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मेरा मुहल्ला हिंदू भी था मुसलमान भी था…

भगवा पाप-पुण्य, भगवा देशभक्ति, गाय का दूध, गोबर और मोदी-योगी सरकार: बचपन की बातों से शुरुआत करता हूँ जब बालमन निश्छल और पवित्र हुआ करता था। बचपन में जब गाँव छोड़कर पढ़ाई करने हम क़स्बे में रहना शुरू किए थे तो स्कूल से बाहर का जो समाज हमने देखा उसमें मोटे की चाय और कुन्ने की पान का अहम रोल है! मोटे शब्द से हमें हिन्दू होने का एहसास नहीं होता और कुन्ने लफ़्ज़ ग़ैर-मुस्लिम का ख़ाक़ा नहीं खींचता है। बचपन में गोली-कंचे भी खेले, आइस-पाइस भी खेला, स्कूल में कबड्डी के खेल में हाथ-पैरों में खरोंचें भी आईं, गिल्ली-डंडा भी खेला हूँ-जिसके निशान आज भी बदन पर हैं, लछनिक-लछना और ना जाने कितने गंवईं खेल। क्रिकेट का नशा तो अपनी जगह रहा ही है…कभी नहीं लगा कि कौन लड़का हिन्दू था कौन मुसलमान क्योंकि मज़हब को लेकर कभी बात ही नहीं होती थी।

जब मन हुआ हम अपने बचपन के दोस्तों के घर धमक जाते थे और क्रिकेट का खेल शुरू! सच कहता हूं चाहे मेरे हिन्दू दोस्त के वालिद ठाकुर हों,ब्राह्मण हों, लाला हों, बनिया हों, दलित हों, हरिजन हों कभी नहीं आया दिमाग़ में कि इनके यहां पानी पीना मना है, कुछ खाना-पीना मना है कभी नहीं लगा ऐसा। क्रिकेट के खेल में तो हम लड़कपन से किशोर हो आये थे और तब भी नहीं पता चला था कि क्रिकेट का खेल हमारा कितना वक़्त लील गया है और इसके चक्कर में हमें घर पर कितनी मार खानी पड़ी है। तब भी हम हिन्दू-मुस्लिम के खाँचे में नहीं बंटे थे।

“चाची” शब्द जब आज भी कानों में गूंजता है तो मुझे अपने गाँव के घर के बगल की वही ठकुराइन चाची का चेहरा सामने आता है। सच कहूँ तो ये ऐसे है कि मानो “चाची” एक लफ़्ज़ से ज़्यादा हिंदुस्तानी साड़ी में लिपटी एक ज़िंदा बुज़ुर्ग महिला है जिसे हम बचपन से चाची कहते आए हैं। ईद पर सेवई और होली पर गुजिया का आदान-प्रदान आज भी होता है। माहौल चाहे जितना बदल-बिगड़ गया हो! मोटे की चाय और कुन्ने के पान हम बचपन से ढोते आये। कभी दिमाग़ नहीं ठनका कि मोटे और कुन्ने तो हिन्दू ही हैं। कुन्ने तो आज भी पान लगा रहे हैं जिसकी ढाबली बीते कई दशकों से एक मुस्लिम की दूकान के सामने है। ये है एक सच्ची सहिष्णुता और सच्चे राष्ट्रप्रेम का मेल!

मरहूम ईश्वरलाल गुप्ता जी का धर्म हिन्दू था पर “चाचा” शब्द मानों इनके लिए ही बना था। इतने दिल से मैं कभी अपने सगे चाचा को भी चाचा ना कह पाया। क्योंकि गौरा चौकी में जहाँ मैं पला-बढ़ा…रोज़ शाम में इनका घर पर आना-जाना रहता था। कभी लगा कि ये हिन्दू हैं और हम मुसलमान? नहीं लगा! लगता भी कैसे! मेरा पुश्तैनी घर हिन्दू बाहुल्य इलाक़े में आता है।

एक बार का वाक़या बताता चलूं कि मेरे गांव में हर मंगल को एक बाज़ार लगता है वहां किसी ने गोकशी की घटना को अंजाम दे दिया। ख़ूब हो-हल्ला मचा था; ये यही मरहूम ईश्वरलाल गुप्ता थे जो मौक़ा-ए-वारदात पर मुआयना करने गए थे कि कुछ होनी-अनहोनी ना हो जाए। बाद में ख़ुलासा हुआ था कि कुछ सरफ़िरे लोगों ने इस घटना को अंजाम दिया था जिससे नफरत की आग भड़कायी जा सके। उस न्याय पंचायत के हिन्दू बड़े-बुज़ुर्गों की दानिशमंदी से अराजक तत्व अपने मिशन में नाकाम रहे थे।

आज दिमाग़ में बिजली कौंधती है कि मस्जिद में फजिर की अज़ान के साथ ही मंदिर में भी भजन बजने लगते थे; पर अजान के दौरान लाउडस्पीकर धीमे हो जाते थे और वाल्यूम के कान मरोड़ दिए जाते रहे हैं! ये थी सच्ची सहिष्णुता और सच्चा राष्ट्रप्रेम, जो हिन्दू-मुस्लिम प्रेम और इत्तेहाद के बिना मुमकिन ही नहीं है!

गाँव में जब मन हुआ गेंहू की खड़ी फसल दाने के लिए थ्रेशर मांग लाए, जब मन हुआ भैंस-गायों के थन से दूध ही दुह लाये, जब मन हुआ हमने चना-भेली पहुंचा दिया, जब मन हुआ देसी आमों की पकनारी के गट्ठर हम उनकी चौखट पर पटक आये! पर अब ना वो देसी पकनारी बची है और ना ही वो देसी ठेठ प्रेम जिसकी बयार में फ़िरक़ापरस्त ताक़तें बह जायें! आज पैसा बहुत है पर अंदर से भावनाओं का बवण्डर नहीं उठता, दिल आज हिन्दू-मुस्लिम में तकसीम होता ही चला जा रहा। दिल के अंदर प्यार नहीं मज़हबी दुर्गंध घुसता ही चला जा रहा है!

कैसे भूल सकता हूँ कि किशोरावस्था से जवानी तक अपने अगड़े-पिछड़े, दलित-हरिजन, बैकवर्ड दोस्तों के साथ मिलकर हम हर आने वाली 26 जनवरी और 15 अगस्त को अपने घरों पर ख़ुद अपने हाथों से तिरंगा फहराया करते थे। वो दिन मुझे याद है जब अपने हरिजन दोस्त के घर जब हमने चाय पी थी तो आंखों में आँसू भरकर कैसे उसने मुझे भींचकर गले लगाया था। कैसे अपने ब्राह्मण दोस्त के घर हम अक़्सर अंदर तक धमक जाते थे। तब कोई नहीं पूछता था कि तुम माँसाहारी हो और वो शाकाहारी है। तब खान-पान की आज़ादी मज़हबी आज़ादी पर आड़े नहीं आती थी!

पाप-पुण्य का पाठ अगर मैंने किसी से अपने जीवन में पहली बार पढ़ा है तो वो कानपुर से हर हफ़्ते गौरा चौकी आने वाले हिन्दू वैश्य ही थे जो सामानों की आपूर्ति के लिए आते थे और उस दिन मैं छत पर था। उनसे किसी बात पे छोटी-सी झूठ बोली थी और उन्होंने नीचे ही से कहा था कि बेटा “झूठ बोलना पाप है” इसी दिन से मुझे दिल से एहसास हुआ था कि झूठ बोलने से ईश्वर रुष्ट हो जाता है! मैं कितना खोलकर कह दूँ कि नहीं था ऐसा निज़ाम वरना लिखता ज़रूर कि जब 1992 में बाबरी मस्जिद ढहा दी गयी थी हमारे इलाक़ों में दंगे क्यों नहीं हुए जबकि अयोध्या ज़्यादा दूर नहीं है क्योंकि वो हिन्दू हो या मुस्लिम लोगों का मिज़ाज ही नहीं रहा है दंगे का, मार-काट का। वरना बाबरी मस्जिद की शहादत ग़लत है तो ग़लत है और हिन्दू-मुस्लिम के बीच का प्यार सही है तो सही है। बाबरी मस्जिद के इन्हेदाम के काफ़ी दिन बाद मेरा हिन्दू ब्राह्मण दोस्त मुझे उस जगह पर ले गया था जहां मस्जिद ढहा दी गयी थी और हम वापस लौट आये थे। कहाँ थी रंज़िश, कहाँ थी राजनीति, कहाँ थी धर्मांधता ये सब था उन मुट्ठी भर दंगाइयों के दिलों में जो फावड़ा लेकर चढ़े थे बाबरी मस्जिद की गुम्बद के ऊपर इसे ढहाने के लिए।

मैं ख़ुद बचपन से ही कट्टर भारतीय क्रिकेट समर्थक रहा हूं। बचपन की वो बात मुझे आज भी याद है कि जब भी भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच होता एक प्रकाश भाई हैं कट्टर भारतीय समर्थक और एक मुल्ला जी मदीना वाच हाउस कट्टर पाकिस्तानी क्रिकेट समर्थक…अक़्सर साथ-साथ मैच देखते। बिजली चली जाती तो बैटरी का इंतज़ाम किया जाता। ख़ूब हल्ला मचता था। लेकिन पाकिस्तान का समर्थन करने वाले मुल्ला जी को मार तो नहीं डाला गया। हां! तब गौ-रक्षक सेना नहीं थी, मोदी-योगी की हुकूमत नहीं थी, सब भाई-भाई थे, बीच का कोई कसाई नहीं था जो गाय के नाम पर एक मुसलमान का वध कर दे। तब गाय-गाय थी और इंसान-इंसान। दूध दुहने के लिए मुसलमान भी गाय रख सकता था; पर आज तो गाय की तरफ़ घूरना भी एक मुसलमान के लिए हराम है!

एक बार मनकापुर से होकर मैं अपने एक ब्राह्मण दोस्त के साथ इलाहाबाद जा रहा था। साधन ढूंढने के दौरान जब टैम्पो वाले को ये बात पता चली कि वो हिन्दू है और मैं मुसलमान तो वो तपाक से बोल पड़ा था कि ये तो अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ और राम प्रसाद बिस्मिल की जोड़ी है। इसका एहसास आज मुझे होता है जब चहुंओर नफ़रतों का साया है और अब कहीं यात्रा करना या आना-जाना भी ख़ालिस अपने ही धर्म के लोगों के साथ होता है!

अल्लाह का शुक्र है कि मुझे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ने का मौक़ा मिला; वरना ज़िंदगी का एक पन्ना कोरा रह जाता। इस इदारे ने हमें प्रैक्टिकल लाइफ़ जीना सिखा दिया। इस मादरे इल्मी ने हमें इतना पुख़्ता और मज़बूत बना दिया है कि कोई किसी को सोने के सिक्कों और अशर्फ़ियों से तौल दे तब भी ये नेमत उसे हरगिज़ मिल नहीं सकती है।

ये उस बाबा-ए-क़ौम सर् सैय्यद के इस इदारे की ही देन है कि मुसलमानों के बीच मुनाफ़िक़ों(कपटी) का चेहरा कैसा होता है ये पहचान में आ गया है, वरना हम सुने थे के मुनाफ़िक़ होता है; पर ये मुनाफ़िक़ कैसा होता है ये यहां आकर रगड़ते-रगड़ते मालूम पड़ा है। एक दुख और है कि यहां पढ़ने वाले हमारे हिन्दू भाइयों का बर्ताव एक-दूसरे के लिए मोहब्बतों से भरा है; पर इस इदारे का तालीमयाफ़्ता हमारा बेश्तर हिन्दू भाई डिग्री लेने के बाद यहां से जाते ही अमूमन RSS/BJP का ही पुजारी/प्रशंसक क्यों बनता है—इसका निचोड़ निकाल पाना अभी बाक़ी है!

इतना सब लिखने का मक़सद यही है कि मोदी जी राष्ट्रभक्ति को हिन्दू-मुस्लिम चश्मा लगाकर कब तक परिभाषित करते रहेंगे जबकि ये इस मुल्क की हवा में है ही नहीं कि मज़हबी रंग का चोला पहनकर ही आप अपनी हुब्बुलवतनी साबित कर सकते हैं! कृपया कर ये चोला और ये सनद अपने पास रखिए, हिंदुस्तान की अवाम को गृहयुद्ध की तरफ़ मत धकेलिये मोदी-योगी जी!

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