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धुंआ छोड़ती गाड़ी में बैठकर प्रदूषण के लिए किसानों को कोसना ही हिपोक्रेसी है

कहा जा रहा है दिल्ली ज़हरीले धुएं का चेंबर बन गयी है। वर्तमान हालात आपातकाल जैसे हैं। आंखों में जलन के साथ पानी आ रहा है। स्कूल बंद किये जा रहे हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की ओर से संचालित निगरानी स्टेशनों का हर घंटा वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) 500 से ज़्यादा बताया रहा है, जोकि अधिकतम सीमा से कहीं अधिक है। विशेषज्ञों और न्यूज एजेंसियों के अनुसार हालात कमोबेश वैसे ही हैं जैसे लंदन में 1952 के ‘ग्रेट स्मॉग’ के दौरान थे। उस दौरान 8000 से 14000 के करीब लोगों की असामयिक मौत हो गई थी।

कितना डरावना है ना सब कुछ? साथ ही सवाल ये भी उठ रहे हैं कि ये ज़हरीला धुआं आया कहां से? जवाब आता है,

“वो जी हरियाणा, पंजाब, पश्चिम उत्तर-प्रदेश के किसान पराली जलाते हैं ना ये उसका धुआं है, जिसने दिल्ली की सांस उखाड़ दी है।”

इस जवाब से संतोष कर लोग मास्क खरीद लेते हैं कि चलो अब अपन की टेन्सन खत्म। परसों कनाट प्लेस के इनर सर्कल में नोटबंदी का उत्सव और मातम मनाया जा रहा था सड़कों पर भीड़ थी, हाथों में पोस्टर बैनर के साथ पिछले साल के रटे रटाये गीत गाये जा रहे थे, नेतागण आदतानुसार भाषण दे रहे थे। तब भी यही सवाल उठ रहा था कि फिलहाल देश के बड़े-छोटे राजनेताओं के लिए यह ज़हरीला धुआं मुद्दा होना चाहिए या गुज़र चुकी नोटबंदी? साथ ही आम नागरिक की  भूमिका इसमें तय क्यों नहीं है?

पता चला है कि बीजिंग, लाहौर  समेत दक्षिण एशिया के अनेक बड़े शहर इस धुएं की चपेट में हैं। पिछले साल अक्टूबर के अंत में मैं एक हफ्ते के लिए काठमांडू गया था। वहां देखा करीब हर तीसरा आदमी मास्क लगाये घूम रहा था। तब भी मैं यही सोच रहा था कि ये हरियाणा पंजाब के किसान भी ना, देश विदेश सब जगह धुआं-धुआं  फैलाये बैठे हैं। हालांकि मैंने मास्क नहीं खरीदा क्योंकि जितना धुआं वहां के वायुमंडल में था इतना तो हमारी उत्तरप्रदेश की बसों में ड्राइवर-कंडेक्टर बीड़ी पीकर छोड़ देते हैं,  इतने धुएं से हम क्या, हमारे फेफड़े भी नहीं डरते।

आप दिल्ली से चलिए चारों ओर वहां पहुंचिये जहां से इस धुएं का उद्गम स्थल माना जा रहा है। यकीन कीजिये आप वहां खुली सांस लेंगे। ना आंखों में जलन होगी न सांस उखड़ेगी। तो फिर दिल्ली और इसके आसपास के बड़े शहरों में ही ये धुआं क्यों पसरा हुआ है?

दरअसल, ज़्यादा दूर के आंकड़े मत उठाओं भारत में ही इस साल सितंबर महीने का वाहन बाज़ार देखो, जिसकी मासिक घरेलू बिक्री 10 प्रतिशत बढ़कर लगभग 25 लाख (24,90,034) वाहन पर पहुंच गई है। इस महीने के दौरान यात्री वाहनों की बिक्री 11 प्रतिशत बढ़कर तीन लाख से अधिक रही। वाहन कंपनियों ने पिछले साल सितंबर महीने में दुपहिया वाहनों सहित कुल मिलाकर 22,63,620 वाहन बेचे थे। आंकड़ों के अनुसार इस साल अप्रैल- सितंबर की अवधि में घरेलू बाज़ार में कुल वाहन बिक्री लगभग सवा करोड़ (1,27,51,143) इकाई रही जो कि पिछले साल की समान अवधि की तुलना में 9.40 प्रतिशत की बढ़ोतरी दिखाती है। अब लोग खुद अंदाज़ा लगा सकते हैं कि पराली ज़्यादा ज़हरीला धुआं छोड़ रही या ये वाहन?

दूसरा मैं एक किसान का बेटा हूं और मैं जानता हूं कि कोई भी किसान अपनी ज़मीन में आसानी से आग नहीं लगाता। कारण इससे ज़मीन के उपजाऊ पोषक तत्व समाप्त होते हैं। एक तो खेती किसानी के लिए पहले से ही घाटे का सौदा है, दूसरा भला किसान उसे आग के हवाले क्यों करेगा? हां कुछ किसान अल्पज्ञान में फसल काटने के बाद आग लगाते हैं, लेकिन उसका कारण खेत में खड़ी खरपतवार को जलाना होता है। किन्तु इससे उत्पन्न धुएं में इतना ज़हर नहीं होता जितना बड़े शहरों में अंधाधुंध गाड़ियों में जलता डीज़ल-पेट्रोल और बड़ी छोटी फैक्ट्रियों से निकले धुएं और कचरे के जलने से होता है।

केवल किसान ही ज़िम्मेदार क्यों? अब बात करें पेड़ों की तो नेचर जर्नल की इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में अब प्रति व्यक्ति सिर्फ 28 पेड़ बचे हैं और इनकी संख्या साल दर साल कम होती जा रही है। अब यदि कोई दिल्ली में बैठकर सोचे कि हमारे हिस्से अभी 28 पेड़ हैं तो वह गलत है क्योंकि ये पेड़ों की गणना पूरे देश को लेकर की गयी बिलकुल उसी तरह है जिस तरह जनगणना। दुनियाभर में एक व्यक्ति के लिए 422 पेड़ मौजूद हैं,  लेकिन इस लिस्ट में अपने देश का स्थान बहुत नीचे है।

इसके बावजूद भी हम लड़ रहे हैं मर रहे हैं मूर्तियों के लिए, धार्मिक स्थानों के लिए, बुतों, पुतलों, मज़ारों के लिए जबकि सब जानते हैं कि ऑक्सीजन मूर्ति मज़ार नहीं बल्कि पेड़ देते हैं। बहरहाल, दिल्ली में ज़हरीला धुआं है और  ट्विटर पर दिल्ली और इसके आसपास के मुख्मंत्रियों की जंग छिड़ी है। जब ये अपनी वैचारिक राजनीतिक जंग जीत जायेंगे तो तब शायद कोई फैसला हो कि ज़हरीला धुएं का क्या हो।

 

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