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वो महज़ भारत की माता नहीं भाग्य विधाता भी बनना चाहती हैं

वो भारत की माता नहीं बनना चाहतीं जिनकी जयकार हो, वो बराबरी चाहती हैं और उसी के लिए आवाज़ उठा रही हैं। पारंपरिक देवी और भारत माता की संकल्पना से इतर आज विश्वविद्यालयों की नौजवान लड़कियां बराबरी और आज़ादी के लिए लड़ रही हैं। कभी वो पिंजरा तोड़ने की मुहिम चलाती हैं तो कभी सत्ता के सरंक्षण के दम पे गुंडागर्दी करते ABVP के खिलाफ हल्ला बोल देती हैं। उस दौर में जब लोग कहीं देशद्रोही कहे जाने के डर से, तो कहीं सत्ता की हनक के खौफ से ज़बान सिल के बैठने लगे हैं, तब आधुनिक भारत की लड़कियां संघर्ष का नया मोर्चा खोल बैठी हैं। वो डर के घर पे नहीं बैठने वाली हैं, वो बिना किसी से डरे विरोध कर रही हैं। इस बात को मजबूती प्रदान करती है, हाल ही में दिल्ली के रामजस कॉलेज में हुई घटना।

रामजस कॉलेज में हुए विवाद के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में ज़ोरदार प्रदर्शन हुए। प्रदर्शनों में जो बात ख़ास तौर पर दर्ज की जाने वाली है वो है इनमें लड़कियों की भागीदारी। अगर यूं कहें कि लगभग पूरे आन्दोलन का नेतृत्व ही लड़कियों के हाथ में था और उनकी भागीदारी भी अपेक्षाकृत बहुमत में थी तो गलत न होगा। जो गौर करने वाली बात है वो वह सन्देश है, जो ये आन्दोलन दे रहा था। हमारे देश में विश्वविद्यालयों की राजनीति, जो पितृसत्ता का अड्डा है उस राजनीति में दिल्ली विश्वविद्यालय की लड़कियों ने जिस जोरदार ढंग से अपनी आमद दर्ज कराई है वह काबिले गौर है। जो दिल्ली विश्वविद्यालय बड़े बापों की औलादों की राजनीति की पनाहगाह माना जाता है उसकी चूलें हिला दी गयी हैं। पिंजरा तोड़ आन्दोलन से उठा सन्देश कि “यूनिवर्सिटी हमारी आपकी, नहीं किसी के बाप की” इस बार व्यापक तौर पे हिलोरे मार रहा था।

दरअसल जिन लड़कियों को डराकर, उन्हें उनकी हद में रहने की चेतावनी दी जा रही थी उन्होंने जोरदार जवाब दिया है। लाठी डंडों के खौफ को दरकिनार करते हुए, दिल्ली विश्वविद्यालय की लड़कियों ने ये तो बता ही दिया है कि पब्लिक स्पेस में किसी की बपौती नहीं चलेगी। ये प्रदर्शन इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये विश्वविद्यालयों की बदलती राजनीति को भी बता रहे हैं। लक्ज़री गाड़ियों, पैसे और शराब के दम पे विश्वविद्यालयों की राजनीति करने वाले सामंती युवा नेताओं की राजनीति को ये चुनौती है आधी आबादी की ओर से। ये इस बात का भी सन्देश है कि राजनीति को मस्कुलिन आइडेंटिटी तक सीमित रखने की ये कवायद नहीं चल पाएगी।

ऐसे वक़्त में जब पुलिस आपके साथ न हो, लड़कों का झुण्ड आपके ऊपर हमला कर दे और जो पुलिस हिफाजत के नाम पे आये भी वो आपको अपनी “मर्दानगी” दिखाए तो ये आसान बिल्कुल नहीं होता कि आप हिम्मत के साथ डटे रहें। वो चाहे शैला राशिद हों या कंवलप्रीत कौर या कोई अन्य आम छात्रा, पूरे आन्दोलन के दौरान छात्राओं ने जिस हिम्मत और बहादुरी के साथ गुंडागर्दी का सामना किया वो ये बताता है कि अब ये बहुत ज़्यादा देर तक मुमकिन नहीं हो पायेगा कि आप सुरक्षा का खतरा दिखाकर आधी आबादी को उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित कर दें।

दरअसल रामजस कॉलेज का विवाद, अपने आप में कोई स्वतंत्र घटना नहीं है वरन ये उस चली आ रही लड़ाई का एक पड़ाव है। जहां एक ओर तो वो लोग हैं जो अपनी तथाकथित सांस्कृतिक श्रेष्ठता का हवाला देते हैं और उन्हें वो आज़ाद ख़याल लड़कियां नहीं पसंद आ रही हैं जो पब्लिक स्पेस में उनके वर्चस्व को चुनौती दें। दूसरी तरफ से संवाद और वाद विवाद पर जोर देती वो लड़कियां जो गुंडागर्दी का विरोध कर रही थीं। अगर पूरी घटना पे गौर से नज़र डालें तो ये पायेंगे कि सबसे ज़्यादा अगर हमला इस दौरान हुआ है तो वह लड़कियों पर हुआ है। वह चाहे गुरमेहर कौर हो या सुचेता डे या कोई अन्य छात्रा। सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक हर जगह ये कोशिश हुई कि इन जोरदार तरीके से उभरती हुई प्रतिरोध की आवाजों को दबा दिया जाए। और इन सब कामों के लिए आज़ादी के कुछ नारे और सेमिनार बहाना बनते हैं।

एक और बात है जो ध्यान देने लायक है कि तथाकथित राष्ट्रवादी ताकतों की ओर से प्रतिरोध की हर आवाज़ को दबाने की मुहिम के बावजूद पिंजरा तोड़ जैसे स्वतंत्र आन्दोलनों ने उन्हें काफी परेशान किया है। लड़कियों पे किये जा रहे चौतरफा हमले इस आन्दोलन को रोकने में असफल रहने की उनकी खीज भी दर्शाते हैं। कुल मिलाकर कुछ ताकतों को ये तो कतई बरदाश्त नहीं होगा कि “भारत की देवी” राजनीति में आएं और उनके एकाधिकार को चुनौती दें। उन्हें ये सक्रियता परेशान करती है और तभी वो कभी बलात्कार की धमकी देते हैं तो कभी गाली गलौज करके हिम्मत तोड़ देना चाहते हैं। लेकिन अब ये इतना आसान नहीं है। कहते हैं संघर्ष व्यक्ति को मजबूत बना देता है, तो सदियों तक हाशिये पर रही आधी आबादी इतने दिनों में बहुत मजबूत हो चुकी है और अब ज़्यादा मजबूती से लड़ने के लिए तैयार है।

दरअसल एक बात जो और ध्यान आकर्षित करती है और सकारात्मक भी है, वह है कि जिस दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्राओं की स्टीरियोटाइपिंग, पार्टी गर्ल कह के हो रही थी उन्होंने अपनी सक्रियता से ये जता दिया है कि वे किसी भी मामले में पीछे नहीं रहने वाली। हकीकत में लैंगिक समानता और नारी सशक्तिकरण को अमली जामा तभी पहनाया जा सकता है जब पितृसत्ता के अड्डों को चुनौती दी जाए। छात्र राजनीति अभी भी ज़्यादातर विश्वविद्यालयों में पुरुष प्रधान ही है, तो ऐसे हालात में ये वक़्त की मांग है कि कैम्पसों की राजनीति में भी बराबरी हो और ये केवल शोपीस में नहीं बल्कि हकीकत में होना चाहिए। जेएनयू और डीयू सक्रियता के केवल अपवाद नहीं होने चाहिए हालांकि ये पूरी मुहिम को लीड करते दिख रहे हैं।

एक और ख़ास बात है, वह है नारों में। रामजस कॉलेज में हुए विवाद के बाद 28 फरवरी के मार्च में जिस तरह से नारे लिखे गए थे वो आज की लड़कियों की बेबाकी और आज़ाद ख़याली के परिचायक हैं। एक बैनर लिए लड़कियां चल रही थीं जिसपे लिखा था कि, “भारत की माता नहीं बनेंगे”। दरअसल ये वाक्य उस दलील को खारिज करता है जो वास्तविक आज़ादी को खारिज करने के लिए दी जाती है और ये कहा जाता है कि देखो हमारे यहां तो देश को ही माता माना जाता है और सम्मान भी बहुत दिया जाता है। दरअसल आज की लड़कियां भारत की माता बनने से ज़्यादा बेहतर भारत का नागरिक बनने को समझती हैं जो अपने अधिकारों के साथ एक गरिमामयी जीवन जी सके।

अंत में पूरे मसले पे सरकार के रवैये पे भी बात करना इसलिए जरुरी है क्योंकि आम छात्राओं के साथ खड़े होने के बजाय सरकार ने गुंडागर्दी करने वालों के पक्ष में खड़ा होना मुनासिब समझा। मंत्रियों ने ये कहा कि पढ़ाई-लिखाई पे ध्यान दें। जब सड़क पे दौड़ाकर लड़िकयों को मारा गया और उसके बाद एफआईआर भी नहीं दर्ज हो रही थी, तब भी सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया। ये वही सरकार है जो कागजों पे तो कहती है कि हर विश्वविद्यालय में जेंडर क्लब बने और जेंडर चैंपियन चुनें जाएं जो लैंगिक समानता के लिए काम करें, लेकिन धरातल पे मामला कुछ और है। अब सवाल तो ये बनता ही है कि,  हे सरकार! क्या ऐसे ही आएगी इक्वॉलिटी?

खैर जो भी हो, बिहार के समस्तीपुर में बैठे किसी सज्जन को ये देख के अटपटा लग सकता है कि हंगामों के बीच विश्वविद्यालयों की छात्राएं दौड़े-भागें। आजमगढ़ के किसी ज़नाब को ये अच्छा न लगे कि पुलिस मुख्यालय के बाहर एफआईआर को लेकर छात्राएं प्रदर्शन करें। लेकिन हिंसा और गुंडागर्दी के खिलाफ आन्दोलन में नारे लगाती ये लड़कियां एक प्रतीक हैं जम्हूरियत की ज़िंदादिली का। उस आने वाली सुबह का जब पब्लिक स्पेसेस में किसी की बपौती नहीं होगी और मिलेगी असली आज़ादी पितृसत्ता से।

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