऐसे नेता थे जो ऐश-आराम करके ज़िदगी व्यतीत कर रहे थे किन्तु कांशीराम ने ज़िदगी भर अविवाहित रहकर, बिना किसी लाभ के पद पर रहते हुए उन्होंने बहुजन समाज पार्टी (BSP) और दलित समाज को संगठित व संचालित किया।
‘सोशल इंजीनियरिंग’ का उन्होंने जो सफल मंत्र दिया वह भारतीय इतिहास में अद्वितीय है। वंचित तबके की सेवा के लिए अपनी सरकारी नौकरी को भी छोड़ दिया, उनकी यही कर्तव्यनिष्ठता बहुजन समाज को सामाजिक व राजनीतिक रूप से एक नए मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया, उन्हें बहुजन समाज की राजनीति का पितामह कहा जाता है।
राजनीतिक व्यवस्था के प्रतिनिधित्व पर ज़ोर
कांशीराम सामाजिक चेतना की अपेक्षा राजनीतिक चेतना को अधिक तवज्जो देते थे, उनका मानना था कि ‘जिस समुदाय का राजनीतिक व्यवस्था में प्रतिनिधित्व नहीं है, वह समुदाय मर चुका है।’ ऐसा इसलिए कहते थे कि आप चाहे जितनी बड़ी नौकरी पा जाओ किसी ना किसी नेता के शरण में ही काम करना पड़ता है। सभी विभागों के कोई ना कोई मंत्री होता है, उन्ही के नीचे सबको काम करना होता है, इसलिए वे राजनीतिक चेतना को अधिक महत्वपूर्ण मानते थे और यही कारण है जब वह नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद महाराष्ट्र की प्रमुख राजनीतिक पार्टी आरपीआई से जुड़े तो उन्हें वहां पर भी राजनीतिक चेतना का अभाव दिखाई दिया।
‘कांशीराम : बहुजनों के नायक’ किताब में बद्रीनारायण लिखते हैं, ‘कांशीराम दलितों के लिए कुछ करना चाहते थे इसलिए वह दलित मूवमेंट को आगे बढ़ा रही आरपीआई से जुड़ गए । (आरपीआई के वर्तमान अध्यक्ष एनडीए सरकार के सहयोगी रामदास आठवले हैं ।)
एकता की बात तो करते हैं लेकिन एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते रहते हैं ।’ धीरे-धीरे वह उससे दूर होते गए।
बीएसपी की स्थापना
आगे चलकर 1984 में उन्होंने बीएसपी की स्थापना की । तब तक कांशीराम पूरी तरह से एक पूर्णकालिक राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता बन गए थे, उन्होंने तब कहा था कि ‘अंबेडकर किताबें इकट्ठा करते थे लेकिन मैं लोगों को इकट्ठा करता हूं ।’
उन्होंने तब मौजूदा पार्टियों में दलितों की जगह की पड़ताल की और बाद में अपनी अलग पार्टी खड़ा करने की ज़रूरत महसूस की, वो एक चिंतक भी थे और ज़मीनी कार्यकर्ता भी। बसपा की स्थापना के बाद वह पूरे देश में साइकिल यात्राएं की यह उनका सार्थक प्रयास था।
कांशीराम राजनीति के मूल मर्म को समझ गए थे। घूम-घूम कर वह वंचित समुदाय को राजनीतिक रूप से मज़बूत होने का आह्वान करते थे। कांशीराम के समय भी बहुत सारे लोग नौकरियों में थे। आरक्षण लागू होने के बाद भी आरक्षित सीट पर बहुत से दलित समुदाय के लोग चुनकर आते थे, लेकिन सब अपनी पेट पूजा में ही लगे रहते थे। आर्थिक रूप से मज़बूत होने के बाद भी सामाजिक और राजनीतिक रूप से कमज़ोर थे।
पे बैक टू सोसायटी के लिए अभिप्रेरणा
कांशीराम एक तरफ डॉ. अंबेडकर द्वारा दिखाये गए रास्ते ‘पे बैक टू सोसायटी’ के लिए लोगों को प्रेरित करते थे। इसी उद्येश्य से वह बीएसपी से पहले ‘बामसेफ’ व ‘डीएस4’ की स्थापना की थी, उनका यह मिशन सफल भी हुआ। कांशीराम ने इसीलिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व को महत्ता देते थे, जब वह समाज के बीच जाते थे तो वह कम शब्दों में अपनी प्रभावशाली बातों से लोगों को समझाते थे। वह वोट की कीमत को समझते थे । वह लोगों को समझाते थे कि चाहे कोई गरीब हो या अमीर अभी के वोट कि कीमत एकसमान होती है, इसलिए अपना वोट सोच-समझकर देना चाहिए। जब उन्होंने राजनीति में कदम रखा था, तब कुछ शुरुआती वर्षों में जैसे सन् 1983-84 नारों का साल रहा।
उनके कुछ नारे प्रसिद्ध हैं –
– वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा नहीं चलेगा ।
– जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी ।
– वोट से लेंगे CM/PM, आरक्षण से लेंगे SP/DM
धीरे-धीरे उनके नारों में तल्खी आने लगी, उन्होंने उन सभी चीज़ों का विरोध किया, जो उनकी राजनीतिक चेतना को प्राप्त करने के मार्ग में बाधक हो रहे थे। एक और नारा दिया ‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार ।’ यह नारा एक तरह से दलितों के लिए आह्वान था। ऊंची जाति के लोग हक्के-बक्के रह गए।
ऊंची जाति के लोग चले जाएं
बहनजी किताब में अजय बोस लिखते हैं, ‘एक बार कांशीराम मंच पर भाषण देने के लिए खड़े हुए, उन्होंने पहली लाइन में कहा, अगर श्रोताओं में ऊंची जाति के लोग हों तो अपने बचाव के लिए वे वहां से चले जाएं। इसके बाद कांशीराम के समर्थन में ज़ोरदार नारेबाजी हुई। उनकी रैलियों से ऊंची जाति के लोग गायब होते चले गए।
ब्राह्मण समुदाय कांशीराम से नाराज भी हुआ किन्तु धीरे-धीरे सामाजिक बुनावट समझ आने पर सब ठीक होता गया । अपने राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष के दौरान कांशीराम ने, उनके मुताबिक़ ब्राह्मणवाद से प्रभावित या उससे जुड़ी हर चीज़ का बेहद तीखे शब्दों में विरोध किया, फिर चाहे वो महात्मा गांधी हों, राजनीतिक दल, मीडिया या फिर ख़ुद दलित समाज के वे लोग जिन्हें कांशीराम ‘चमचा’ कहते थे।
कोई कार्यकर्ता चमचा नहीं होता
उनके मुताबिक ये ‘चमचे’ वे दलित नेता थे जो दलितों के ‘स्वतंत्रता संघर्ष’ में दलित संगठनों का साथ देने के बजाय पहले कांग्रेस और बाद में भाजपा जैसे बड़े राजनीतिक दलों में मौक़े तलाशते रहे । कांशीराम चमचों से बचाने की सलाह दिया करते थे। ये चमचे जिस थाली में खाते थे उसी में छेद करते थे, किन्तु उनकी नज़र में हर विरोध करने वाला व्यक्ति चमचा नहीं था। वह स्पष्ट कहते थे कि कार्यकर्ताओं को चमचा समझने की भूल तो नहीं ही करनी चाहिए ।
कुछ (नेता) लोग कार्यकर्ताओं को चमचे समझने की भूल कर सकते हैं, यह भयंकर भूल होगी। कार्यकर्ता और चमचा धुर विरोधी होते हैं। कार्यकर्ता अत्यंत लाभकारी होता है, जबकि चमचा गुलाम होता है जो लोग आज्ञाकारी और गुलाम में भेद नहीं कर सकते, वे कार्यकर्ता को भी चमचा समझने की भूल कर सकते हैं।
चमचे का इस्तेमाल उसकी अपनी ही जाति के खिलाफ किया जाता है जबकि कार्यकर्ता का इस्तेमाल उसकी जाति की भलाई के लिए होता है और चमचे का इस्तेमाल उसकी अपनी ही जाति के सच्चे और खाली नेता को कमज़ोर करने के लिए होता है। जब कार्यकर्ता का इस्तेमाल उसकी जाति और की सच्ची और खरे नेता की मदद के लिए उसके हाथ मज़बूत करने के लिए होता है और कार्यकर्ता में अंतर करने के लिए और भी कई तथ्य दिए जा सकते हैं । किंतु यहां हमारी दिलचस्पी केवल इस बात पर जोर देने में है कि एक कार्यकर्ता को समझ चमचा समझने की भूल तो नहीं है।
सामाजिक न्याय की बात
कांशीराम सिर्फ सत्ता पाने तक समाज या पार्टी को सीमित नहीं रखना नहीं चाहते थे। वह राजनीतिक सत्ता पाने के बाद सामाजिक परिवर्तन को भी उसी रूप में देखना चाहते थे। इन सभी संदर्भों को उनके विचारों के आलोक में देखें तो उनकी दूरदृष्टिता स्पष्ट दिखाई देती है । उनके प्रमुख विचार निम्नवत हैं –
• हम सामाजिक न्याय नहीं चाहते हैं, हम सामाजिक परिवर्तन चाहते हैं । सामाजिक न्याय सत्ता में मौजूद व्यक्ति पर निर्भर करता है । मान लीजिए, एक समय में, कोई अच्छा नेता सत्ता में आता है और लोग सामाजिक न्याय प्राप्त करते हैं और खुश होते हैं लेकिन जब एक बुरा नेता सत्ता में आता है तो वह फिर से अन्याय में बदल जाता है, इसलिए, हम संपूर्ण सामाजिक परिवर्तन चाहते हैं।
• जब तक हम राजनीति में सफल नहीं होंगे और हमारे हाथों में शक्ति नहीं होगी, तब तक सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन संभव नहीं है । राजनीतिक शक्ति सफलता की कुंजी है।
• सत्ता पाने के लिए जन आंदोलन की ज़रूरत होती है, उस जन आंदोलन को वोटों में परिवर्तित करना, फिर वोटों को सीटों में बदलना, सीटों को सत्ता में परिवर्तित करना और अंतिम रूप से (सत्ता में) केंद्र में परिवर्तित करना, यह हमारे लिए मिशन और लक्ष्य है।
• ऊंची जातियां हमसे पूछती हैं कि हम उन्हें पार्टी में शामिल क्यों नहीं करते, लेकिन मैं उनसे कहता हूं कि आप अन्य सभी दलों का नेतृत्व कर रहे हैं। यदि आप हमारी पार्टी में शामिल होंगे तो आप बदलाव को रोकेंगे। मुझे पार्टी में ऊंची जातियों को लेकर डर लगता है। वे यथास्थिति बनाए रखने की कोशिश करते हैं और हमेशा नेतृत्व संभालने की कोशिश करते हैं । यह सिस्टम को बदलने की प्रक्रिया को रोक देगा ।
• जब तक, जाति है, मैं अपने समुदाय के लाभ के लिए इसका उपयोग करूंगा । यदि आपको कोई समस्या है, तो जाति व्यवस्था को समाप्त करें।
ब्राह्मणवाद से सामाजिक परिवर्तन तक
जहां ब्राह्मणवाद एक सफलता है, कोई अन्य ‘वाद’ सफल नहीं हो सकता है, हमें मौलिक, संरचनात्मक, सामाजिक परिवर्तनों की आवश्यकता है । बहुत लंबे समय से हम सिस्टम के दरवाजे खटखटा रहे हैं, न्याय मांग रहे हैं और न्याय नहीं पा रहे हैं, इन हथकड़ियों को तोड़ने का समय आ गया है।
उन्होंने कहा, हम तब तक नहीं रुकेंगे जब तक हम व्यवस्था के पीड़ितों को एकजुट नहीं करेंगे और हमारे देश में असमानता की भावना को खत्म नहीं करेंगे। मैं, गांधी को शंकराचार्य और मनु (मनु स्मृति के) की श्रेणी में रखता हूं जो उन्होंने बड़ी चतुराई से 52% ओबीसी को किनारे रखने में कामयाब रहे।
अपने जीवनकाल में उन्होंने बसपा को काफी सशक्त किया। जब बसपा ने चुनाव लड़ना शुरू कर दिया तो उन्होंने ‘एक नोट, एक वोट’ नारा देकर नोट और वोट खींचे। धीरे-धीरे उनकी लोकप्रियता बढ़ी और समर्थक उन्हें सिक्कों में तौलने लगे। इस पैसे का इस्तेमाल उन्होंने चुनाव लड़ने के लिए किया । उन्होंने खुद तो कभी राजनीति नहीं की लेकिन उन्होंने हज़ारों लोगों को राजनीति में आने का मौका दिया।
एक बिन्दु और ध्यान देने लायक है कि उनके परिवार में कोई भी सदस्य राजनीति में नहीं थे, ना हीं उन्हें राजनीति विरासत में मिली थी, किन्तु अपनी मेहनत, चतुराई और कूट बुद्धि कि वजह से वह राजनीति के बड़े चेहरे बन गए। उनकी नीतियों को कई लोग बेहद महान मानते हैं। बाबा भीमराव अंबेडकर के बाद उन्होंने ही देश के दलितों को सही मायनों में एक करने का सपना सच कर दिखाया। सोशल इंजीनियरिंग का उन्होंने जो फंडा दिया उसका इस्तेमाल करके ही बीएसपी ने पिछले कई सालों तक यूपी में राज किया।
उनकी कार्यशैली की वजह से ही एक समय बीएसपी और सपा में गठबंधन हो पाया था लेकिन राजनीतिक षडयंत्र की वजह से यह गठबंधन नहीं चल पाया। इसी चेतना ने दलित समुदाय हेतु समाज में नवीन प्रतीकों को भी स्थापित किया है, आज यह नवीन चेतना दलितों में सामुदायिक भावना, आत्मविश्वास तथा पहचान की शक्ति का संचार करने में सफल हुई है।
सामाजिक आंदोलनों व दलित समुदाय में बढ़ती राजनीतिक चेतना तथा व्यापक जनाधार के कारण आज बसपा भारतीय राजनीति का केन्द्र बन चुकी हैं । बसपा व दलित आंदोलन को इस स्तर तक पहुंचाने में कांशीराम एवं मायावती के कार्यों को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि उन्होंने डा. अम्बेडकर के वैचारिक आंदोलन को जमीन पर क्रियान्वित करने का काम किया।
अब कभी नहीं लौटूंगा
कांशीराम का समग्र मूल्यांकन सिर्फ इतने से भी किया जा सकता है कि उन्होंने केवल एक व्यक्ति के लिए कुछ नहीं किया। घर त्यागने से पहले परिवार के लिए वे एक चिट्ठी छोड़ गए थे, इसमें उन्होंने लिखा था, ‘अब कभी वापस नहीं लौटूंगा’ और वो सच में नहीं लौटे। ना घर बसाया और ना ही कोई संपत्ति बनाई, परिवार के सदस्यों की मृत्यु पर भी वो घर नहीं गए। परिवार के लोग कभी लेने आए तो उन्होंने जाने से इनकार कर दिया। अपनी शपथ पर वह जीवन भर अडिग रहे ।
कांशीराम आजादी के बाद भारतीय दलितों की सबसे बड़ी आवाज़ बनकर उभरे, उनके ना रहने के बाद से ही असमानता मिटाने वाले आंदोलन में कमी सी आई है। कांशीराम का बहुजन आंदोलन बनाम क्रांति- प्रतिक्रांति का दौर भारतीय राजनीति में विशेषतया उत्तर प्रदेश के सामाजिक तथा राजनैतिक परिदृश्य में 1990 का दशक सामाजिक न्याय और सामाजिक परिवर्तन का दशक माना जाएगा, क्योंकि इसी दशक में मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू हुई और दलित-पिछड़ी जातियों को शासन-प्रशासन में भागीदारी हासिल हुई । इसी दशक में दलित राष्ट्रपति का मुद्दा भारतीय राजनीति में गर्म हुआ और इसी दशक में दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का राजनीतिक ध्रुवीकरण अस्तित्व में आया ।
कांशीराम के केंद्र में हमेशा दलित समस्या रही । उनका मानना था कि अति-पिछड़ा वर्ग, गरीब मुसलमान और अन्य गरीब समुदायों को किस तरह से एक मंच पर लाया जाये यही कांशीराम का बहुजनवाद था और इसी की राजनीति कांशीराम कर रहे थे । इस काम में कांशीराम कामयाब भी रहे और अपनी बहुजनवाद की राजनीति के माध्यम से उत्तर प्रदेश की राजनीति को केंद्र में रखते हुये दो बड़े राजनीतिक दलों कांग्रेस और भाजपा को दो दशक से अधिक समय तक यानि 1993 से लेकर 2017 तक हाशिये पर धकेल दिया और इन दो दशकों की राजनीति की धुरी किसी ना किसी प्रकार से बने रहे।
कभी बसपा-भाजपा की गठबंधन सरकार के रूप में कभी पूर्ण बहुमत की सरकार के रूप में यह सब उनकी अपनी मर्जी के हिसाब से और उनकी शर्तों के आधार पर था।