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कुछ यूं बने भारत-पाकिस्तान बंटवारे के हालात (भाग-4)

1946 में बिहार और मालाबार में भड़की हिंसा से, कोलोनियल (ब्रिटिश) फोर्सेज़ में शामिल भारतीय जवानों में असंतोष बढ़ रहा था। इसी वजह से इन सभी फोर्सेज़ की ईमानदारी पर संदेह होना लाज़मी था। ऐसे भी संकेत मिलते हैं कि ब्रिटिश सरकार ने रिटायर हो चुके जवानों से हथियार वापस नही लिए थे। बेजान हो चुके बॉम्बशेल और केमिकल को आम लोगों को बेचे गए, जिनका इस्तेमाल बंटवारे के समय भड़की हिंसा में किया गया।

इसी समय आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) ने अपनी शाखाओं और कार्यकर्ताओं की संख्या में भारी बढ़ोतरी की। ख़ास बात ये थी कि रेलवे कर्मचारी, रिटायर्ड सुरक्षा कर्मचारी इत्यादि जो किसी ना किसी तरह व्यवस्था से जुड़े हुए थे, आरएसएस की तरफ आकर्षित हो रहे थे। पंजाब में आरएसएस विशेष रूप से सक्रिय था। एक अनुमान के मुताबिक दिसम्बर 1946 तक पंजाब में आरएसएस के कुछ 1000 कार्यकर्ता थे जिनकी संख्या कुछ ही महीनो में 47,000 के करीब पहुंच गई थी। आरएसएस के मुख्य दफ़्तर नागपुर और इसके आस-पास के क्षेत्रों में कई संघ के कार्यकर्ताओं को हथियार चलाने की ट्रेनिंग दी जा रही थी। जून 1947 तक सिर्फ पंजाब में ही संघ की 17 नई शाखाएं खुल चुकी थी और संघ के कार्यकर्ताओं की संख्या लगभग 59,200 तक पहुंच चुकी थी।

बंटवारे की तस्वीरें; 1- अमृतसर का सैनिक अस्पताल, फोटो आभार: getty images  2- अमृतसर से पलायन करते अफगान व्यवसायी,फोटो आभार: getty images

इस समय आरएसएस के साथ-साथ हिंदू स्काउट्स वॉलंटियर कॉर्प्स (HSVC) और अकाल सभा (एक रेडिकल) सिख संस्था पंजाब में काफी सक्रिय थी। गोरखा रेजिमेंट के कुछ रिटायर्ड सुरक्षा कर्मचारी जो युद्ध का अनुभव रखते थे, वे इस तरह के गुटों को युद्ध नीति और फौजी प्रशिक्षण दे रहे थे। (जानकारी का श्रोत: Secularism, Decolonisation, and the Cold War in South and Southeast Asia)
आरएसएस की इन संदिग्ध गतिविधियों को देखते हुए 24 जनवरी 1947 में पंजाब सरकार ने आरएसएस और साथ ही मुस्लिम लीग नेशनल गार्ड (MLNG) की सारी गतिविधियों पर पाबंदी (ban) लगा दी। सरकार के इस कदम का तीखा विरोध हुआ और 28-जनवरी 1946 को आरएसएस और MLNG से बैन हटा लिया गया। अंग्रेज सरकार का आरएसएस और मुस्लिम लीग नेशनल गार्ड को लेकर लिखित बयान कुछ इस तरह से था- “both these were trouble-spreading agencies and for this reason and others which are obvious, are potentially very dangerous.” (यह दोनों ही संस्थाएं तनाव फैलाने वाली संस्थाएं हैं, इस कारण और कुछ अन्य कारणों से यह दोनों ही संस्थाएं काफी खतरनाक साबित हो सकती हैं।)

पंजाब में साम्प्रदायिक तनाव का माहौल था और कोई भी छोटी सी घटना हिंसा भड़काने के लिए काफी थी। 24 फरवरी 1947 को अमृतसर में एक सिख पुलिस कर्मचारी की हत्या कर दी गयी जिसका शक सीधा मुस्लिम लीग पर गया। इस घटना के बाद पंजाब में सिख और मुस्लिम एक दूसरे के सामने आ खड़े हुए। कुछ इसी तरह की घटना रावलपिंडी में भी हुई। 5-6 मार्च की सुबह क़ुरान के कुछ पेज रावलपिंडी की गलियों में बिखरे हुए थे, लेकिन खाकसार ग्रुप की कोशिशों से हिंसा ताल गई। ये वही खाकसार ग्रुप है जो मुस्लिम लीग और पाकिस्तान का विरोध करता था, इस घटना के पीछे भी आरएसएस का हाथ होने का शक था।

जनवरी और फरवरी 1947 में कई ऐसी छोटी-बड़ी घटनाएं हुई जिसका खामियाज़ा हिंदू और सिख समाज को भुगतना पड़ा। इसका सीधा शक मुस्लिम लीग और मुस्लिम समाज पर गया, इन घटनाओं से अकाली दल और मुस्लिम लीग के बीच भी राजनीतिक फासले और ज़्यादा बढ़ गए। एक समय ऐसा भी आया जब खुले तौर पर सिख नेता मुस्लिम लीग पर आरोप लगाने लगे कि ये पाकिस्तान की मांग से ज़्यादा साम्प्रदायिक हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं। लेकिन सिख और मुस्लिम समुदाय में बढ़ रही दूरियों से किसे फायदा होता? सोचने वाली बात है कि आखिर उस रिपोर्ट क्या था जिससे सरकार को मुस्लिम लीग नेशनल गार्ड और आरएसएस पर बैन लगाना पड़ गया? ये बात तय थी कि मुस्लिम और सिख समुदाय के मतभेदों से आरएसएस मजबूत हो रही थी।

02-मार्च-1947, को पंजाब की यूनियनिस्ट सरकार को बर्खास्त कर दिया गया लेकिन मुस्लिम लीग भी अपना बहुमत साबित नहीं कर पाई। मुस्लिम लीग अकाली दल को साथ लेकर सरकार बनाने की कोशिश कर रही थी लेकिन ऐसा नही हुआ। इससे मुस्लिम लीग और जिन्ना की उन कोशिशों पर भी पानी फिर गया, जंहा वे मुस्लिम और सिख समुदाय को एकजुट रख पंजाब का बंटवारा रोकना चाहते थे। इसी बीच सिखों हिन्दुओं और विद्यार्थियों ने पुरानी अनारकली लाहौर में एकत्रित होकर पाकिस्तान का विरोध किया। एकबार फिर सिख और मुसलमान आमने सामने थे, नतीजतन हिंसा भड़क उठी और 05 मार्च 1947 को पंजाब में गवर्नर रूल लगा दिया गया।

सिख संगठन पंथक पार्टी इस बात का ऐलान कर चुकी थी की आखरी समय तक पाकिस्तान बनाने का विरोध किया जाएगा। इसी बीच दो बड़ी घटनाएं हुई। 04 और 05 मार्च 1947 को मुस्लिम समुदाय द्वारा पंजाब में खासकर लाहौर और अमृतसर में सिख और हिंदू समुदाय पर हमला किया गया। इन्ही दिनों मुसलमान समुदाय द्वारा रावलपिंडी, सरगोधा, मुल्तान, झेलम और कैंपबेलपुर में सिख और हिन्दू समुदाय पर धावा बोल दिया गया। एक अनुमान के मुताबिक साम्प्रदायिक हिंसा की इन घटनाओं में लगभग 2090 लोगों की जान गई और 1400 लोग घायल हुए।

अब तक करीब 40,000 सिख और हिन्दू, रिफ्यूजी कैंपों में शरणार्थियों की तरह रहने को मजबूर थे। कानून व्यवस्था चरमरा गई थी, हालात पर काबू पाने के लिए पेट्रोल और डीज़ल की बिक्री पर रोक लगा दी गयी थी। आवाजाही को रोकने के लिए अमृतसर और लाहौर के बीच ट्रेन को भी रोक दिया गया था। इसी दौरान अगले एक हफ्ते में सिर्फ अमृतसर और आस पास के इलाकों में मुस्लिम समुदाय की करीबन 4,000 दुकानों और व्यापारिक संस्थानों को जला दिया गया।

इन घटनाओं की प्रतिक्रिया के रूप में गुड़गांव और अलवर में साम्प्रदायिक हिंसा फ़ैल गई। यहां के अहीर और मेव (मुसलमान) समुदाय के बीच भड़की हिंसा ने कई हिंदू और मुस्लिम गांवों को आग के हवाले कर दिया। इस हिंसा में 100 लोगों की जानें गई। कुछ दिनों के बाद मेव समुदाय के 35 लोगों की लाशें एक नाले से बरामद हुई। 1947 में पूरे अप्रैल के महीने,  अलवर और गुड़गांव में साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति बनी रही। (जानकारी का श्रोत- The Unfolding Crisis of Punjab 1947: Key Turning points and British responses)

मार्च 1947 में पंजाब सरकार को भंग करने से, कानून व्यवस्था चरमरा गयी थी जिसका पूरा फायदा असामाजिक तत्व उठा रहे थे। ताकत के हिंसक प्रदर्शन से यह दर्शाने की कोशिश की जा रही थी कि कहां किस समुदाय का ज़्यादा दबदबा और आबादी है। साफ़ शब्दो में ये संकेत सरकार के लिए थे कि पंजाब में पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के बीच लकीर को किस तरह खींचा जाए। मार्च 1947 में कई राजनीतिक फैसले लिए गए व पंजाब और भारत के बंटवारे पर एक तरह से मोहर लगा दी गयी।

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