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कुछ यूं बने भारत-पाकिस्तान बंटवारे के हालात

1920 और 1930 के बीच का समय, एक ऐसा दशक जब कई विचारधाराएं एक साथ समानांतर रूप से अपनी छाप समाज और देश पर छोड़ रही थी। मोहनदास करमचंद गांधी के नेतृत्व में अहिंसा के मार्ग को अपनाते हुये कॉंग्रेस भारत की आज़ादी के लिये प्रयासरत थी। दांडी मार्च जैसे कई आंदोलन इसकी पहचान बन रहे थे। दूसरी तरफ 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संगठन (आरएसएस) की नींव रखी गई थी, जिसका लक्ष्य पूर्ण रूप से एक हिंदू राष्ट्र का निर्माण करना था।

इसी दशक के अंत यानि कि 1930 में मुस्लिम लीग के सर मुहम्मद इकबाल द्वारा हिंदू मुस्लिम के आधार पर दो अलग देश होने की मांग रखी गई। साल 1933 में चौधरी रहमत अली गुज्जर ने इसे पाक्स्तान (Pakstan) का नाम दिया। इसमें P से पंजाब, A से अफगान प्रोविंस या नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस (वर्तमान में पाकिस्तान का खैबर पख्तूनिया राज्य), K से कश्मीर, S से सिंध और Tan से मतलब बलूचिस्तान था। कुछ समय बाद बोलने में आसानी के लिये इसमे I भी जोड़ दिया गया (जैसे Afghan-i-stan) और पाकिस्तान (Pakistan) शब्द का जन्म हुआ।

इसी दौरान देश में चन्द्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह जैसे कई नौजवान भी भारत की आज़ादी के लिये लड़ रहे थे। आज़ादी के बाद भारत कहीं साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के हाथों में ना चला जाए, इस मुद्दे पर ये बहुत गंभीर थे।

1946 आते-आते भगत सिंह जैसे कई योद्धा काफी पीछे छूट गए थे। इस समय तक हिंदुस्तान और पाकिस्तान का बंटवारा लगभग तय हो चुका था। अंग्रेज़ों की कोशिश थी कि किसी तरह दक्षिण एशिया के इस नक़्शे पर कोई नई लकीर ना खींची जाए। लेकिन समय के साथ बहुत सी घटनाएं तेज़ी से घटित हो रही थी।

1937 में हुए चुनावों में अॉल इंडिया मुस्लिम लीग की बहुत बुरी तरह से हार हुई थी, खासकर उन इलाकों में जहां मुस्लिम सुमदाय बहुसख्यंक था। इस हार के बाद पाकिस्तान बनाए जाने की मांग पर भी सवालिया निशान लग गया था। यहां तक कि 1940 तक AIML (All India Muslim League) को भी इस बात की पूरी जानकारी नहीं थी कि मुसलमानों की सही मायने में किन इलाकों में कितनी संख्या है।

1944 आते-आते हालात बदलने लगे। इसी साल जिन्ना ने एक प्रेस कांफ़्रेस में कहा था कि कॉंग्रेस और दूसरी पार्टियां AIML की बढ़ रही लोकप्रियता को देख नहीं पा रही है। 1937 में मिली करारी हार के बाद AIML ने अपना प्रचार ज़ोरों से शुरू कर दिया था और इस प्रचार का मुख्य ज़रिया नौजवान विद्यार्थी थे। AIML ने अपने विद्यार्थी संघ AIMSF में हज़ारों की तादाद में विद्यार्थियों को अपने साथ जोड़ा, जिसमें महिला विद्यार्थी भी थी। फिर इन्हें पार्टी के प्रचार के लिये पंजाब के शहरों, गांवों और कस्बों में भेजा गया जहां ये नुक्कड़ नाटकों, सभाओं और रैलियों से मुस्लिम लीग का प्रचार कर सके।

1945 में अंग्रेज़ सरकार ने केंद्र और राज्यों के चुनाव की घोषणा कर दी, ये चुनाव पंजाब में 1946 के फरवरी माह में होने जा रहे थे। इन चुनावों के लिए कॉंग्रेस भी कमर कस चुकी थी। उस वक्त पंजाब में मुस्लिम आबादी लगभग 57% थी और वहां AIML की हार, दो देशों की थ्योरी को हमेशा के लिये ठंडे बस्ते में डाल देती।

पंजाब में ऐसे भी मुस्लिम संगठन थे जो राष्ट्रीयता को प्राथमिकता दे रहे थे। इनका मानना था कि आज़ाद भारत में 30% मुस्लिमों को गुलाम बनाकर रखना नामुमकिन है, इसलिये ये सबसे पहले अंग्रेज़ सत्ता को यहां से हटाना चाहते थे। इनमें जमात-ए-उलेमा-ए-हिंद, राईट विंग मानी जाने वाली पार्टियां मजलिस-ए-अहरार और खाकसार मूवमेंट प्रमुख थी। ये सभी दल और संगठन मुस्लिम समुदाय में अपनी अच्छी-खासी पैठ रखते थे और ये AIML की अलग मुस्लिम देश की मांग का पुरज़ोर विरोध कर रहे थे। कॉंग्रेस भी परोक्ष रूप से इन दलों का समर्थन कर रही थी।

कॉंग्रेस, पंजाब में अपनी जीत को लेकर एक तरह से निश्चित थी। कॉंग्रेस ने अपनी पहली कतार के नेताओं में शुमार सरदार वल्लभ भाई पटेल और मौलाना आज़ाद को इन चुनावों की ज़िम्मेदारी दी हुई थी। लेकिन इस बात का संकेत नहीं मिला कि कॉंग्रेस अपनी जीत से ज़्यादा AIML की हार को सुनिश्चित कर रही थी या नहीं। क्यूंकि AIML की जीत और हार पाकिस्तान का भविष्य तय करने वाली थी।

पंजाब में चुनाव हुए और चुनाव परिणामों ने तत्कालीन राजनीति जगत को हिलाकर रख दिया। इन चुनावों में AIML सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, पंजाब की कुल 175 में से 73 सीटों पर AIML ने जीत दर्ज की। यूनियनिस्ट पार्टी (Unionists Party) जिसे पिछले चुनावों में भारी जीत मिली थी, कुछ 19 सीटों पर सिमटकर रह गई। यूनियनिस्ट पार्टी भी एक तरह से मुस्लिम पार्टी ही थी, लेकिन यह पाकिस्तान की समर्थक नहीं थी।

इन चुनावों में कॉंग्रेस को 51 सीटें मिली और अकाली दल को 22 सीटें मिली। बाद में कॉंग्रेस, यूनियनिस्ट पार्टी और अकाली दल ने मिलकर पंजाब में सरकार बनाई। लेकिन इन चुनावों में जमात-ए-उलेमा-ए-हिंद, मजलिस-ए-अहरार और खाकसार मूवमेंट जैसी पार्टियों को एक भी सीट नहीं मिली। साथ ही AIML को मुस्लिम बहुल बंगाल और सिंध राज्यों में भी बहुमत मिला। बंगाल में AIML को कुल 230 में से 113 सीटें मिली और सिंध में कुल 60 सीट में से 27 सीटें। इस जीत के साथ ये साफ़ हो गया था कि भारत के मुसलमानों की सही में अगर कोई नुमाइंदगी करता है तो सिर्फ और सिर्फ AIML, जिसकी मुख्य विचारधारा ही पाकिस्तान को बनाना है।

AIML की जीत के बाद पाकिस्तान की मांग को बहुत ज़्यादा समर्थन मिल रहा था। चुनावों के परिणाम आने के बाद अंग्रेज़ सरकार भी इसे समझने लगी थी।

1946 तक कुल 35 करोड़ भारतीय जो सिर्फ भारतीय थे अब 25 करोड़ हिंदू, 9 करोड़ मुसलमान और 55 लाख सिख हो गए थे। ज़मीन पर लकीर का अभी कहीं भी अस्तित्व नहीं था, लेकिन समाज और इंसानी जज़्बातों में लकीरे खिंच चुकी थी। AIML के अलग देश का विचार उन सभी जज़्बातों को घायल कर रहा था जो एक समाज की बात करते थे।

यकीनन उस वक्त का समाज एक बड़े उथल-पुथल की तरफ बढ़ रहा था। लेकिन उस उथल-पुथल में कितनों की जानें जाएंगी, कितनों का नुकसान होगा और कितना बड़ा पलायन होगा, इसका अंग्रेज़ सरकार और उसके खुफिया विभाग को ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था। ना ही राजनीतिक पार्टियों के साथ आम नागरिकों को खासकर कि पंजाब के नागरिकों को पता था कि उनके भविष्य की दिशा क्या होगी। पूर्व में यानी कि हिंदुस्तान या पश्चिम में यानि कि पाकिस्तान।

(https://www.dawn.com/news/1105473 से मिली जानकारी के आधार पर)

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