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“हमारे बच्चों के साथ कोई खेलता नहीं, इसलिए हम दलित ज़्यादा बच्चे पैदा करते हैं”

Slum kids

बात उस समय की है जब मैं नया-नया विद्वान बना था। ग्यारहवीं या बारहवीं की परीक्षा देने के बाद में गॉंव गया हुआ था। उत्तराखंड के अधिकांश गॉंवों की ही तरह मेरे गॉंव में भी एक दलित परिवार हैं, जिन्हें मेरे यहां के ठाकुर और ब्राह्मण हिकारत और अभिमान के साथ डूम कहते हैं। यह परिवार गॉंव की परिधि पर रहने के लिए मजबूर किया जाता है।

हां तो, मैं कह रहा था कि मैं नया-नया विद्वान बना था। मैं विद्वता के पंखों पर संवार होकर, गॉंव की पगडंडियों पर उड़ता फिरता। ऐसे ही एक दिन जब मैं उड़ रहा था तो मुझे मेरे गॉंव के पड़ोसी गॉंव के दलित परिवार की एक स्त्री रास्ते में मिल गयी। मैं कुछ-कुछ लिबरल थौट से भरा हुआ, उनके पास जा पहुंचा। लिबरल इस मायने में कि आमतौर पर लोग उनसे सहज में बात करने से बचते हैं। मैं पहुंचा तो था यह सोचकर कि उन्हें अपने ज्ञान की लाठी से ठेलकर कहीं “नीचे” गिरा दूंगा लेकिन उनके साथ हुई उस बातचीच को मैं आज तक भूल नहीं पाया हूं।

फोटो प्रतीकात्मक है। सोर्स- Getty

उस बातचीत की याद पिछले दिनों कुछ और तीखी हो गयी। मौका था मुंबई उच्च-न्यायालय के उस फैसले से गुज़रने का, जिसमें किसी स्त्री की अपनी इच्छा से जीवन को चुनने के अधिकार के एक और पक्ष की व्याख्या की गई है। न्यायालय के अनुसार किसी स्त्री के पास यह तय करने का अधिकार होना चाहिए कि वह गर्भ को धारण करे या नहीं। यदि पति या पार्टनर ने उसके शरीर में गर्भ स्थापित कर भी दिया तब भी, बिना कोई कारण बताए वह स्वयं को उस गर्भ से मुक्त कर सकती है।

उन स्त्री से बात की शुरुआत मैंने एक सवाल से की। मैंने पूछा, “आपके कितने बच्चे हैं?” यह सवाल “हम दो हमारे दो” के नारे से पैदा हुआ था। उन्होंने कुछ संख्या बताई, उस संख्या को सुनकर मुझे तस्सली हुई कि अब तो मैं ज़रूर ही अपने ज्ञान की लाठी से इन्हें ठेल दूंगा, क्योंकि जो संख्या उन्होंने बतायी थी वह “हम दो हमारे दो” के नारे पर बुरी तरह से चोट कर रही थी।

उस समय, सरकार के नारे का पैरोकार बना मैं ताव खा गया और दूसरा सवाल पूछ बैठा, “ भाई साहब क्या करते हैं?” उन्होंने बताया कि अपनी ही खेती करते हैं। “खेती कितनी बड़ी है?” मैंने चौथा सवाल दागा। इस सवाल के जवाब में उन्होंने अपने खेत की ज़मीन का जो विवरण पेश किया, उससे मेरा विश्वास और बढ़ गया।

इसी प्रकार की विजय-भावना से भरकर मैंने पांचवा सवाल भी दाग दिया। “इतनी कम कमाई है, तो इतने सारे बच्चे क्यों पैदा कर लिए?” मेरे हिसाब से यह सवाल मेरा मास्टर स्ट्रोक था लेकिन इस सवाल के जवाब में उन्होंने जो कहा उसने मेरे छक्के छुड़ा दिये। उन्होंने बहुत ही उदास आवाज़ में जो कहा उसका मतलब था, “हे! पगले, हमारे बच्चों के साथ कोई खेलता नहीं।”

उन्होंने यह बात जिस दर्द के साथ कही, उसकी टीस से मैं कभी-कभी अब भी बैचेन हो जाता हूं।

मुंबई उच्च-न्यायालय के फैसले के संदर्भ में उपयुक्त बातचीत इसलिए याद आई कि जाति व्यवस्था ने उन और उन जैसी अन्य स्त्रियों के राइट टू प्रेगनेंसी के रास्ते में बाधाएं खड़ी कर रखी हैं। इस मामले में जाति है, जिसके कारण उन्हें बार-बार गर्भ धारण की पूरी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। यदि जाति के आधार पर उनके बच्चे और बच्चियों के साथ भेदभाव नहीं किया जाता, तो वे अपने पति के साथ मिलकर ज़्यादा बच्चे या बच्चियां पैदा ना करने का फैसला लेती और इस प्रकार उनके गर्भ धारण करने और ना करने के अधिकार की रक्षा हो जाती।

 

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