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इंसानियत की हालत खस्ता है

कविता

नहीं चाहिए कोई मंजिल जिसका में पथकार नहीं

नहीं चाहिए वो दौलत जिसका मुझे अधिकार नहीं।

खुश हूँ मैं अपने जीवन में जिसकी डोर है मेरे हाथ

चलती रहेगी ये मेरी ज़िंदगी जबतक है मेरी सांस।

जब रूठेंगी साँसे तो कुछ ना बचेगा कहने को

चाहिए होंगी अंतिम दो साँसे उस दौलत को रहने दो

बचा लिया जो तुमने खुद को इस राक्षसी संसार से

मैं हूँ इंसान कह सकूँगा अधिकार से

यदि मज़ा आता है तुमको दूसरे के चीत्कार से

अगर तुम्हारा दिल भी हँसता है किसी की चीख पुकार से

अगर तुम्हारा सुकून भी लोगों के दुख में बसता है

तो समझ लीजिए धरती पर इंसानियत की हालत खस्ता है।

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