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जोशीमठ ने हमें पर्यटन आधारित विकास की असलियत दिखा दी है

उत्तराखंड के जोशीमठ में जो कुछ हो रहा है, उसे प्राकृतिक नहीं, बल्कि मानव निर्मित आपदा कहा जा रहा है। आर्थिक दृष्टिकोण से पर्यटन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से जिस तरह से बिना किसी ठोस योजना के निर्माण कार्य किया गया, यह उसी का दुष्परिणाम है। हालांकि किसी भी क्षेत्र के विकास से सबसे अधिक लाभ स्थानीय नागरिकों को ही मिलता है। एक और जहां इलाके का विकास होता है वहीं दूसरी ओर लोगों को रोजगार और आजीविका के अवसर भी मिलते हैं। लेकिन उत्तराखंड के ही कुछ ज़िले और क्षेत्र ऐसे हैं जहां पर्यटन के असीमित अवसर उपलब्ध होने के बावजूद स्थानीय नागरिक उसका भरपूर लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। हालांकि वह नवीन पर्यटन आयामों के माध्यम से इसे अपनी आजीविका का साधन बना सकते हैं, लेकिन जागरूकता के अभाव में वह इस अवसर से वंचित रह जा रहे हैं।

इसमें कोई शक नहीं है कि उत्तराखंड की प्राकृतिक सुंदरता दुनिया भर के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है। जिससे राज्य में पर्यटन उद्योग को बढ़ावा मिलता है। राज्य के 85 प्रतिशत भाग पहाड़ी पहाड़ी क्षेत्रों को कवर करते हैं। इसके कारण यहां पर्यटन को अनेकों चुनौतियों का सामना भी करना पड़ता है, जिससे स्थानीय समुदाय व उनकी आजीविका प्रभावित होती है। इनमें सबसे प्रमुख अप्रत्यक्ष मौसम की मार है। राज्य ने पिछले कई वर्षो में त्रासदी के प्रकोप को झेला है, जिसमें 2013 की केदारनाथ त्रासदी को भूल पाना संभव नहीं है। जिसमें लाखों रुपयों के नुकसान के साथ साथ लोगों की जाने भी गई थी। इसके अतिरिक्त कभी सूखा, कभी अत्यधिक वर्षा तो कभी समय से पहले बर्फबारी पर्यटन को काफी हद तक प्रभावित कर रहा है।

राज्य की भौगोलिक स्थिती किसी चुनौती से कम नहीं है। अधिकांश पर्यटक स्थल पहाड़ी क्षेत्रों में है जहां सड़कों के माध्यम से पहुंचना बहुत खतरनाक भी है। अक्सर पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्खलन, सड़कों का टूटना व उन्नत सड़कों का अभाव आम है। समाजसेवी अनिल कुमार बताते हैं कि चौरलेख, पहाड़पानी, धारी नैनीताल की रोड़ विगत एक वर्ष से क्षतिग्रस्त है और कभी भी किसी बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकती है। यह प्रमुख रोड है जो न केवल कई गांवों को आपस में जोड़ती है बल्कि इस क्षेत्र के पर्यटन का प्रमुख मार्ग भी है। वर्तमान में यदि यह पूर्ण रूप से क्षतिग्रस्त हो जाती है तो कई गांवों की दैनिक आपूर्ति ठप होने के साथ साथ पर्यटन उद्योग को भी प्रभावित करेगा। केवल प्रशासनिक उदासीनता ही यहां चुनौती नहीं है बल्कि जागरूकता की कमी के कारण स्थानीय नागरिकों का अपने संसाधनों के उचित उपयोग नहीं कर पाने की भी समस्या है।

पर्वतीय समुदाय का पर्यटन के प्रति कम शिक्षित होना एक समस्या के रूप में आंका जा सकता है। हालांकि आज की युवा पीढ़ी बदलते तकनीक और विचारों का प्रयोग कर पर्यटन को काफी आगे ले जा रही है, परंतु अधिकांश ग्रामीण जागरूकता के अभाव में इसका पूरा लाभ उठाने से वंचित रह गए है। आज भी अधिकतर ग्रामीण शिक्षित नहीं होने के कारण अपनी भूमि का उपयोग केवल कृषि के लिए करते हैं, जबकि वह इस पर्यटन के रूप में विकसित कर आजीविका का साधन बना सकते हैं। इस संबंध में नैनीताल के सामाजिक कार्यकर्ता देवेन्द्र सिंह चौसाली बताते हैं कि “पहाड़ी लोग यदि नवीन पर्यटन आयामों को अपने जीवन में अपनाये तो अधिक आय अर्जित कर सकते हैं। पुराने समय में पहाड़ों में पर्यटकों की सुविधा के लिए मात्र होटल और ढाबे हुआ करते थे। पर वर्तमान में काॅटेज, कैंप, रिसोर्ट, हट व रेस्टोरेन्ट जैसी सुविधाएं हो गयी हैं। यदि ग्रामीण क्षेत्रों में इन्हें विकसित करने पर ज़ोर दिया जाए तो निश्चित रूप से ग्राम स्तर पर अच्छी कमाई कर आजीविका के नये आयामों को प्राप्त किया जा सकता है।”

देवेंद्र सिंह कहते हैं कि “वर्तमान में यदि किसी के पास भूमि है तो वह बहुत अमीर की श्रेणी में गिना जाता है, पर पर्वतीय समुदाय के लोग अपनी भूमि होने के बावजूद भी अमीर नहीं हैं, क्योंकि उनके पास इतना रूपया या साधन नहीं है जिससे वह अपनी भूमि पर खुद से कोई स्वरोजगार, होटल, रिसोर्ट खोल सकें। आर्थिक रूप से कमजोर राज्य के 80 प्रतिशत पर्वतीय समुदाय मात्र कृषि और बागवानी को ही अपनी आजीविका मानकर अपनी भूमि को बेचना प्रारम्भ कर दिया है। जबकि खरीददार वह हैं जिनकी आर्थिक स्थिति पहले से ही अच्छी है। वह इन्हीं भूमि पर रोजगार कर अपनी आर्थिक स्थिति को और भी मजबूत कर रहे हैं। वहीं हमारा दुर्भाग्य है जो जागरूकता की कमी के कारण इन्हीं भूमि को बेचकर उन्हीं के यहां काम कर रहे है। यदि ऐसे ही स्थानीय लोग अपनी भूमियों को बेचते रहे तो राज्य में पर्यटन का स्थानीय लोगों को किसी भी तरह से लाभ नहीं हो पायेगा। खरीददारों का उद्देश्य इन भूमियों के माध्यम से सिर्फ व्यापार बढ़ाना है, उन्हें हमारी संस्कृति से कोई लगाव नहीं होता है। जबकि स्थानीय व्यक्ति अपनी संस्कृति और पहचान को संरक्षित रखने का प्रयास करते हैं। वर्तमान में लोग इसके प्रति जागरूक होकर भू-कानून में बदलाव की मांग कर रहे हैं। लेकिन इसके लिए पर्वतीय समुदाय को स्वयं जागरूक होने की आवश्यकता है।

राज्य में पर्यटन विकास की योजनाएं तो बेशुमार हैं, परंतु धरातल पर इनको क्रियान्वित करना अत्यन्त ही मुश्किल प्रतीत होता है। सरकार ने 13 जिलों में थीम आधारित टूरिस्ट डेस्टिनेशन विकसित करने की योजना बनायी है, जिसके लिए 11 करोड़ की धनराशि व्यय की जा चुकी है, जबकि 20 करोड़ का प्रस्ताव प्रक्रिया में है। लेकिन अभी तक कोई भी डेस्टिनेशन पूर्ण रूप से विकसित नहीं हुआ है। राज्य में वीर चन्द्र गढ़वाली पर्यटन स्वरोजगार योजना वर्ष 2002 से प्रारम्भ की गयी जिसका पर्वतीय समुदाय द्वारा लाभ लिया गया है, पर यह लाभ ऐसे व्यक्तियों द्वारा अधिक लिया गया है जो इसकी प्रक्रिया में धनराशि व्यय करने में समर्थ हैं। उपरोक्त सभी विषयों को गंभीरता से लिये जाने की आवश्यकता है। यदि इन पर जोर डाला जाए तो निश्चित रूप से पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यटन को बढ़ावा व आजीविका को नये आयाम मिलने में सहायता होगी। इस पर सरकार और समुदाय दोनों को विचार कर एक ठोस कार्यनीति बनाने की आवश्यकता है।

यह आलेख नैनीताल, उत्तराखंड से नरेंद्र सिंह बिष्ट ने चरखा फीचर के लिए लिखा है

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