सामाजिक समरसता की भाजपाई चादर के पैबंद झलके बिना नहीं रहते। दलित राष्ट्रपति बनाकर भाजपा ने इस मोर्चे पर बहुत बड़ा तीर मार लेने का मुगालता भले ही पाल लिया हो लेकिन दलित इसके बावजूद वर्ण व्यवस्थावादी हिंदुत्व को मानने वाली इस पार्टी से अपने को छला महसूस किए बिना रह नहीं पा रहे। इसकी ताज़ा मिसाल हरियाणा में सामने आई।
चंडीगढ़ में हरियाणा सरकार द्वारा भीम स्टेडियम में आयोजित स्वतंत्रता दिवस कार्यक्रम में भाजपा के दलित विधायक विशंभर वाल्मीकि अपने साथ दोयम दर्जे के व्यवहार का खून का घूंट पी नहीं पाए, जिससे उन्होंने अपनी नाराज़गी को सार्वजनिक कर दिया। जिसके बाद पार्टी की हालत तमाशा बन गई।
भाजपा में काम करने वाले दलित नेताओं के मोहभंग का यह पहला मामला नहीं है। सामाजिक अाधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत इस वर्ष अपने गृह राज्य मध्य प्रदेश में अंबेडकर जयंती के सिलसिले में एक सभा को जब संबोधित कर रहे थे तो उनका दर्द छलक कर ज़ुबान पर आ गया। उन्होंने साफ कहा कि अभी तक दलितों के प्रति हेय दृष्टिकोण को नहीं बदला जा सका है। कहते-कहते वे इस कदर तल्ख हो गये कि यह विचार भी न कर सके कि जिस हकीकत को वे बयान कर रहे हैं उससे फिलहाल सरकार में होने के कारण सबसे ज्यादा दुर्दशा उनकी पार्टी की होगी।
थावरचंद गहलोत ने कहा कि छुआछूत और तिरष्कार के व्यवहार से दलितों को अभी भी मुक्ति नहीं मिल पाई है। तालाब वे खोदते हैं और इस दौरान उनका पसीना तालाब में गिरता है। यहां तक कि वे उसी में पेशाब भी करते रहते हैं लेकिन वही तालाब जब तैयार हो जाता है तो उसका पानी लेने का अधिकार उन्हें नहीं रह जाता।
दलितों को पानी लेकर तालाब की पवित्रता को प्रभावित न होने देने के लिए जातिगत दंभ के शिकार समाज के शक्तिशाली वर्ग लाठी लेकर खड़े हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि कैसी विडम्बना है कि जिस पत्थर को तराश कर दलित भगवान बनाते हैं,उसे स्थापित किए जाने के बाद दलितों को ही उस मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता।
इस कड़वा सच बोलने की थावरचंद गहलोत को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। कहा जाता है कि भाजपा में पहले उन्हीं का नाम नये राष्ट्रपति के लिए विचाराधीन हुआ था, लेकिन जब उनका यह स्वाभिमानी स्वरूप प्रकट हुआ तो उनका पत्ता काट दिया गया। थावरचंद गहलोत क्या हैं, सोशल इंजीनियरिंग की थ्योरी लेकर भाजपा की जाम पींगें आसमान की बुलंदी तक उछालने में सबसे मुख्य योगदान देने वाले गोविंदाचार्य तो ब्राह्मण थे, लेकिन आज भाजपा में कोई उनको याद करने वाला नहीं है। वजह यह है कि उन्होंने अपने आचरण और फैसलों से यह साबित कर दिया था कि सोशल इंजीनियरिंग का उनका विचार दिखावा भर नहीं है बल्कि वे इस विचार को नये समाज को गढ़ने के लिए मूर्त रूप देने को कटिबद्ध है। इसके बाद उनका हश्र होना तय था।
जिस ईमानदारी की पूंजी को भाजपा का नेतृत्व अपनी सबसे बड़ी पूंजी बता रहा है क्या उसमें गोविंदाचार्य के सामने कोई टिकने वाला है। डींगें हांकना और बात है लेकिन गोविंदाचार्य के आर्थिक विचार किसी कॉरपोरेट के यहां बंधक नहीं थे और अभी भी आरएसएस में तमाम लोग ऐसे हैं जो अपनी ही सरकार की रीति-नीति से गोविंदाचार्य जैसे विचारों के कारण ही खुलकर भिड़ जाते हैं। लेकिन वे सब आवाज़ें उनका चाहे जितना त्याग हो, चाहे जितना समर्पण हो नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बना दी गई हैं। यह कोई विरोधाभास नहीं है बल्कि यह भाजपा को नियंत्रित और संचालित करने वाले वर्ग की माइंडसेट की असलियत है।
इन दिनों भाजपा के ब्रांड एंबेसडर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बाबा साहब अंबेडकर के प्रति बड़ा भक्तिभाव दिखाते रहे हैं। हालांकि कुछ दिनों से उन्होंने बाबा साहब के जाप पर चुप्पी साध ली है। फिर भी उन्हें यह याद दिलाना मुनासिब होगा कि इसी तरह के दोहरे व्यवहार पर बाबा साहब ने महात्मा गांधी से गहरी आपत्ति कई बार जताई थी। महात्मा गांधी ने जब अछूतों को मान-सम्मान देने के लिए हरिजन कहकर पुकारा था तो बाबा साहब के सुर बहुत कड़वे हो गए थे। उन्होंने कहा था कि मिस्टर गांधी दलितों को करुणा की वस्तु समझते हैं जबकि उन्हें भी आत्मसम्मान और आत्मनिर्णय का अधिकार होना चाहिए। शब्द ब्रह्म होते हैं लेकिन उस समय उनके शब्द ब्रह्म के मर्म को समकालीन विद्वान पकड़ नहीं पा रहे थे और वे उनकी भाषा को दलितों के मामले में उनकी कट्टर और हठधर्मी भाषा का नमूना साबित करके पिंड छुड़ा ले रहे थे। लेकिन बाबा साहब के इन विचारों में गहरे अर्थ छुपे थे।
उत्तर प्रदेश के एक समय के राज्यपाल सूरजभान, संघ के खांटी कार्यकर्ता थे लेकिन जब वे दलितों के आत्मसम्मान के लिए अड़ने लगे तो कल्याण सिंह सहित पूरी पार्टी उनके विरोध में खड़ी हो गई और वे पार्टी में अकेले पड़ गये। वीपी मौर्या और संघप्रिय गौतम को भाजपा में बहुत कुंठाग्रस्त होना पड़ा। जो समय-समय पर उनकी कटुतम प्रतिवादी प्रतिक्रियाओं से जाहिर होता रहा।
दलित नेतृत्व को लेकर भाजपा की निगाह में कौन सा मॉडल सर्वोपरि है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण रामनाथ कोविंद हैं। उन्हें भाजपा नेतृत्व ने इसीलिए राष्ट्रपति बनाया है कि वे सुग्रीव परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिन्हें स्वतंत्र जनजाति राज्य का राजा बनने के बाद यह कहते हुए शर्म नहीं आयी कि मो सम दीन न मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर…
कोविंद जी को राष्ट्रपति बनाकर भाजपा ने दलितों के प्रति अपना कृतार्थ करने वाला भाव भी सार्वजनिक जीवन में पुष्ट साबित कर दिया और यह भी सुनिश्चित कर लिया कि ऐसा विनीत दलित नेतृत्व वर्ण व्यवस्था को कोई नुकसान नहीं होने देगा।
यह अकेले कोविंद जी की बात नहीं है। भाजपा में सुरक्षित क्षेत्र से जिनको सांसद और विधायक बनने का अवसर दिया जाता है उनमें से अधिकांश विनय पत्रिका के वाचक होते हैं। माननीय बन जाने के बाद भी उनकी नियति होती है कि भले ही उनकी उम्र 80 वर्ष हो लेकिन सामाजिक सत्ता के अधिनायकों के 10 वर्ष के बच्चे के भी सामने वे उसे देखते ही दंडवत होने को तत्पर हो जाते हैं। ज़ाहिर है कि ऐसे मनोबल के जनप्रतिनिधि नेता होने के अपने ओहदे को कैसे सार्थक साबित कर सकते हैं।
जान लेते हैं हरियाणा के भिवानी जिले के बबानीखेड़ा निर्वाचन क्षेत्र के विधायक विशंबर वाल्मीकि के गुस्से की वजह। 15 अगस्त के दिन चंडीगढ़ में भीम स्टेडियम में हरियाणा सरकार ने स्वतंत्रता दिवस कार्यक्रम का जलसा धूमधाम से आयोजित किया था। इसमें विशंभर वाल्मीकि भी पहुंचे। लेकिन उन्हें मंच पर बैठने की जगह नहीं दी गई। विशंभर वाल्मीकि दलित होने के नाते हर बड़े कार्यक्रम में दूसरों के सामने अपने प्रति होने वाले उपेक्षापूर्ण व्यवहार का दंश काफी समय से महसूस कर रहे थे। इसलिए उनका गुस्सा इस बार फट पड़ा।
उन्होंने कहा कि उनको अभी भी गुलाम समझा जा रहा है। यह बर्दाश्त नहीं होगा। वे कार्यक्रम से वापस जाने लगे। भाजपा नेता और अधिकारी उनकी चिरौरी करने के लिए दौड़े।
बाद में वे बड़ी मुश्किल से वापस लौटे तब प्रशासन ने मंच पर उन्हें विधायक घनश्याम सर्राफ के पास बैठाने की व्यवस्था की और कहा कि उनके लिए मंच पर पहले से ही स्थान आरक्षित था पर दूसरे कार्यकर्ता उनकी कुर्सी पर बैठ गये। जिससे उन्हें इस कष्टकर स्थिति का सामना करना पड़ा।
यह केवल लीपापोती की बात है। अगर बैठ गये थे तो भाजपा में यह संस्कार होना चाहिए था कि सांसद और विधायक के आने पर साधारण कार्यकर्ता उन्हें कुर्सी देने के लिए जगह खाली करते और अगर वाल्मीकि दलित न होते तो ऐसा होता भी। लेकिन दलित नेता को क्या सिर चढ़ाना चाहे वह सांसद और विधायक क्या मंत्री भी हो जाए। ऐसी मानसिकता की बू निश्चित रूप से बहुत गलत है। इसे सामाजिक समरसता के नाम से महिमामंडित करना धूर्तता है।
वैसे प्रश्न यह आ सकता है कि अगर दलित और पिछड़े स्वेच्छा से अपने दोयम दर्जे का वरण करके भारत की सांस्कृतिक व्यवस्था के लिए त्याग करने को तैयार हैं तो आप उनको क्यों भड़काना चाहते हैं। उनको भड़काना देशद्रोह का भी दूसरा नाम हो सकता है। लेकिन ऐसे देशप्रेम की वजह से ही यह देश अतीत में खंड-खंड रह चुका है और ऐसे देशप्रेमियों के आधुनिक वंशजों की यह हालत है कि अगर सरदार बल्लभभाई पटेल ने रियासतों का विलय करके विराट भारतीय संघ बनाने में मजबूती न दिखाई होती और ज्यादातर रियासतों को आजादी के बाद स्वतंत्र राष्ट्र घोषित करवाने के षड्यंत्र में अंग्रेज कामयाब हो गये होते तो ये लोग भारतमाता की जय बोलने की बजाय अमुक रियासत की जय बोलते।
दूसरी बात यह है कि नस्लवाद का सिद्धांत पूरी दुनिया में अवैज्ञानिक साबित किया जा चुका है। जिन अंग्रेज़ों ने हमें नालायक बताकर हमारे ऊपर लंबा शासन किया उन्हीं के देश में आज हमें सर्वोच्च शासक के दावेदार के रूप में भी स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं की जा रही (अथ अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में बॉबी जिंदल की उम्मीदवारी)। तो कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी कौम में और किसी भी परिवार में ईश्वर प्रतिभाएं पैदा कर सकता है इसलिए हर व्यक्ति देश की धरोहर है। उसकी क्षमताओं के पल्लवित होने का पूरा अवसर दिया जाए, ऐसा वातावरण सच्ची देशभक्ति के लिए आवश्यक है। ताकि हमको देश चलाने के लिए समाज का बेस्ट मेटेरियल उपलब्ध हो सके।
जातिवादी मानसिकता की बेवकूफी से अगर पहले की तरह अन्याय होता रहेगा तो लायक प्रतिभाओं के आगे न आ पाने और कुल-जाति के आधार पर नालायक से नालायक लोगों को अधिकार संपन्न पद दिए जाने के सिलसिले के चलते बाहरी शक्तियों की चुनौती के आगे हमें अतीत की तरह फिर पस्त होना पड़ेगा। क्या इस पर ईमानदारी से विचार करने के लिए लोग तैयार हैं।