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महिलाओं का देवी बताना उनकी गुलामी का उत्सव है

बराबरी! स्त्री-पुरुष के बीच बराबरी या यूं कहें कि दो इंसानों के बीच बराबरी। लेकिन वे तो शारीरिक रूप से एक जैसे नहीं हैं, फिर कैसी बराबरी! ये बराबरी है इंसान होने की। जी हां, सारे स्त्री विमर्श का लब्बोलुबाब यही है। दो इंसानों के बीच बराबरी का सिद्धांत उन लोगों को हमेशा से अखरता रहा है जिनके अपने निहित स्वार्थ रहे हैं गैर बराबरी की व्यवस्था बनाए रखने में। मसलन जब दास प्रथा अस्तित्व में थी तब बहुत से ऐसे लोग थे जो ये मान ही नहीं सकते थे कि दो इंसान बराबर हो सकते हैं।

स्त्री-पुरुष असमानता को नैसर्गिक और उचित ठहराने वाले तर्क वैसे ही कोरे हैं जिस तरह से रंग और नस्ल के आधार पर भेदभाव को सही ठहराने वाले तर्क और इस फेहरिस्त में जातिगत भेदभाव को जोड़ना मत भूलियेगा। इन सभी तरह के भेदभावों को सही ठहराने वालों के तर्क एक से हैं जो इंसानी समानता को नहीं मानते जो निरा बकवास हैं। जिस तरह से किसी ख़ास रंग का पैदा होने से मनुष्य श्रेष्ठ नहीं हो जाता, उसी तरह से स्त्री या पुरुष किसी भी रूप में जन्म लेने से आप श्रेष्ठ या हीन नहीं हो जाते।

लेकिन ये अंतर पैदा किया गया, कारण जो भी हों और इसी के आधार पर कुछ गुणों को स्त्री से जोड़ दिया गया तो कुछ को पुरुष से। उदाहरण के लिए ममता, करुणा वगैरह स्त्री के पाले में गयी तो साहस, वीरता इत्यादि पुरुषों के पाले में। इसी तरह से कार्य का विभाजन कर दिया गया। आर्थिक स्वतंत्रता को भी पुरुषों तक सीमित कर दिया गया।

ये विभाजन उतना ही अनुचित है जितना कि जाति के आधार पर किया गया कार्य और गुणों का विभाजन। ये कहना कि केवल स्त्री के पास ममता इत्यादि जैसे गुण होते हैं और पुरुषों के पास साहस वीरता जैसे गुण उतना ही अनुचित है जितना कि ये कहना कि वीरता केवल एक जाति विशेष का गुण है। सार ये है कि जन्म के आधार पर किसी भी प्रकार की स्टीरेओटाइपिंग करना ही लैंगिक असमानता की शुरुआत है।

लेकिन ये सब बातें इतनी आसानी से स्वीकार की जाने वाली नहीं हैं, खासकर कि हमारे देश में। लैंगिक असमानता के मुद्दे पर बहस हमारे देश में सांस्कृतिक अस्मिता से जुड़ा सवाल है क्योंकि जब आप समाज में स्त्रियों की हालत पर विचार करेंगे, तब बरबस ही नज़र असमानता के इतिहास पर जाएगी। ज्योंही आप सदियों से चले आ रहे भेदभाव पर सवाल उठाते हैं, आपको चीख-चीखकर ये बताया जाएगा कि देखिये, हमारे देश में तो नारी को देवी का रूप माना गया है। वही दुर्गा है, वही लक्ष्मी है, वही सरस्वती है। लेकिन हुजूर सारी दिक्कत इस बात से ही तो है।

मतलब ऐसी भी क्या आवश्यकता है इंसान को देवत्व देने की! और देवत्व देने के बाद क्या होता है? त्यौहार के दिन रस्मअदायगी! वह कौन सा महान तर्क है जिसके आधार पर आधी आबादी को शिक्षा से वंचित कर दिया गया? अब हो सकता है कि आपके मन में दो तीन नाम उभर कर सामने आ रहे हों कि फलाने भी तो विदुषी थीं, लेकिन अपवादों से हम संतोष तो नहीं कर सकते। इन तर्कों से दरसअल सारी कोशिश इस बात को ढंकने की होती है कि हमारे देश में स्त्रियों की हालत दलितों जैसी रही है।

सबसे ख़ास बात जो इस ‘देवीकरण’ के पीछे छुपी हुई है, वह है स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व को नकारने की प्रवृत्ति। हमारे यहां स्त्री हमेशा से किसी न किसी की जागीर मानी जाती रही है, कभी वह पिता के साए में रहती है तो कभी वह पति की ज़िम्मेदारी हो जाती है। ऐसी परतंत्र स्त्री ही हमारे समाज में एक आदर्श पत्नी-बहु इत्यादि मानी जाती है जो अपने स्वतंत्र अस्तित्व को समाप्त कर, अपना सर्वस्व न्योछावर कर दे।

ये बहुत हद तक सच भी है कि “भारतीय नारी” ने देवी के रूप में हुए महिमामंडन को नकारने में देर कर दी। मुमकिन है कि उन्होंने सोचा हो कि देवत्व में क्या बुराई है? लेकिन हो सकता है समय बीतने पर उन्हें कथनी और करनी में फर्क भी समझ आया हो कि कहने को तो देवी हैं लेकिन वास्तविकता तो हमारे इंसानी वजूद को भी नकारा जाता है।

अगर आज़ाद हिन्दुस्तान में स्त्रियों की दशा और दिशा पर विचार करें, तो क्या अभी भी ये सोचना उचित होगा कि एक भारतीय युवती जिसे उसके साथी युवक जितने संवैधानिक अधिकार हैं, देवी मानी जाए? उसकी पूजा की जाए लेकिन वह पर्दा करती रहे? वह चूल्हे- चौके तक सीमित रहे? उसकी भूमिका केवल घर तक सीमित रहे? एक आधुनिक लोकतांत्रिक देश में जो कि समानता की बुनियाद पर टिका है, उसमे तो ये विभाजन कतई स्वीकार्य नहीं हो सकता।

मसला स्त्री-पुरुष के बीच किसी तरह की जंग का नहीं है, अपितु यह मामला बराबरी के सिद्धांत पर आधारित समाज के निर्माण का है। ज़रूरत है हम उन पूर्वाग्रहों को तोड़ें जो किसी के स्त्री या पुरुष होने भर से बना लिए जाते हैं। और इसी क्रम में जरुरत है आर्थिक स्वतंत्रता की, जो कि किसी भी मनुष्य के गरिमामयी जीवन के लिए बहुत आवश्यक है। वह चाहे स्त्री हो या पुरुष।

जहां तक बात है किसी को देवी बनाकर पूजने की तो साहब- उस देवी का मन भी कर सकता है अपने दोस्तों के साथ तालाब किनारे बैठकर, तालाब में पत्थर फेंकने का। उसका भी मन कर सकता है वह सभी काम करने का जिसे आपने उसके स्त्री होने के कारण बंदिश लगाकर रोक दिया है। हकीकत तो ये है जब आप किसी को देवी बना रहे होते हैं उसी पल आप उसकी इंसानी पहचान उससे छीन रहे होते हैं। सकारात्मक बात ये है कि आज की स्त्री देवी बनने से ज़्यादा रूचि अपने अधिकारों को हासिल करने में दिखा रही है और अपने अधिकारों के लिए पहले से ज़्यादा सचेत भी है। अंत में एक बार फिर से यही कहूंगा कि साहब! जिसे आप देवी बना के पूज रहे हैं, वह भी हाड़- मांस की एक इंसान है। उसे इंसान ही रहने दीजिये, उसे इंसानी आज़ादी चाहिए, देवत्व नहीं।

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