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कश्मीरी पंडितों का पलायन क्या इस देश के लिए अब महज़ बहस का मुद्दा रह चुका है

1986, सिख समुदाय के लिये हालात बहुत सामान्य नहीं थे, इसलिए परिवार के साथ हमेशा के लिए पंजाब जाना तय हुआ। उस दौरान हुई तकलीफों से समझ आया कि पलायन एक दौड़ रही ज़िंदगी को रोकने के साथ-साथ और भी बहुत सी समस्याओं को जन्म देता है। इसलिए मैं, जहां-जहां भी पलायन हुए उनके बारे में अक्सर अध्ययन करता रहता हूं।

वास्तव में पलायन उन कई श्रेणीबद्ध घटनाओं का नतीजा है, जो अपनी गंभीरता को दर्ज तो नहीं करवाते, लेकिन पलायन की नींव रखते हैं। इस तरह पलायन के बारे में अक्सर लोग अपनी व्यक्तिगत राय और कारणों को सामने रखकर दोषमुक्त हो जाते हैं। लेकिन अपनी व्यक्तिगत राय रखने से ज़्यादा ज़रूरी उन सभी तथ्यों को ईमानदारी से परखा जाना है, जो पलायन के लिये ज़िम्मेदार होते हैं। साथ ही पलायन के समयकाल में उस जगह को प्रभावित करने वाली अन्य घटनाओं का भी अध्ययन बहुत ज़रूरी है।

19 जनवरी 1990, की रात कश्मीर की तेज़ सर्द हवा का रुख बदल रहा था। श्रीनगर की सड़कों पर लाउडस्पीकर के माध्यम से हज़ारों की भीड़, कश्मीरी पंडितों के अल्पसंख्यक समुदाय को बता रही थी कि वह वादी छोड़कर चले जाएं। उन्हें तीन ऑप्शन दिए गए थे, एक कि धर्म परिवर्तन कर लें या दो कि वो वादी छोड़ कर चले जाएं अन्यथा तीन कि वो ख़त्म होने के लिये तैयार रहें। वहीं मुस्लिम समुदाय से गुहार लगाई जा रही थी कि वो अपनी गुलामी की बेड़ियों से बाहर निकलें।

ये सारा माहौल डर पैदा कर रहा था। जहां एक तरफ आज़ादी के गीत गाए जा रहे थे, वहीं अल्पसंख्यक समुदाय को काफिर कहकर आखिरी रास्ता चुनने की चेतवानी दी जा रही थी। नतीजन अगले कुछ दिनों में वादी में एक ख़ास पहचान रखने वाले कश्मीरी पंडित अपना घर-बार सब कुछ छोड़कर, कश्मीर से पलायन कर रहे थे। आज तकरीबन 27 साल बाद भी वो फिर कभी वापस घाटी नहीं गए। पहली नज़र में इस घटना के पीछे उस रात कश्मीरी आंतकवादियों द्वारा की जा रही घोषणा और उसका डर ही मुख्य वजह लगती है। लेकिन वास्तव में इसे समझने के लिए हमें उस वक़्त के पाकिस्तान, भारत और कश्मीर के हालात को समझना होगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि ये पाकिस्तान ही है जो घाटी में आंतकवाद को समर्थन देने के साथ-साथ प्रोत्साहित भी कर रहा है। लेकिन इसकी शुरुआत कब और कैसे हुई?

70 के दशक के आखिरी सालों में पाकिस्तान बदल रहा था, ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को सत्ता से बेदखल कर फांसी पर चढ़ा दिया गया था और पाकिस्तान पर तत्कालीन सेना प्रमुख ज़िया उल हक काबिज हो चुके थे। ये किसी से छुपा नहीं है कि ज़िया उल हक के शासन के दौरान किस तरह पाकिस्तान को एक कट्टर इस्लामिक देश बनाने की नींव रखी गयी। मकसद था जिहाद के नाम पर ऐसे लड़ाकों को तैयार करना जो अफगानिस्तान में मौजूद उस समय की सोवियत संघ की सेना से दो-दो हाथ कर सकें।

इस मुहिम में पर्दे के पीछे रहकर अमेरिका भी पाकिस्तान का साथ दे रहा था। लश्कर-ऐ-तैयबा और हरकत-उल-मुजाहिदीन जैसे आतंकवादी संगठनों की नींव पाकिस्तान में ही रखी गई जिन्हें आई.एस.आई. का पूर्ण समर्थन प्राप्त था। अब इन्हीं संगठनों ने अफगानिस्तान में सोवियत सेना के विरुद्ध जीत हासिल करने के बाद, अपना रुख कश्मीर की तरफ किया। वहीं हिजबुल मुजाहिदीन और जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट जैसे कई संगठन कश्मीर में पहले से मौजूद थे। 1987-88 में आंतकवादी हमलों से इन संगठनों ने अपनी मौजूदगी का एहसास भारत की केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों को करवा दिया था।

इसी दौरान 1984 और 1989 की राजीव सरकार के कार्यकाल में पंजाब एक गंभीर समस्या बनकर उभरा था और दिल्ली का पूरा ध्यान इसी ओर था। वहीं ये सरकार बोफोर्स घोटाले, भोपाल गैस कांड, श्रीलंका में भारतीय सेना को भेजना, इत्यादि मुद्दों में ज़्यादा व्यस्त थी। फिर 1989 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के समर्थन वाली वी.पी.सिंह की सरकार दिल्ली पर काबिज़ हुई।

ये वह वक़्त था जब भारत को एक कट्टर हिंदू देश बनाने की कवायद शुरू हो चुकी थी और इसी की बदौलत राम जन्मभूमी के मुद्दे के साथ भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई। 1989 और 1991 के बीच आपसी कलह के कारण कमज़ोर हो चुकी केंद्र सरकार से भाजपा ने अपना समर्थन वापस लेकर वी.पी. सिंह की सरकार को गिरा दिया। इसके बाद कांग्रेस के समर्थन से बनी चंद्रशेखर की सरकार का कार्यकाल भी 4 महीने तक सीमित रह गया। तो एक तरह से कहा जा सकता है कि इस दौरान भारत में केंद्र सरकार का नेतृत्व बेहद कमज़ोर था।

1989 की वी.पी. सिंह सरकार में कश्मीरी नेता मुफ़्ती मोहम्मद सईद भारत के गृहमंत्री थे और जम्मू-कश्मीर राज्य में नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फ़ारूक़ अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे। केंद्र सरकार के गठित होने के कुछ ही दिनों बाद मुफ़्ती मोहम्मद सईद की छोटी बेटी का कश्मीर के आतंकवादियों द्वारा अपहरण किया गया और इसके बदले, अपने साथियों को जेल से छुड़वाने की मांग रखी गयी, जिसके सामने वीपी सिंह सरकार ने घुटने टेक दिए।

इस घटना से जहां आंतकवादियों का हौसला बुलंद था तो वहीं केंद्र सरकार कमज़ोर लग रही थी। इसी बीच श्री जगमोहन को कश्मीर का राज्यपाल बनाकर भेजा गया, जिसका कड़ा विरोध तत्कालीन मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ने अपना इस्तीफा देकर किया। राज्य की पहले से ही चरमरा चुकी व्यवस्था, हुक्मरान की नामौजूदगी में नियंत्रण से बाहर हो चुकी थी। इस मौके का पूरा फायदा उठाते हुए आंतकवादी संगठनों ने 19 जनवरी 1990 की रात को कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ने का फरमान सुना दिया।

इस घटना के 27 साल बाद अब कश्मीरी पंडितों का पलायन बस एक चुनावी मुद्दा ही बनकर रह गया है। शायद आज शेष भारत इस पलायन को भूल चुका है क्योंकि ना इनके पुनर्वास की किसी नीति को केंद्र या राज्य सरकारों ने अंजाम दिया और ना ही इनकी कोई खोज-खबर ली गई। निश्चित रूप से इस घटना का ज़िम्मेदार पाकिस्तान और अलगाववाद तो है ही, लेकिन 1984 से 1990 तक की केंद्र और राज्य सरकारें भी इसके लिए उतनी ही ज़िम्मेदार हैं, जो समय रहते घाटी के हालातों को समझ नहीं पाए।

फोटो आभार: getty images

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