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उत्तराखंड की लड़कियों के पास अपना कोई खेल मैदान ही नहीं

खेलती लड़कियां

हरियाणा में जारी खेलो इंडिया यूथ गेम्स में युवा खिलाडियों का शानदार प्रदर्शन जारी है। सुखद बात ये है कि इसमें लड़कों के साथ-साथ लड़कियां भी विभिन्न प्रतिस्पर्धाओं में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दिखा रही हैं और अपने अपने राज्यों के लिए पदकों की झाड़ियां लगा रही हैं।

खेलों इंडिया में प्रदर्शन

खेलो इंडिया के माध्यम से केंद्र सरकार का युवाओं को अपने खेल प्रदर्शन के लिए मंच उपलब्ध करवाना एक सराहनीय प्रयास है, इससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेने के लिए भारत के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी उभर कर सामने आएंगे।

वास्तव में पढ़ाई के साथ साथ खेल भी जीवन का अमूल्य हिस्सा है, जिससे बच्चों का शारीरिक और मानसिक दोनों रूपों से विकास होता है। यही कारण है कि केंद्र सरकार जगह जगह अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस स्पोर्ट्स सेंटर बना रही है ताकि खेलों में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने वाले बच्चे और युवाओं को अभ्यास की सभी सुविधा उपलब्ध हो सकें।

ग्रामीण क्षेत्र के खिलाड़ी मार रहे बाज़ी

प्रतिभाएं शहरों की अपेक्षाकृत गाँवों से अधिक उभरती हैं. गाँवों की मिट्टी से ही निकलकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खिलाड़ी देश का सम्मान बढ़ाते हैं, क्योंकि शहरों की अपेक्षा गाँवों में खेल के मैदान आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। यही कारण है कि ग्रामीण क्षेत्रों के लड़के और लड़कियां खेलों में बाज़ी मार लेते हैं, लेकिन उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों के कुछ ग्रामीण क्षेत्र ऐसे भी हैं, जहां खेल के मैदान की कमी है, जिसके कारण युवाओं विशेषकर लड़कियों को खेलने और उसमें अपना करियर बनाने में काफी दिक्कतें आती हैं।

गाँव में पर्याप्त खेल के मैदान नहीं होने के कारण वह अपना हुनर नहीं दिखा पाती हैं, क्योंकि उन्हें ना तो अवसर मिलता है और ना ही वह माहौल मिला करता है, जिसके सहारे वह अपने अंदर छुपी प्रतिभा को निखार सकें, मैदान के अभाव में उनकी प्रतिभा और करियर का दम घुट जाता है

पहाड़ी क्षत्रों में मैदान की कमी

उत्तराखंड के बागेश्वर ज़िला से 25 किमी दूर कपकोट ब्लॉक का गांव धूरकुट, सरयू नदी के तट पर बसा है। इस गाँव की आबादी तकरीबन 5 हज़ार है, लेकिन पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण गाँव में मैदान की कमी है, जिसके कारण वहां के बच्चों को खेलने और युवाओं को अभ्यास करने में बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता है, इसकी कमी के कारण उन्हें खेल प्रतियोगिताओं में मात खानी पड़ती है।

गाँव के खिलाड़ी संसाधनों की कमी के कारण अपने को ठगा महसूस करते हैं, मैदान की कमी का सबसे अधिक नुकसान लड़कियों को होता है, जो ना केवल अपने रुचिकर खेल से वंचित हो जाती हैं, बल्कि इसकी वजह से उनका शारीरिक विकास भी रुक जाता है फुटबॉल हो या वॉलीबॉल, हॉकी हो या क्रिकेट, उन्हें अभ्यास करने के लिए न तो सुविधा मिल पाती है और ना ही मैदान मिल पाता है

प्रतिभाएं निखरने से वंचित

इस संबंध में गाँव की किशोरियों ममता और पूजा का कहना है कि खेल के माध्यम से वह स्वयं को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ पाती हैं, लेकिन इसके लिए मैदान का होना बहुत ज़रूरी है। उनका कहना है कि गाँव में लड़कियों के लिए भी खेल के मैदान होने चाहिए, लेकिन स्थानीय समाज इस मुद्दे को ज़्यादा गंभीरता से नहीं लेता है।

यहां लड़कियों के खेलों पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिए जाता है, जिससे वह अपने अंदर की प्रतिभा को निखारने से वंचित रह जाती हैं, उन्होंने कहा कि गाँव की ऐसी कई लड़कियां हैं, जिन्हें यदि मैदान की समुचित व्यवस्था मिले तो वह भी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खेलों में उत्तराखंड का नाम रौशन कर सकती हैं, उन्होंने बताया कि गाँव में स्कूल का मैदान तो है, लेकिन स्कूल बंद हो जाने के बाद वह लोग वहां भी नहीं जा पाती हैं

खतरे और अनहोनी का डर

गाँव की आशा वर्कर दीपा देवी का कहना है कि लड़कियों के लिए खेल का मैदान नहीं होने के कारण उनका शारीरिक विकास रुक जाता है, जिसका सीधा असर उनकी स्वास्थ्य पर पड़ता है, उन्होंने बताया कि गाँव से करीब तीन किमी दूर मैदान उपलब्ध है, जहां लड़के आसानी से खेलने चले जाते हैं, लेकिन लड़कियों के लिए प्रतिदिन वहां जाना आसान नहीं है।

 कई बार जो किशोरी खेलने जाती भी है तो वह देरी से घर लौट पाती हैं, जिससे उन्हें रास्ते में हिंसक जानवर मिलने या किसी अनहोनी का डर सताता रहता है। यही कारण है कि शायद ही कोई लड़की इतनी दूर खेलने या अभ्यास करने का हिम्मत जुटा पाती हैं।

यदि गांव में ही खेल का मैदान होगा तो लड़कियों को भी खेलने का भरपूर मौका मिलेगा, जिससे खेल में उनका भविष्य भी बन सकता है। वहीं, गाँव की एक महिला भावना आर्य का मानना है कि गाँव के बच्चों में खेल के क्षेत्र में आगे बढ़ने की अच्छी काबिलियत है, लेकिन उन्हें प्रैक्टिस के लिए मैदान उपलब्ध नहीं है

खेल मैदान लड़कियों की भी ज़रूरत

इसी संबंध में गाँव की प्रधान सीता देवी भी स्वीकार करती हैं कि गाँव में खेल के मैदान का ना होना बहुत बड़ी कमी है, इसका सबसे नकारात्मक प्रभाव लड़कियों पर पड़ता है, जिनका ना केवल शारीरिक प्रभाव रुक जाता है बल्कि उनकी प्रतिभा भी दब कर रह जाती हैं, उन्होंने कहा कि बहुत बार कोशिश करने के बाद भी हमारा यह प्रयास सफल नहीं हो पाया है, लेकिन हम फिर भी कोशिश करेंगे कि हमारे गाँव में खेल के लिए एक मैदान ज़रुर हो, जहां लड़कियां भी खेल सकें।

इसी मुद्दे पर सामाजिक कार्यकर्ता नीलम ग्रैन्डी का कहना है कि आज हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत सी ऐसी किशोरियां हैं, जो खेल की दुनिया में अपना आगे बढ़ रही हैं और अपनी पहचान बना रही हैं। ऐसे में धूरकुट गाँव में खेल का मैदान नहीं होने की कमी किशोरियों को बहुत ही कष्ट दे रही है जिसकी वजह से वह शारीरिक और मानसिक रूप से पीछे रह जाती हैं

प्रत्येक वर्ष अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी ना किसी रूप में होने वाली प्रतियोगिताएं इसका उदाहरण हैं कि आज भी खेलों को महत्त्व दिया जाता है, ऐसे में केंद्र सरकार का खेलो इंडिया कार्यक्रम और इसके अंतर्गत होने वाली प्रतियोगिताएं ग्रामीण स्तर के खिलाड़ियों को आगे बढ़ने का सुनहरा अवसर प्रदान कर रही हैं, लेकिन उत्तराखंड के इस सुदूर गाँव धूरकुट के कई प्रतिभावान युवा खिलाड़ी इस सुनहरे अवसर से केवल इसलिए वंचित हो रहे हैं कि उनके पास अभ्यास के लिए मैदान नहीं है, जो उनके साथ अन्याय है

यह आलेख धूरकुट गांव कपकोट, उत्तराखंड से गरिमा उपाध्याय ने चरखा फीचर के लिए लिखा है

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