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दिल्ली क्राइम सीज़न 2: सम्पन्न वर्ग और दलितों के बीच की खाई को बयां करती फिल्म

दिल्ली क्राइम सीज़न 2 रिव्यू

दिल्ली क्राइम सीज़न 2 रिव्यू पढ़िए हिन्दी में

देश की राजधानी दिल्ली में होते अपराधों को एक अलग तरीके से दिखाने की कोशिश है नेटफ्लिक्स की सीरीज़ दिल्ली क्राइम का दूसरा सीज़न। सीरीज़ केवल दिल्ली के अपराधों को ही अपनी कहानी में दर्ज़ नहीं करती है, बल्कि दिल्ली पुलिस के अफसरों के जीवन में भी झांकती है और उनके हालातों-तनावों को भी टटोलती है।

साथ ही यह भी बताती है कि किन हालातों में दिल्ली पुलिस को काम करना पड़ता है। आसान शब्दों में कहूं तो क्राइम और सस्पेक्ट के बीच पुलिस वालों के रिश्तों की डोर को एक माला में गूथने का प्रयास है दिल्ली क्राइम सीज़न 2।

क्या है दिल्ली क्राइम सीज़न 2?

दिल्ली क्राइम के पहले सीज़न में निर्भया रेप केस के आरोपियों को सलाखों के पीछे भेजने की कहानी थी। इस बार पूरी दिल्ली में संपन्न वरिष्ठ नागरिकों की जघन्य हत्या के अपराधियों को पकड़ने की कहानी है। बेशक हत्या का कोई भी दृश्य सुंदर नहीं है। कैमरा अपराध के तमाम कुरूपता को दर्ज़ करने में बेईमानी नहीं करता है।

कहानी है तीन आदमी और एक औरत के नजायज़ चाहतों की, जो जल्दी से अमीर बनने के लिए मालदार बुज़ुर्ग दंपतियों को निशाना बनाकर लूटती हैं और बेरहमी से हत्या भी करते है। कहानी शक के बुनियाद बनने में पूर्वाग्रही सोच की भूमिका, उससे परेशान होने वाले लोगों की समस्या, उनके मानवाधिकार की स्थिति और युवा पीढ़ी नुक्कड़ नाटकों का प्रतिरोध सब कुछ बयां करती है।

कहानी पुलिस के सर पर लटकती तलवार, पुलिस कमिश्नर और सियासी नेता की हड़बड़ी को भी दर्ज़ करती है। मुख्य किरदार वर्तिका चतुर्वेदी (शेफाली शाह) के अनुसार दिल्ली पुलिस रस्सी पर झुलती हुई लड़की के समान है, जो हवा में बंधी रस्सी पर संतुलन बनाने की कोशिश करती है।

वर्तिका चतुर्वेदी और उनके अंडर काम करने वाले पुलिस अफसर इसमें कैसे कामयाब होते हैं? उनकी गलतियों का खामियाज़ा कैसे एक पूरे समुदाय को भुगतना पड़ता है? तमाम तरह के दबाव में वर्तिका चतुर्वेदी की टीम किन पारिवारिक तनाव से गुज़रते हुए जघन्य हत्या के अपराधी तक पहुंचती है और अंत में पता चलता है कि हमारा उपभोक्त्तावादी समाज की चमक-दमक कैसे अपराध को पैदा होने दे रहा है। इन सब सवालों के जवाब दिल्ली क्राइम सीज़न 2 देखकर ही मिल सकता है।

कैसी बनी है दिल्ली क्राइम सीज़न 2?

दिल्ली क्राइम सीज़न 1 की सफलता के बाद दूसरे सीज़न से लोगों को बहुत सी उम्मीद हो सकती है। बेशक जघन्य हत्याओं का कोई दृश्य सुंदर नहीं होता है। डार्क स्पेस में इस कुरुपता को कैमरे में कैद करने की कोशिश उम्दा है। दमित और वंचित समुदाय के लोग जिनमें कईयों को अंग्रेज़ों के समय अपराधी होने का तमगा दिया गया था, वे आज भी अपराधी ही मान लिए जाते हैं और पुलिस उन्हें किसी भी अपराध के शक पर बड़ी आसानी से उठाकर अपना दमन चालू कर देती है। इस हकीकत को वास्तविक तरीके से उतारने की कोशिश की गई है। कुछ हद तक पुलिस के अमानवीय चेहरे को दर्ज़ करने की कोशिश है।

निर्माता रिची मेहता और निर्देशक तनुज चोपड़ा ने इस बार की कहानी में दिल्ली की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पहलुओं को ध्यान में रखा है। इस बात का ध्यान रखा है कि सबूत के पीछे भागती हुई पुलिस से जो गलतियां होती हैं, उसका खमियाज़ा एक पूरे समाज को भुगतना पड़ता है।

सीज़न के हर एपिसोड में शेफाली का अभिनय बेजोड़ है। अपने अंडर काम करने वाली एसपी से हुई चूक के बाद गुस्सा, अपने कलीग को गोली लगने के बाद गुस्से के उबाल को नियंत्रित करते हुए हर मातहत अफसरों को संवेदनशील होने का प्रयास करने का अभिनय कमाल का है। इसके अलावा राशिका दुग्गल, राजेश तैलंग, आदिल हुसैन और गोपाल दत्त ने भी अहम भूमिका निभाई है। सबों का अभिनय बिल्कुल संतुलित है। ना ही किरदार से बाहर जाने का प्रयास है और ना ही किरदार के चरित्र के साथ कोई बेईमानी।

दिल्ली क्राइम सीज़न 2 के महिला पात्र

इस सीज़न में गिनती के 4 महिला पात्र हैं- शेफाली शाह, रसीका दुर्गल, महत्वकांक्षी अपराधी महिला और अपराध में सहयोग किरदार गुड्डू की दादी। पुलिस की ज़िम्मेदारी को ईमानदारी से निभाने का प्रयास करती हुई शेफाली शाह, उनका चरित्र आत्मनिर्भर और अपने निर्णय स्वयं लेने वाली महिलाओं का जो महिला सशक्तिकरण के परिभाषा को सही मायने देता है।

घर की घरेलू ज़िम्मेदारी, पति की उम्मीदें और अपने काम के तनावों में उलझी रसीका दुर्गल का चरित्र उन महिलाओं का प्रतिनिधित्व करता है, जो आत्मनिर्भर तो है मगर स्वयं अपने निर्णय लेने में सक्षम नहीं हो सकी है। महिला सशक्तिकरण की परिभाषा में घुटता हुआ चरित्र। महत्वकांक्षी अपराधी महिला जो खुद को पागल, बेकार और नकारा कहे जाने पर दुत्कार हुआ समझने लगती है। उसे लगता है उसकी महत्वकांक्षा की अंधी दौड़ में सब कुछ जायज़ है, क्रूर हत्याएं भी!

यह चरित्र अपने उत्पीड़न से इतना घुटा हुआ है कि अपनी महत्वकांक्षा के उड़ान को मुक्ति का मार्ग मानता है और सही-गलत में के बीच कोई रेखा नहीं खींचता है। अंत में गुड्डू की दादी जो मुंहफट है, जीवन के सारे वसंत देखने के बाद भी अपने पोते के अपराध को नहीं पहचान नहीं पाती या पहचानकर अनजान है, क्योंकि बाकी बचे जीवन में अपराध करता हुआ पोता ही एकमात्र सहारा है।

ध्यान से देखने का प्रयास करें तो एक महिला के पूरे जीवन का रोजनामचा है, जिसमें महत्वकांक्षा भी है, जीवन की घरेलू ज़िम्मेदारियों का पहाड़ भी है, ईमानदार जीवन की चाह भी है और सबकुछ जानकार अंजान बने रहने की विवशता भी है, क्योंकि उसके स्वयं का जीवन दूसरे के भरोसे है।

निर्माता रिची मेहता और निर्देशक तनुज चोपड़ा ने इस पक्ष को अधिक उभारने का प्रयास नहीं किया है। यह पक्ष कहानी के साथ-साथ चलता हुआ ज़रूर लगता है। कुल जमा वन टाइम वांच बेव सीरीज़ की लिस्ट में दिल्ली क्राइम सीज़न 2 को रखा जा सकता है।

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