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“महिलाओं का सड़कों पर चलना सांस्कृतिक काम है, जिसे उसे ठीक से करना है”

Vijayanand Gupta for HT via Getty

दुनिया की आधी-आबादी का घर की देहरी लांघने के बाद भी, उन्हें सुरक्षित सड़क न ही दिन के उजाले में और न ही रात के अंधेरे में मिलता है। आज़ाद भारत में बेगम रुकैया सखावत हुसैन के ‘सुल्ताना के सपना’ के तरह बस सपना ही है, जो आज तक बना ही नहीं है। बेशक, स्त्री-पुरूष में जैविक फर्क होने के बाद भी भेदभाव न करना, आधुनिक दौर का नीति सम्मत विचार है। परंतु, वह समान्य जीवन में लागू होता नज़र नहीं आता। समानता न ही घर के चारदिवारी में, न परिवार के सामजीकरण में दिखता है, न ही घर के बाहर निकलकर सड़क पर। भले ही आधी-आबादी ने अपने हिस्से में एक से एक बेहतरीन मिसाल कायम की है, उपलब्धियों के शिखर पर हर रोज नया परचम फरहा रही है।

सड़क, हर एक दूसरी महिला के लिए वह जगह है, जिसको जल्दी से पार करते हुए घर या दफ्तर पहुंच भर जाना है क्योंकि वह कम से कम उनके लिए सुरक्षित नहीं है। सार्वजनिक यातायात के वाहनों में पेनिक बटन जैसी होती है जो कभी काम करती है कभी नहीं भी। पर खुली सड़कों पर आधी-आबादी के सुरक्षा के लिए अभी तक कोई तकनीक या व्यवस्था नहीं है, सिवाए 100 पर फोन/काल करने के। सार्वजनिक वाहनों में महिलाओं के सुरक्षा के लिहाज़ से कोयंबटूर, चैन्नई, मुंबई, पुणे, कोलकत्ता और बैगलौर जैसे शहर सुरक्षित कहे जाते हैं।

औरतों के लिए सड़क एक माध्यम

सड़क चाहे घर के देहरी से बाहर निकलकर मोहल्ले वाली हो, मुख्य सड़क हो या फिर देश का राष्ट्रीय राज्यमार्ग, उसको लेकर आधी आबादी के मन में बसावट एक नहीं। कई स्तरों पर उसके सामाजीकरण से बसाई गई है। जो घर के दायरे से बाहर निकलने में सीता के लक्ष्मण रेखा लांघने के सांस्कृतिक मिथकों से शुरू होती है और उस वक्त तुम वहां क्या कर रही थी, किसके साथ घूम रही थी के चरित्र प्रमाण-पत्र के साथ भी खत्म नहीं होती है। यह दायरे में रहने के पुरुषवादी नियंत्रण पर खत्म होती है।

लड़कियों के लिए सड़क एक जगह से दूसरी जगह जाने का माध्यम है। एक ऐसी खुली जगह जिसका उपयोग और अर्थ किसी लड़के के तरह वह खुद के लिए तय नहीं कर सकती है। सड़क वह जगह है जिस पर लड़कियों के उपस्थिति का दायरा पहले से तय किया हुआ है। महानगरों के सड़कों पर वह अकेले चलते दिख भी सकती है। पर शहरों, कस्बों या गांव के सड़कों पर या तो लड़कियों के झुंड में या किसी पुरुष के साथ चलना आवश्यक है। उम्र के साथ वह यह सीख जाती है कि दुनिया में उसके लिए एक मात्र सुरक्षित जगह शायद घर है और घर में भी एक ही जगह अपनी है। वह है ‘रसोई!’ भले घर-रसोई में होती घरेलू हिंसा के आँकड़े सरकारी रिकार्ड में दर्ज होकर आँकड़े बन जाते है और अगर दर्ज नहीं होती है, तो बस सिसकियां बनकर रह जाती है।

महिलाओं के लिए चलना है सांस्कृतिक काम

भले ही मॉडलिंग करती हुई छरहरी काया वाली लड़कियां या महिलाएं रैम्प पर शानदार कैट-वाक करती है। उनका चलना एक विशिष्ट शैली में होता है, जिसकी अलग-अलग व्याख्याएं है। लेकिन सच तो यह है कि हमारे समाज में या फिर घरों में भी लड़कियों या महिलाओं का चलना भी किसी लड़के के तरह बस एक ‘समान्य क्रिया’ नहीं है। चलना लड़कियों या महिलाओं के लिए एक ‘सांस्कृतिक काम’ है जिसको ठीक से करना, सीखना और हमेशा ठीक से ही करने करते रहना उसके लिए बहुत अनिवार्य है।

भले ही हिंदी फिल्मी गानों में लड़कियों या महिलाओं के चलने को लेकर एक से एक बढ़कर व्याख्याएं है। रीतिकाल के कवियों के एक से बढ़ एक काव्य है, जहां कभी हिरनी तो कभी मोरनी के चाल से तुलनाएं भी है। हिंदी फिल्मी गानों में कहीं लड़कियों के चलने से बिजली गिरती है, तो कहीं चाल शराबी चाल हो जाती है, कभी वो चलती है तो पानी बरसने लगता है, तो कभी उसकी चाल मस्तानी चाल बन जाती है। जाहिर है गीतों की व्याख्याएं और पितृसत्तात्मक समाज का सामाजिक दवाब लड़कियों या महिलाओं के चलने को सहज तो नहीं बनाती बल्कि कई तरह के दबाव तो जरूर डालती है। इस दवाब के कारण ही लड़कियां या महिलाएं हाई हिल्स से लेकर फ्लैट चप्पल तक खरीदने में अपनी इच्छा से अधिक सामाजिक-सांस्कृतिक दबावों में घिरी होती है।

सरंचना तोड़ने जैसा है सड़कों पर मौजूदगी

सड़क पर महिलाओं की मौजूदगी सिर्फ चलने या एक जगह से दूसरे जगह जाना भर नहीं है। एक संरचना तोड़ने के साथ-साथ नई परिभाषाओं का सृजन करने जैसा है। इसलिए सड़क पर आधी-आबादी के असुरक्षा के माहौल को भयावह रूप में रचा गया है जो उनके अंतर्मन के दुनिया में असुरक्षा को लेकर गूंजता रहता है। इसलिए सड़कों पर उसका अकेले चलना कभी सहज नहीं रहता है। वह जल्दी से अपने गंतव्य तक पहुंचने का कोशिश करती है।

आज़ादी के कई बसंत देखने के बाद, भले हमने समाज में स्त्री-पुरुष समता के सवाल पर संविधान में शामिल बराबरी के कानून पर, एक आम सहमति बनी हुई है। कई आत्मकथाओं और आत्म-अभिव्यक्तियों में दर्ज स्त्री जीवन के अनुभव के हवाले से हम यह समझ सकते हैं कि स्त्री-पुरुष के समता का ढोल बजाकर, हर रोज साधारण से लेकर अति-साधारण कोटी के उदाहरण से हम आधी आबादी के दुनिया को उसके कमज़ोर होने का एहसास करा रहे हैं। एक अदद सुरक्षित सड़क की उम्मीद आधी-आबादी के दुनिया में एक दुखद सपने के तरह है, जिसके पूरे होने का सफर अभी काफी लंबा है।

यह स्टोरी हमारे कैम्पेन ‘मेरी भी सड़क’ का हिस्सा है, जिसके ज़रिए हम पब्लिक प्लेसेस पर महिलाओं की उपस्थिति और उनकी सुरक्षा की बात कर रहे हैं। साथ ही हर लैंगिक पहचान के व्यक्ति के लिए ऐक्सेसबल पब्लिक स्पेस की मांग कर रहे हैं। आप भी अपने तजुर्बे या विचार लॉग इन कर ज़रूर लिखें। 

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