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“हम उस देश के वासी हैं, जिस देश मे गंगा बहती है”

नहीं-नहीं ये बिल्कुल कोई धर्म विशेष से जुड़ा हुआ पोस्ट नहीं है और ना ही यहां मैं गंगा की विशेषता बताने जा रहा हूं जो कि वैसे भी अब दो चार हिमालय के करीब के शहरों को छोड़ के कहीं और नहीं दिखती। खैर ये जो लाइन है वो राज कपूर साहब की इसे नाम से एक फिल्म के शीर्षक गीत की लाइन है जो अभी चंद रोज़ पहले मैंने दूरदर्शन पर देखी (हैरान होने की ज़रूरत नहीं है, आज भी बारिश होने पर कभी-कभी केबल गायब हो जाता है)।

इस गाने की पहली लाइन “होंठो पे सच्चाई रहती है, जहां दिल मे सफाई रहती है”  सुनकर मैं बड़े असमंजस में थी कि क्या आज के परिपेक्ष्य में लेखक ये लाइन लिखने की हिम्मत कर पाता? शायद हां और शायद नहीं भी। उस दौर में भी ऐसे बहुत से लोग रहे होंगे जो इन शब्दों से इत्तेफाक न रखते हों और आज भी ऐसे बहुत से लोग होंगे जो इन्ही शब्दो पर जीते-मरते होंगे। मेरे ये विचार तब और मजबूत हो गए जब उस दिन एक ऐसा वाक़या हुआ मेरे साथ कि मेरे मुंह से बरबस ही निकल गया, “हम उस देश के वासी हैं, जिस देश मे गंगा बहती है।”

हुआ यूं कि उस दिन जब मैं ऑफिस जा रहा था तो हमेशा की तरह ऑटो में 5 लोग सवार थे। अभी ऑटो कुछ दूर बढ़ा ही था कि एक महाशय को उतरने की कुछ ऐसी जल्दी थी कि ऑटो पूरी तरह से रुका भी नहीं था और वो पैसा देकर और बड़ी तेज़ी से दूसरी राह पर पैदल निकल पड़े।

कुछ दूर बाद मेरा गंतव्य आया, मैंने ऑटो रुकवाया पैसे दिए और बचे हुए पैसे लेने के लिये ड्राइवर महोदय की ओर देखा। फिर अचानक मैं देखता हूं कि उसके चेहरे का रंग उतर गया है, मुझे लगा कहीं ऐसा तो नही कि 50 रुपये के नोट भी बंद हो गए हों और मुझे पता न हो। मेरे पूछने से पहले ही वो एक बैग की ओर इशारा करते हुए बोल पड़ा, “पीछे जो भैया उतरे हैं, वो अपना बैग यहीं भूल गए।”

मुझे ये नज़ारा बड़ा अनोखा मालूम हुआ कि किसी का सामान छूटने के बाद एक ऑटो वाला इतना परेशान है, क्योंकि मेरे निजी अनुभव से मुझे तो इतना ही पता है कि ऑटो में मोबाइल/पर्स छूटने के बाद वो सीधे यमलोक में ही जमा हो जाता है जो वहीं जाने पर ही मिलेगा। आप कितना ही ढूंढ लो और ऑटो वाले भी ज़रूर यमदूत ही होते होंगे, क्योंकि ढूंढने पर वो भी नहीं मिलते।

अब ऑटो में बचे थे चार लोग, चारों ओर से सुझाव आ रहे थे कि कहीं बम तो नहीं… कोई ज़रूरी सामान होगा… किसी ने कहा पुलिस के पास जमा कर देते हैं। लेकिन एक बात इन ड्राइवर महोदय को बिल्कुल पसंद न आई कि पुलिस को ही देना है तो खुद ही न रख ले दोनों ही स्थितियों में समान उसके मालिक को नही मिलना है।

फिर कुछ सोच विचार के बाद एक भयंकर आइडिया ड्राइवर महोदय को आया जैसा कि रामायण में आया था सुग्रीव को लछमन शक्ति के वक्त। उनका आइडिया था कि क्यों ना वापस गाड़ी उसी दिशा में ले चलें जिधर वो सामान का मालिक गया था, हो न हो वो भी आस-पास अपने सामान को ढूंढता होगा।

वैसे तो ये विचार बहुत ही सरल लग रहा होगा सुनने में, लेकिन ज़रा मामले के गहराई में जाईये आप ऑफिस का टाइम वो भी जब ऑटो रेलवे स्टेशन की ओर जा रहा हो। न जाने कितनों को ट्रेन लेनी होगी, उसमे से और ऊपर से ये विचार आया भी ड्राइवर महाशय को और सबसे बड़ी बात कि किसी ने कोई आपत्ति नही जताई।

सबके बीच इस विचार को लेकर आम सहमति बन गई जो नीतीश और लालू के बीच भी न बन पाई, नहीं तो अलग नज़ारा होता बिहार की राजनीति का। खैर राजनीति की बातें किसी और दिन, वापस आते है मूल बात पर। ऑटो में बैठे सारे लोगों ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को ताक पर रखा, ऑटो ने यू टर्न लिया और चल दिया उस लावारिस सामान के मालिक को ढूंढने।

ऑटो वाला उस आदमी को ढूंढ तो नहीं पाया, लेकिन मुझे अपने एक सवाल का जवाब ज़रूर मिल गया और अब मैं बिना किसी असमंजस के ये गाना लाउडस्पीकर पर बजा सकता हूं कि, “हम उस देश के वासी हैं, जिस देश मे गंगा बहती है…”

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