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“मुझे लगता है जब कोई थककर लिखने बैठता है, तब ऐसी कहानियां बनती हैं”

राँझना मूवी

हाल ही में फिर से राँझना फिल्म देखी और एक बार फिर लगा की हर छोटा कस्बा, गाँव, देहात, शहर हज़ारों-लाखों कुंदन की कौम से भरे हुए हैं। कुंदन एक हारा हुआ आदमी और जीता हुआ आशिक है । बनारस वैसे ही आशिकों का एक शहर है।  

बनारस की हवा में स्मोग नही इश्क

कुंदन तस्वीर में दिखने वाला अठ्ठाइस इंच की कमर वाला कोई एक साधारण आशिक नहीं है। वह साधारण इसलिये भी नही है क्योंकि उसका दोस्त मुरारी है जिसे प्यार से पंडित कहतें हैं।

जनम से शादी के बीच मे एक संस्कार और होता है “बड़ा वाला कटवाने का संस्कार ” इस संस्कार को भी यूपी-बिहार में ऐसे ही ‘पण्डित’ नाम के लौंडे ही सम्पन्न कराते हैं ।

गंगा मैया की कृपा से लड़के के प्यार के बीच में मीडियम तो नही ही आया, दोनों ही हिंदी मीडियम से थे। लड़का जनेऊधारी ब्राह्मण होने और लड़की हैदर मुसलमान होने के बावजूद दोनों प्रेम के वशीभूत होकर अस्सी घाट पर एक दूसरे के आघोष में खो जाते हैं।

बनारस और दिल्ली की चाहतें

ये फिल्म यूं तो कई बार देखी है लेकिन शायद बहुत वक्त बाद देखने पर सब कुछ नया सा लग रहा था और अच्छा भी। जैसे फिल्म में सब कुछ अच्छा अच्छा चल रहा था, दोनों एक दूसरे के लिए अपने अपने दिल का कहा मानने के लिए तैयार भी थे कि तभी समाज के चार आदमी इस लव स्टोरी के बीच में भी आ जाते हैं, जैसा कि भारत की हर लव स्टोरी में होता है।

कहते हैं हमारे देश में आधी प्रेम कहानियां जात न मिलने के कारण ख़त्म हो जाती हैं तो आधी कमरा न मिलने के कारण इसलिए एकाध बचे हुए कपल को इटली में जाकर ही अपने हाथ पीले करने पड़ते हैं।


जोया जेएनयू आ जाती है उसे अब लाल सलाम वाले से मोहब्बत हो जाती है, कुंदन उसे अब बेवकूफ सा लगने लगता है। कुंदन लड़की के चक्कर में खूब दौड़-धूप करता है, इश्क में जमकर मजदूरी करता है उसके इश्क में कोई इतवार भी नही है। ज़ोया की ललक उसे जेएनयू ले आती है बनारस के बचे हुए प्यार और आधी पप्पी का स्थान नई दिल्ली की पॉलिटिक्स ले लेती है। 

दिल्ली  ने कुंदन के दिल को भी दिल से नही लिया।

एक तरफ दिल्ली भावनाओं को जमा कर फैंकने के लिए एक स्थायी कूड़ा घर है तो दूसरी तरफ बनारस मोहब्बत का एक पूरा साहित्य।  

कल एक बार फिर लगा फिल्म और ज़िंदगी दोनों भ्रम से ही चलती हैं इसीलिए फिल्म बनाई जाती हैं, ताकि भ्रम बना रहे और दुनिया ज़िंदा रहे।

मुझे लगता है कुंदन हम सब में है

कुंदन को किसी कलम, कीबोर्ड से लिखा-समझाया नहीं जा सकता। कुंदन किसी फिल्म  का नायक नही, ज़ोया किसी साहित्य की नायिका नही है। दिल्ली की लाईब्रेरियों, ऑफिसों, कैंटीनों में घुटा हुआ हर आदमी रात के आठ बजे कुंदन बन जाता है, उसके दस बाई दस के उदास कमरे में जब वह निपट अकेला बैठा होता है, तब उसका एकाकीपन उसे घेरने लगता है, नोचने लगता है, तब वह आदमी अपनों से बाते करना चाहता है, फेसबुक और व्हाट्सएप्प की चैटबुक को ऊपर नीचे कर किसी अपने को ढूढ़ने लगता है, जिससे वह बातें कर सके और उसे अपना कह सके।

उसका फोन उसे थका देता है कोई अपना सा नही लगता। थककर जब आदमी लिखनें बैठता है, तब वह अपने गाँव-शहर की कहानी को पन्ने पर उतार देता है और मुझे लगता है ऐसे पन्नों से मिलकर ही कहानियां बनती है जिसे लोग “रांझना” कह देते हैं।

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