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मैं दृष्टिहीन सही लेकिन जो तुम मनहूस कहते हो वो बिल्कुल नहीं

भारतीय समाज में यह सच्चाई एक कठोर और कड़वी अवधारणा के रूप में विद्यमान है कि महिला होना एक तीखा अभिशाप है। लेकिन एक लड़की के लिए यही अभिशाप उस समय दर्द बन जाता है जब वह किसी विकलांगता का शिकार होती है। एक ऐसा दर्द जो किसी स्त्री को विकलांग होने के कारण अपने घर के साथ-साथ बाह्य समाज से भी मिलता है।

मेरे इस प्रकार के विचार के लिए मेरे स्वयं के अनुभव ही ज़िम्मेदार हैं, क्योंकि एक दृष्टिबाधित लड़की होने के कारण मैंने स्वयं इस दर्द को सहा है। वहीं स्कूल एवं कॉलेज के दौरान अनेक दृष्टिबाधित सहेलियों के जीवन से जुड़ी घटनाओं पर आधारित अनुभवों को जानने से भी मेरे विचारों को एक नई दिशा मिली। हमारे समाज में अक्सर लड़कियों के जन्म को एक अशुभ घटना मानकर परिवारों में किसी भी प्रकार के समारोह से परहेज़ किया जाता है। हालांकि शिक्षा के प्रति जागरूकता और विकास की ओर बढ़ते आज के आधुनिक भारत में स्थिति बहुत हद तक परिवर्तित हुई है। लेकिन मुझे लगता है कि स्थिति में यह परिवर्तन केवल उन लड़कियों के लिए हो सकता है जो शारीरिक रूप से योग्य अर्थात जो किसी विकलांगता का शिकार नहीं है क्योंकि विकलांग लड़कियां तो आज भी दयनीय स्थिति में ही जीवन व्यतीत कर रही हैं।

विकलांग लड़कियों की दयनीय स्थिति से मेरा तात्पर्य उस स्थिति से है, जहां उन्हें आज भी पढ़ने लिखने नहीं दिया जाता, उन्हें घर की चारदीवारी में बंद करके रखा जाता है और मनहूस समझा जाता है। साथ ही उन्हें ना तो परिवार और ना ही समाज के अन्य लोगों के साथ घुलने मिलने दिया जाता है।

इस सच्चाई को मैंने उस समय जाना जब मैं दृष्टिबाधित हुई। अर्थात दृष्टिबाधित होने के बाद मुझे यह एहसास हुआ कि मेरा अब उस समाज से कोई सरोकार नहीं है, जहां वो लोग रहते हैं जिनके पास आंखें हैं।

जब भी मैं घर से बाहर निकलती तो मुहल्ले के लोग अक्सर यही बातें करते कि बेचारी के कर्म फूटे हैं, पता नहीं पिछले जन्म में कौन से पाप किये थे। कई बार तो अपने घर में भी किसी झगड़े में कहा जाता था कि मर जाती तो अच्छा होता, पूरे घर को बर्बाद करके छोड़ेगी। इसी तरह के अनुभव मुझे अपनी सहेलियों से भी जानने को मिले।

ग्रामीण इलाके में रहने वाली मेरी एक सहेली की कहानी सुनकर तो मैं दंग रह गई, जब उसने मुझे बताया कि वो दो बहने नेत्रहीन हैं और बचपन में उनकी मां ने उनकी हत्या करने की कोशिश की थी। क्योंकि गांव के लोग उसकी मां को अक्सर यही हिदायत देते थें कि उन्हें मार देना ही अच्छा है क्योंकि आपके परिवार के लिए यह मनहूस है। दृष्टिबाधित लड़कियों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार का यह सिलसिला घर तक ही सिमटकर नहीं रह जाता बल्कि अपने जीवन के भिन्न चरणों व परिस्थितियों में उन्हें ऐसे जटिलतम दुर्व्यवहारों का सामना करना पड़ता है।

चाहे स्कूल हो या कॉलेज, हॉस्टल हो या अन्य सार्वजनिक क्षेत्र, उन्हें ऐसे भेदभावों का सामना करना पड़ता है जो बार-बार इस बात का एहसास दिलाते हैं कि उनकी विकलांगता उनके लिए एक अभिशाप के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

मेरी यह सोच भी मेरे उन अनुभवों पर आधारित है जिसे मैंने सहा और सुना है। जैसे कॉलेज में अक्सर सहेलियां मदद कम एहसान ज़्यादा जताती थीं। कभी कुछ काम करती तो आपस में यही चर्चाएं करती कि यार ब्लाइंड है थोड़ी मदद कर देते हैं, इसी बहाने टीचर्स की नज़रों में आ जाएंगे और हमारा भी भला हो जाएगा।

कभी-कभी तो इस प्रकार का भेदभाव शिक्षकों के द्वारा भी किया जाता था क्योंकि कक्षा में अक्सर इस बात की अनदेखी की जाती थी कि यहां कोई नेत्रहीन विधार्थी भी अध्ययनरत है। इस प्रकार देखें तो दुर्व्यवहारों का यह सिलसिला यहां भी थमने का नाम नहीं लेता।

निजी रूप से चलाए जाने वाले छात्रावास में रहने वाली मेरी एक दृष्टिबाधित सहेली ने जो सच मुझे बताया वो स्तब्ध करने वाला है। उसने बताया कि हॉस्टल में जहां कर्मचारियों की गंदी निगाहें उन पर गड़ी रहती हैं कुछ लोग दान करने के नाम पर कई बार तो उनके कमरों तक आ जाते हैं और कभी छाती तो कभी कमर पर हाथ लगाते हैं।

इससे तो यही ज़ाहिर होता है कि नेत्रहीन लड़कियों के साथ होने वाला दुर्व्यवहार जहां उन्हें मानसिक क्षति पहुंचाता है वहीं उन्हें गहरी शारीरिक प्रताड़नाएं भी देता है। इसके अतिरिक्त अनेक सार्वजनिक क्षेत्रों जैसे कार्यस्थल, सड़कों, बसों, मेट्रो आदि में भी एक दृष्टिहीन लड़की को अनेक कठिनाइयों का समाना करना पड़ता है। इन स्थलों पर लोग मदद करने की बजाए उनकी मजबूरियों का तमाशा देखना ज़्यादा पसंद करते हैं।

अक्सर लोगों के भीतर यही धारणा मौजूद होती है कि एक दृष्टिबाधित व्यक्ति का हाथ पकड़कर मदद करने से कहीं वह अछूत या स्वयं अंधे ना हो जाएं। यह सच्चाई भी मेरे कुछ अनुभवों पर आधारित है। कॉलेज में मेरे एक शिक्षक ने बताया कि उनकी पत्नी जो कि दृष्टिहीन हैं, एक सरकारी कार्यालय में टाइपिस्ट हैं। उनके सारे सहकर्मी उनकी ओर पीठ करके कार्य करते हैं। उन्हें यही लगता है कि एक नेत्रहीन कर्मचारी की ओर मुंह करके कार्य करने से कहीं वो भी उनकी तरह ना हो जाएं।

इसी प्रकार कॉलेज के दौरान ही मेरी एक शिक्षिका ने बताया कि उनकी अन्य सहयोगी शिक्षिकाएं बड़े प्यार से उन्हें अपना खाना खिलाती हैं लेकिन जब वह कभी उनके साथ अपना भेजन साझा करने का प्रयास करती हैं तो वे शिक्षिकाएं कभी भी उनका खाना-खाना पसंद नहीं करती क्योंकि उन्हें यही लगता है कि यह तो नेत्रहीन है पता नहीं सब्ज़ियों के साथ कीड़े-मकौड़ें को तो काट कर नहीं बना दिया होगा।

अंत में इस लेख के द्वारा मैं यही बताना चाहती हूं कि दृष्टिबाधित लड़कियों के साथ होने वाले दुर्व्यव्हार वास्तव में एक ऐसे घाव की तरह होते हैं जो उन्हें परिवार और समाज दोनो से मिलते हैं और यही घाव उनकी स्थिति को बद से बद्तर बना देते हैं।

इस लेख में अपने अनुभवों को साझा करते हुए मुझे यही एहसास हुआ कि दुर्व्यवहारों का यह सिलसिला यदि इसी प्रकार चला तो निश्चित ही दृष्टिहीन लड़कियां यह सोचने पर विवश हो जाएंगी कि इस समाज को उनकी कोई आवश्यकता नहीं है इसलिए उनका जीवन ही निरर्थक है।

अत: इस प्रकार की समस्या से निपटने के लिए ज़रूरी है कि दृष्टिहीन लड़कियों को अशुभ मानने के बजाए उन्हें परिवार और समाज में बराबरी का दर्जा दिया जाए ताकि वह भी अपने जीवन की सार्थकता साबित कर सकें।

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