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“शिक्षा को डिग्लोरिफाई करने की है ज़रूरत:संदीप मेहतो के साथ बातचीत”

Founder of Bharat Calling Sandeep Mehto

Founder of Bharat Calling Sandeep Mehto

कहते हैं शिक्षा व्यक्ति को परिष्कृत करती है और उसे सशक्त बनाती है। पर क्या वर्तमान में हम शिक्षा को उसके सही रूप में समझ पाए हैं? कौशल और दक्षता क्या होती है? सिर्फ वही जो मुख्यधारा के समाज में मान्य हो या जो वास्तव में व्यक्ति की क्षमताओं का सदुपयोग करवाए? लड़कियों की शिक्षा और कौशल परक शिक्षा जैसे इन्हीं तरह के संदर्भों में हमने बातचीत की श्री संदीप मेहतो जी से ,जो इटारसी के पथरौटा गांव में भारत कॉलिंग संस्थान के फाउंडर हैं। वह इसके तहत क्षेत्रीय महिलाओं के लिए सम्मानपूर्वक महिलाओं के अनुकूल आजीविका के उद्देश्य से विकल्प एंटरप्राइजेज़ की टीम के भी अगुवा हैं। ‘विकल्प’ के तहत महिलाओं को आत्मनिर्भर छोटे उद्यमी के तौर पर विकसित होने में भी मदद मिल रही है। यहां अपने छोटे से कृषिभूमि के हिस्से में वे नवाचार के साथ जैविक कृषि भी करते हैं और इसके अलावा यहाँ नित नए आयुर्वेदिक हर्बल उत्पाद, इको फ्रेंडली सेनेटरी नैपकिन्स और शुद्ध रसायन रहित उत्पादों के अतिरिक्त हुनर-अफ़ज़ाई -सब होता है।

स्पर्श : संदीप,आपने जब भारत कॉलिंग शुरू किया था और सरकारी स्कूलों के साथ जुड़ना हो या करियर के लिए मार्गदर्शन हो ,यह सब कैसे शुरू हुआ? आपका ड्रॉप आउट से क्या तात्पर्य है?

इन्फोर्म्ड ड्रॉपआउट और इन्फोर्म्ड चॉयज़ेस क्या है

संदीप : हमारा मुख्य मुद्दा था ‘informed dropout’ और informed choices का न होना। देखिये ड्रॉपआउट क्यों किया जा रहा है, यह समझना ज़रूरी है। क्या यह इसलिए है कि आपको लगता है कि आपके पास पूरी पढ़ाई करने के बाद ऑप्शंस नहीं हैं या फिर जिस विषय में आप चाहते हैं उसमें भविष्य ही मुश्किल नहीं है। या मज़बूरी में या फिर दिशाहीनता के कारण जहाँ यह भी नहीं पता है कि आपको पसंद क्या है और आप क्या इस रूचि के क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहेंगे? हम सिर्फ लड़कियों नहीं, लड़कों के साथ भी काम कर रह थे। क्योंकि यह समस्या सब की थी। हालांकि तब काफी ग्रामीण क्षेत्रों की लड़कियों को उनके हुनर के माध्यम से शिक्षा का रास्ता हम दिखा सके।

तो हुआ यूँ कि हमारे मास्टर्स के पहले साल से ही हम कुछ पायलट कर रहे थे जहाँ हमें समाज की किसी समस्या को सुलझाने के लिए काम करना था और तब यह मुद्दा जो मेरे जिले के लिए बहुत अहम् था , वह सामने आया । उस दौरान हमने इन सन्दर्भों में काफी बिज़नेस प्लान भी जीते थे और हम कभी-कभी अपने साथियों को ही इंटर्नशिप्स भी दिया करते थे। हमने मुंबई में अपने कॉलेज के सामने के कंस्ट्रक्शन साइट पर पढ़ाना शुरू किया तो खुद बा खुद क्रैच खोलने के लिए रास्ता बन गया (शुरुआत और प्रेरणा हम जाने-अनजाने में बन गए थे)। फिर क्षेत्रीय स्कूलों में हम जाते थे तो हमसे कहा गया कि केसला (आदिवासी बहुल तवा नदी वाला क्षेत्र) के स्कूलों में जाइए। हालाँकि यहाँ से हमारा नया नजरिया शुरू हुआ। मास्टर्स के बाद हमने इस काम को रजिस्टर किया एक गैर-शासकीय सामजिक संगठन के तौर पर!

स्किल, नॉलेज और अवेयरनेस पर रहता है फोकस

हम खुदको फैसिलिटेटर मानते हैं ,बड़े भाई बहन की तरह! कोई ऐसा जो उनके सपनों, उनके पहले से मौजूद स्किल्स, टैलेंट और सोच को समझे और स्वीकार करे! तो हमारा इन स्कूलों में जाकर बच्चों तक पहुँचने का सिर्फ यही नया मकसद था। तो हम समर कैंप लगाया करते थे (लगभग एक से डेढ़ महीने का) जिसके लिए हम लैटर्स लिखा करते थे और कॉल किया करते थे। कॉल पर ही रजिस्टर करते थे, फॉलो अप करते थे। केसला में जिला स्तरीय आवासीय और ब्लॉक स्तर पर दसवीं के बाद पॉलिटेक्निक के लिए भी इसी तरह के पर गैर-आवासीय शिविर हमने लगाए हम तीन मुख्य चीज़ों पर बात करते थे – स्किल, नॉलेज और अवेयरनेस।

स्किल से यहाँ तात्पर्य था कि परीक्षाओं में आपको जो व्यवहारिक स्किल्स की ज़रूरत होती है मसलन ओ एम आर कैसे भरें आदि। नॉलेज में हम हरेक छात्र-छात्रा को उसकी टैलेंट के अनुसार तरह-तरह के कॉलेज आदि की जानकारी देते थे और जागरूकता के लिए सेशंस, एक्टिविटीज, वाक् कौशल आदि करवाते थे। पर हमारा काम यहीं पर ख़त्म नहीं हो जाता था बल्कि लगातार फॉर्म भरने से लेकर एडमिशन करवाने तक, यहाँ तक कि कई बार आर्थिक कारणों से जो लोग वापस आ जाते थे , उनके लिए फिर से सहायता जुटाना और प्रेरित करना। छोटी-छोटी बातें कई बार जीवन बदल देती हैं मसलन फॉर्म भरने के थोड़े से पैसे हों या परीक्षा देने जाने के लिए सहयोग और साथ हो , सब जगह हमने एक बड़े भाई या बहन की तरह ही खुद को माना।

स्पर्श : आपको क्या लगता है कि अपनी क्षमताओं और रुचियों के आधार पर बनाए शिक्षा के रास्ते ने इन युवाओं को खासकर कि लड़कियों को क्या सिखाया और क्या बदलाव लाये ?

संदीप : सबसे बड़ी बात ये सब युवा आज खुद के संघर्ष को ओन(own ) करते हैं। जैसे कमला से आप मिले और भी लड़कियों से मिले तो आपने देखा होगा कि आज वो अपने अतीत के सफर को आत्मविश्वास से स्वीकार करते हुए बताती हैं। शिक्षा सही मायनों में यह ज़रूर देती है।

एक और बात , ये संस्थान और जगहें आपको यह बताती हैं कि आप कुछ हटके भी कर सकते हो। या आपको एक अलग तरीके की हिम्मत देती हैं कि आपके जैसे या आपके एस्पिरेशंस वाले स्किल्ल्सेट के और भी साथी हैं जिनसे आप सीख सकते हो या अपने ख्याल बाँट सकते हो। जहां आप belongingness फील कर सकते हो।

स्पर्श : इस सब में आप के परिवार या परवरिश का क्या योगदान रहा है?

परिवार की भी रही है अहम भूमिका

संदीप : दरअसल बचपन से ही यह रहा है कि हमारे परिवार के पास जो भी हो वो शेयर करने की प्रवृत्ति रही है। एक डेमोक्रेटिक वैल्यू सिस्टम आप कह सकते हैं। शायद इसीलिये मैं बहुत सारे दोस्तों को पढाई पूरी करवाने में मदद कर सका। हालाँकि हम बहुत कोई आर्थिक रूप से सशक्त परिवार नहीं हैं पर साझा करने का स्वभाव रहा है। फिर जब मेरे पिता की मृत्यु हुई और उनके अंतिम संस्कार में जो ढेर सारे जनसैलाब को मैंने देखा सुना जिन्हे हम नहीं जानते थे। पर जिनकी मदद मेरे पापा ने कभी की थी , वो सब आये थे। तब मुझे लगा कि मैं यह करना चाहता हूँ , मेरे पिता ने यह प्यार कमाया है । SATI उज्जैन से इंजीनीयरिंग के बाद प्लेसमेंट हुआ पर मैंने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज में दाखिला लिया और जैसे वहां से एक नया रास्ता शुरू हुआ।

स्पर्श : तो आपके लिए शिक्षा से क्या तात्पर्य है ? किसी भी व्यक्ति के जीवन में शैक्षणिक संस्थाएं आपके दृष्टिकोण से क्या योगदान देती हैं ?

शैक्षिक संस्थानों का महत्व

संदीप : सबसे महत्वपूर्ण बात है कि शिक्षा के संस्थान हमें सोशल और कल्चरल कैपिटल को विकसित करने के मौके देते हैं। अमूमन हमारे पास इसके अलावा इस प्रकार की कोई स्पेस नहीं होती हैं, जहां अलग अलग बैकग्राउंड ,कल्चर के लोग एक जगह मिलते हों ! जैसे , जब मैं टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में ‘सोशल आंत्रप्रेन्योरशिप ‘ में मास्टर्स करने गया था तो मुझे भी ‘नॉन जजमेंटल , विविध स्पेक्ट्रम और भाँति -भाँति के लोगों,सोच और परिवेश में घुलने का मौका मिला था। इसके अलावा शैक्षिक संस्थान एक अलग प्रकार की कम्युनिटी का अहसास भी करवाते हैं। वहां जहाँ आप सिर्फ व्यावहारिक होकर नहीं बल्कि अलग अलग सन्दर्भों में खुद को देखना शुरू करते हैं। रिफ्लेक्ट करते हैं , खुद के बारे में और दूसरों को समझने में जो अवलोकन चाहिए होता है , उसकी शुरुआत यहीं से होती है। शिक्षा आपकी असल में आपके तार्किकता और समालोचना के साथ विश्लेषण करने की क्षमता को बढ़ाती है और बढ़ानी भी चाहिए।

पर इसके साथ साथ हमारे शिक्षा के ढाँचे की कई सीमाएं भी हैं। मसलन आप आम तौर पर यहाँ कोई सवाल खड़े नहीं कर सकते। जैसा सिखाया जा रहा है या जो कहा जा रहा है बिलकुल वैसा ही करने को प्रेरित और न करने पर दण्डित यह एकदम सामान्य बात है ,हमारी ‘शिक्षा’ की वर्तमान परिभाषा में ! जैसे कि अगर आप किसी जायज़ मुद्दे पर शांतिपूर्ण प्रोटेस्ट कर रहे हैं तो आप के मार्क्स काट लिए जाएंगे! कई बार कई संस्थान कुछ ज़्यादा ही आदर्शवादी हो जाते हैं जहां से बाहर निकल कर व्यवहारिकता के साथ तालमेल बिठाने में मुश्किल होती हैं। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है।

इसके अलावा हमारे आज के आधुनिक शिक्षण व्यवस्था में एक बहुत बड़ी खामी यह है कि हम कुछ नया और ग्रैंड करने के चक्कर में अपने आस पास की चीज़ों, ज्ञान, परम्पराओं या संसाधनों को फ़िज़ूल मानकर उन्हें सहेज नहीं पाते हैं। मसलन पारम्परिक ज्ञान ,पीढ़ी -दर -पीढ़ी या घर में सीखे हुए कौशल या खुद की प्रतिभा या गुणों के कारण जो सीख रहे हैं , वह नज़रअंदाज कर दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर कोई लड़का अगर घड़ी सुधार लेता है घर पर ही या गाय दुहना उसे आता है जबकि वह अभी स्कूल जाने की उम्र का है तो क्या इसे हम कौशल नहीं कहेंगे ?

तो समस्या यह है कि फिलहाल सोच है कि दस एकड़ की जगह में जाएंगे तो ही अच्छे से शिक्षा पा सकते हैं , यह मेरे नज़र से एक विकृत मानसिकता है। हालाँकि यही पेरेंट्स और बच्चों को भी लगता है।

शैक्षिक संस्थानों को स्टैन्डअलोन बॉडी के तरह न देखें

स्पर्श : इसके अलावा आपको और क्या लगता है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में मिसिंग है या इन सीमाओं के लिए क्या विकल्प होना चाहिए ?

संदीप : दरससल शिक्षा की व्यवस्था फिलहाल स्टैंडअलोन बॉडी के रूप में है। उसे सैद्धांतिक ज्ञान के साथ एक तो कम्युनिटी के स्तर पर , दूसरा -कौशल के स्तर पर और तीसरा। रोज़गार के स्तर पर साथ में जुड़ा होना चाहिए। सिर्फ रोज़गार परक शिक्षा शिक्षा नहीं होती है। तीनों के सपोर्ट सिस्टम चाहिए। मसलन हमारे कृषि संस्थान में जब होम साइंस कॉलेज की छात्राएं इंटर्नशिप करने आयी थीं तो मैंने उनसे पहले खेत का कचरा साफ़ करवाया और डीवीडिंग करवाई ! यहीं पर तो फॉर्मल-इनफॉर्मल और सिर्फ किताबी और व्यावहारिक कौशल का समागम होता है।

वैसे एनसीईआरटी के अनुसार प्राइमरी लेवल पर बच्चे स्कूल जाना सीखते हैं। बैठने का अनुशासन सीखते हैं। माध्यमिक स्तर तक आप जेंडर और अन्य तरीकों से कंडीशन होते हैं। सेकेंडरी लेवल पर आप कौशल या आगे क्या करना है-की दिशा में सोचना शुरू कर देते हैं।

पर हमें शिक्षा को विभिन्न प्रकार की दक्षताओं के रूप में क्यों नहीं देखना चाहिए ! मसलन अगर किसी लड़की ने प्रेम विवाह किया है , एक बच्ची को बड़ा कर रही है और अपने पति की रिलोकेशन में हेल्प किया है तो क्या यह ‘दक्षता ‘ या योग्यता नहीं है ?नौकरी करना ही शिक्षा की परिणति हो यह तो ज़रूरी नहीं होना चाहिए?

स्पर्श : संदीप , आपने भारत कालिंग के ज़रिये लड़कों और लड़कियों के लिए उनकी क्षमता और रूचि के अनुसार करियर और उच्च शिक्षा का रास्ता बनाने का एक प्रोजेक्ट वर्षों पूर्व किया था। उन तमाम लड़के लड़कियों की ज़िंदगियाँ बदलने में आपका महत्वपूर्ण योगदान है। पर लड़कियों के मामले में ड्राप आउट की समस्या पर आपका क्या कहना है ?

संदीप : आम तौर पर अलग अलग स्तर पर अलग समस्याएं हैं – मसलन माध्यमिक लेवल पर यह होता है कि उनकी पढाई को प्राथमिकता ही नहीं दी जाती है। उन्हें एक एसेट के तौर पर ,काम करने वाले हाथों के तौर पर लिया जाता है -घर के काम हों ,छोटे भाई बहन की देखभाल हों – यह ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है बजाय उनकी स्कूल जाने की ज़रुरत। फिर दसवीं के बाद तो स्कूल अगर दूर हो तो पढ़ाई छूट जाती है। सब्जेक्ट गलत ले लिया या फेल हो गए तो फिर मौका नहीं मिलता आगे पढ़ने का।

लड़कियों के शिक्षा का अधिकार का क्या है मायने

स्पर्श : राइट तो एजुकेशन का लड़कियों की शिक्षा के सन्दर्भ में आपका क्या अनुभव है ?

संदीप : वैसे तो मेरा यह कार्यक्षेत्र प्राइमरी – सेकेंडरी स्कूल के बारे में नहीं रहा है तो मैं ज़्यादा तो इस बारे में नहीं कह सकता। पर हाल ही के कुछ अनुभवों ने यह बताया कि अब कम से कम लड़कियों को मना तो नहीं कर सकते एडमिशन के लिए इस अधिकार के कारण। हालाँकि आधार जैसे डाक्यूमेंट्री अभाव में ज़रूर समस्याएं होती हैं।

स्पर्श : नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के बारे में आपका क्या ख्याल है ?

संदीप : मुझे इस विचार से ही अजीब लगता है कि हमारा नजरिया सिर्फ शिक्षा को नौकरीदायक कैसे बनाये इस पर टिका हुआ है। हम तमाम कौशलों की सिर्फ इसलिए ज़रुरत समझते हैं और फिर नीति के माध्यम से उसको मौजूदा सिस्टम पर थोपना चाहते हैं ताकि बेरोज़गारी कम हो ! हमने कभी बैठकर यह विचार करना चाहिए पहले , कि उदाहरण के तौर पर बी.एस.सी का कोर्स वास्तव में विज्ञान और शोध का था। तब हमारे युवा क्या शोध में बेहतर हो रहे हैं। क्या जिस चीज़ के लिए कोर्स थे ,वही उनकी काबिलियत ढंग से बन पायी है? क्यों कोविड में हमारे माइक्रोबायोलॉजी पढ़े युवा लैब टेस्ट जैसी बेसिक चीज़ में नाकाम रहे जबकि हमें कहीं कुछ नया करने की ज़रुरत ही नहीं थी? राजनीति से लबरेज़ हमारे लोकतंत्र में जो ज़रूरतें हैं ,क्या हमारे पॉलिटिकल साइंस की पढाई किये युवाओं से ,वो पूरी की जा सकती हैं ? नहीं तो क्या वजह है कि ऐसा नहीं है ?

स्पर्श : आपको क्या लगता है , सरकार के द्वारा , नीतिनिर्माताओं के द्वारा या शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े अन्य लोगों के द्वारा इस दिशा में और क्या बेहतर किया जा सकता है (खासकर सन्दर्भ में )

शिक्षा को डिग्लोरिफाई करने की जरूरत

संदीप : तो हमने अभी तक जो भी बात की उसका सार यह है कि शिक्षा को कोई एक्सक्लुज़नरी बड़े से संस्थान या बड़े से आईडिया के तौर से बाहर निकालने की और डिग्लोरिफाई करने की आवश्यकता है ! और इसके लिए हमें ऐसी सोच वाले सोशल ग्रुप्स क्रिएट करने की ज़रुरत है। खासकर कि लड़कियों के लिए।एक और बात हमारे अनुभव में आयी वह यह कि जो मन और सोच पर सीमाएं लड़कियों की लगा दी जाती हैं , हमे उससे परे उन्हें एक एक स्टेप आगे बढ़ने को कहा जाता है। मसलन पहले फॉर्म तो भरो फिर आगे देखेंगे।

एक बात और एनसीईआरटी के मानकों के अनुसार शिक्षा के साथ तीन आयाम जुड़े हैं। ऐकडेमिक , सोशल और फिजिकल। दुःख की बात यह है कि सिर्फ अकादमिक पक्ष पर ही सारा ध्यान और सराहना रह जाते हैं। जैसे खाना-पीना, व्यायाम और आराम यह सब शारीरिक विकास वाले शिक्षा के पहलू हैं, और सामाजिक आयाम आपके दोस्तों, सामाजिकीकरण की प्रक्रिया, सीखना आदि से जुड़ा है। मेरा तो कहना है कि मेरे पास जब माता-पिता कहते आते हैं कि हम तो पढ़े-लिखे नहीं हैं तो हम कैसे बच्चे की शिक्षा में योगदान देंगे तो मैं कहता हूँ – आप उसकी सेहत और मन को निश्चिन्त रखने या टीवी का वॉल्यूम कम करने का काम तो कर सकते हैं वो ही सबसे अहम होगा उसके टेंशन फ्री होकर पढ़ने में!

तो शिक्षा ऐसे सिर्फ स्कूल या कॉलेज की बपौती नहीं होनी चाहिए। इसके तार अलग अलग सामाजिक संस्थाओं या अवधारणाओं से भी जुड़े हैं। तब शिक्षा अपने पूरे रूप में सार्थकता ला सकेगी। इस बारे में मुझे इटारसी के दो स्कूलों का उदाहरण अभी याद आ गया है -जहां पेरेंट्स और टीचर्स के बीच संवाद को रेगुलर बनाने के लिए कुछ मज़ेदार सवाल पूछे जाते हैं कि आपके घर पर कौन खाना बनता है , कौन डरता है, कौन डराता है आदि। एक अन्य स्कूल में एक बच्चा पढ़ने में कमज़ोर था पर वह ढोलक बहुत अच्छी बजाता था तो। उसको ढोलक बजाने के मौके दिए गए तो उसके पढाई के प्रदर्शन में आश्चर्यजनक सुधार हुआ।

इसके अलावा हर हायर सेकण्डरी स्कूल में कम से कम एक सोशल वर्कर होना चाहिए। जिला स्तर पर काउंसलर्स की भी आवश्यकता है चाहे वो करियर के लिए हों या मनोवैज्ञानिक तौर पर !

स्पर्श : आपका बहुत-बहुत धन्यवाद संदीप , आपने इतने गहरे तरीके से शिक्षा ,कौशल और खासकर कि लड़कियों के लिए शिक्षा और करियर के सन्दर्भों में चर्चा की।  

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