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“सही सेक्स एजुकेशन की जगह मुझे इस्लामिक भ्रांतियां सिखाई गई”

नहीं! हम लोग सेक्स के बारे में बात नहीं करते। हमें जिस ‘तहज़ीब’ के साथ बड़ा किया गया, उसके तहत सेक्स पर बात करना ठीक नहीं माना जाता। मेरे एक दोस्त ने मुझे बताया कि निकाह की रात तुम्हारा, पत्नी के साथ सेक्स करना ज़रूरी है, नहीं तो उसके बाद होने वाला जलसा ‘हराम’ माना जाएगा। इस तरह के मिथक मैं बचपन से सुनता आ रहा हूं। ज़ाहिर है कि ये बातें ना मैं घर पर पूछ सकता हूं और ना ही किसी मौलवी से, लेकिन मेरे लिए इन सब सवालों के जवाब शादी से पहले खोजना ज़रूरी है।

मैं शादी के बाद तुरंत ही सेक्स नहीं चाहता। मैं मेरी पत्नी को जानना चाहता हूं, ये जानना चाहता हूं कि वो क्या चाहती है और शायद शादी के बाद बच्चा प्लान करने से पहले मैं कॉन्डम इस्तेमाल करना चाहता हूं। पर क्या इस्लाम में कॉन्डम का इस्तेमाल ‘हराम’ नहीं है? ये एक और मिथक है जिसे सुनते हुए मैं बड़ा हुआ हूं। कॉन्डम के इस्तेमाल में कोई बुराई नहीं है और यह एक इंसान का व्यक्तिगत चुनाव है, जैसा कि हम किसी भी और चीज़ के लिए करते हैं।

मेरी बहन अक्सर ‘उन दिनों’ में स्कूल जाने से मना करती थी, वो हमें केवल यह कहती थी कि उसे पेट में दर्द है। ‘मुझे पीरियड्स हो रहे हैं’ ऐसा कहना इस कथित तहज़ीब के खिलाफ जो है, लेकिन क्यों नहीं इसे खुलकर कहा जाए जब आपको इससे तकलीफ हो रही है? हम सभी आपका साथ देंगे। अगर घर पर आप आराम से और खुलकर नहीं कहेंगे तो कहां कहेंगे?

कुछ समय पहले फेसबुक न्यूज़ फीड में “मास्टरबेशन इज़ कूल बट नॉट स्टॉकिंग ए गर्ल” (हस्तमैथुन सही है लेकिन एक लड़की का पीछा करना नहीं) नाम का एक पोस्ट पढ़ा। डॉक्टर और सायकोलॉजिस्ट भी मानते हैं कि कभी-कभी मास्टरबेशन बिलकुल सामान्य है, इसके अपने फायदे और नुकसान हैं। मैंने अपने बचपन में किसी बुज़ुर्ग को यह भी कहते सुना है कि मास्टरबेशन इस्लाम में ‘हराम’ है। लेकिन क्यों? मेरे अन्दर ये सवाल पूछने की हिम्मत नहीं हो रही थी, लेकिन कौन है जो मास्टरबेशन नहीं करता?

मैं ये जानना चाहता था तो मैंने एक मौलवी जी से ये सवाल पूछा और उनका जवाब था,

आप जब मास्टरबेशन करते हैं तो किसी के साथ सेक्स करने की कल्पना करते हैं, आपको गलत चीज़ों को सोचने की क्या ज़रूरत है जब आप एक औरत से शादी कर सकते हैं।

क्या यह जवाब मेरे लिए काफी था? मुझे नहीं पता लेकिन उसके बाद जो उन्होंने कहा वो थोड़ी बेवकूफी भरी बात लगी, उन्होंने कहा कि मास्टरबेशन से याद्दाश्त कमज़ोर हो जाती है। इसके बाद मैं यही सोच रहा था कि अगर मौलवी साहब की बात सही है तो फिर दुनिया के आधे मर्द कमज़ोर याद्दाश्त के मर्ज़ से जूझ रहे होंगे।

मैं एक ऐसे लड़के को जानता हूं जो उसकी सेक्शुएलिटी को लेकर आगे आया और उसने बताया कि वो एक होमोसेक्शुअल (समलैंगिक) है। जैसा कि ज़्यादातर धर्मों में समलैंगिकता को सही नज़र से नहीं देखा जाता, इसलिए उसे भी ठीक से नहीं समझा गया। उसके माँ-बाप को लगा कि वो ‘नॉर्मल’ नहीं है, उसे समझने की बजाए उसे डॉक्टर्स और मौलवी के पास ले जाया गया। इसके बाद वो घर छोड़कर कहीं गायब हो गया। मुझे अभी भी नहीं पता कि उसके माता-पिता को समझाने की ज़रूरत थी या फिर उसे?

एनल सेक्स को भी इसी तरह गलत माना जाता है। केवल इस्लाम में ही नहीं बल्कि कई और धर्मों में भी इसे गलत माना जाता है। इस तरह की बातों पीछे के तर्क पूरी तरह से कल्पना के आधार पर दिए जाते हैं।  इसी तरह एक मिथ और मैंने सुना, “अगर कोई अपनी पत्नी के साथ एनल सेक्स करे तो उसकी शादी ‘हराम’ मानी जाएगी।” मैंने फिर एक पहचान के मौलवी से इस बारे में पूछा तो उन्होंने झुंझलाते हुए कहा, “नहीं ऐसा नहीं है, लेकिन इस तरह से (एनल) सेक्स नहीं किया जाना चाहिए।”

पॉर्न देखना अच्छी आदत नहीं है। मेरे ख्याल से पॉर्न में कोई सच्चाई नहीं है और ये केवल इंसान की कल्पनाओं का एक प्रोडक्ट है, असल ज़िन्दगी में यह मुमकिन नहीं है। विशेषज्ञ पॉर्न ना देखने की सलाह देते हैं और बताते हैं कि इसका सेक्स लाइफ पर बुरा असर पड़ता है। तो क्या हम अपने बच्चों को सेक्स के बारे में पूरी जानकारी नहीं दे सकते कि कल उन्हें सेक्स के बारे में जानने के लिए पॉर्न का सहारा ना लेना पड़े?

आज जहां बच्चों के साथ यौन शोषण और बलात्कार की ख़बरें हर दूसरे-तीसरे दिन सुनने में आती हैं, ये बेहद ज़रूरी है कि बच्चों को इस विषय पर पूरा ज्ञान दिया जाए। उन्हें खुद से ही कयास लगाने से रोकना चाहते हैं तो उन्हें सेक्स के बारे में पूरा ज्ञान भी देना होगा। अगर हम उन्हें ठीक से नहीं बताएंगे तो उन्हें पता भी नहीं चलेगा कि उनके साथ क्या गलत हुआ।

मैं मेरे माता-पिता का एहसानमंद हूं कि उन्होंने मुझे सभी की इज्ज़त करना सिखाया। लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि परिवार में हम साथ बैठकर सेक्स के विषय में बात करते तो और बेहतर होता। मैं ये नहीं कहता कि हर छोटी-छोटी बात बताई जाए लेकिन एक सीमा में रहकर कुछ बेसिक चीज़ों पर तो बात की ही जा सकती है। अगर ऐसा हो तो शायद हमारी ज़िंदगी और बेहतर बन पाए।

फोटो प्रतीकात्मक है।

हिन्दी अनुवाद: सिद्धार्थ भट्ट

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