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आधुनिकता का असल मतलब जानना हो तो सईद मिर्ज़ा की ये दो किताबें पढ़िए

सामानांतर या नए सिनेमा की विरासत में सईद मिर्ज़ा की शख्सियत की अपनी जगह है, लेकिन सईद साहब का सफर फिल्मों के साथ रुक नहीं गया। लेखन के माध्यम से भी वो अपना संदेश लोगों तक ले गए। आम आदमी की तकलीफों का समाधान तलाशने खातिर उन्होंने जीवन समर्पित कर दिया।

कभी-कभी हमें पूर्वाग्रहों से मुक्त नज़रिया विकसित करने की ज़रूरत होती है, नया नज़रिया इसलिए भी अपनाना ज़रूरी है क्योंकि परम्परा के बोझ में खुद की सोच भी उसी तरह की हो जाती है। जिन विचारों को पढ़कर हम बड़े हुए उन्हें ही हम आखिरी सच मान लेते हैं, लेकिन सवाल करने की पहल विकसित की जानी चाहिए। पहले की मान्यताओं या विचारों की परख करनी होगी, हूबहू चीज़ों को कबूल कर लेना गुलामी की निशानी है। सईद की शख्सियत, विरासत में ताज़ा चीज़ों की तलाश किए जाने की पैरवी करती है।

अम्मी: लेटर टु अ डेमोक्रेटिक मदर:

सईद मिर्ज़ा की किताब ‘अम्मी: लेटर टु अ डेमोक्रेटिक मदर’, कमाल का तेवर लेकर आई थी। इस किताब में सईद के जीवन के अनुभवों पर अच्छी चर्चा मिलती है। बंटवारे के त्रासद हालात से उत्पन्न हिंसा और बदले की फिज़ा का यह संतुलित उल्लेख है। हिंसा के बाद परस्पर सम्मान को उभरते देखकर मिर्ज़ा को इस पर लिखने का मन हुआ, वो इसे अपने माता-पिता की कहानी से जोड़कर प्रस्तुत करते हैं।

इस किताब में उन घटनाओं का ज़िक्र भी हुआ है, जिनसे देश को कठिन हालात का सामना करना पड़ा था। इस पुस्तक को साहित्यिक स्थापत्य भी कहा जा सकता है। यह किताब फिल्मकार के तेवर को लेखकीय रूप में दिखा पाने में सक्षम रही थी। यह किताब सईद मिर्ज़ा के जज़्बातों का अक्स भी थी। उनकी फिक्रमंद शख्सियत को बयान करने वाला एक दस्तावेज़।

जैसा कि किताब के नाम से ही अंदाज़ा हो जाता है, आपने यह नॉवेल अपनी प्यारी अम्मी को समर्पित किया। मां की मुफ्त सलाह, प्यार और प्रेरणा हम सबको ताकत देती है। उसके रुकसत हो जाने बाद रह-रह कर वह सब याद आता है। एक ही शहर में रहते हुए भी मां को पर्याप्त वक्त ना दे पाने की पीड़ा इस किताब से समझी जा सकती है। मां की नि:स्वार्थ मुहब्बत को याद करते हुए यह किताब लिखी गई थी।

सईद मिर्ज़ा जिस तरह का लेखन करते हैं वह साहित्यिक उसूलों में बंधकर नहीं किया जा सकता। उन्होंने लेखन के लिए किसी फार्मूले पर न चलकर अपनी ही राह बनाई है। यह किताब जैसे मां-बेटे के रिश्ते का एक दस्तावेज़ है। वो रोज़मर्रा की ज़िंदगी जिसमें एक मां बच्चे को प्यार से स्कूल भेजती है, जैसे किसी अमर कहानी में इबादत का एक पाठ।

द मॉंक मूर एंड मोज़ेज़:

सईद मिर्ज़ा की दूसरी किताब  ‘द मॉंक मूर एंड मोज़ेज़’ (The monk moor & Moses) यानि ‘फकीर, पहाड़ और मूसा’ को आए भी वक्त हो गया है। इस किताब में सुधी पाठक के लिए बहुत कुछ है। यह एक भुला दिए गए ‘अतीत’ पर विमर्श है, वह अतीत जिसे हर किसी ने नज़रअंदाज़ किया। अब तक इतिहास के पन्नों में चयन के भेदभाव के कारण यह फना हो रहा था।

इस किताब में दो कहानियां सामानांतर चल रही हैं। इनमें से एक ‘अमेरिकन विश्वविद्यालय’ की घटना को बयान करती है जो चार युवा विद्यार्थियों की कहानी है। चारों युवा अनेक स्तरों पर एक दूसरे से अलग हैं, यह सभी इस खोज में निकले हैं कि धर्म, संस्कृति, मान्यता और विचारधारा की विरासत से उनका मुस्तकबिल (भविष्य) किस तरह प्रभावित हुआ? आज और मुस्तकबिल किस तरह पुरानी चीज़ों से तय होता है? इनकी रिसर्च ‘वेस्टर्न एपिक्स’ की असलियत को उजागर करने में कारगर रहती है। इन तालिबों (खोजकर्ता) ने खोज निकाला कि इन एपिक्स की जड़ इस्लामिक पांडुलिपियां हैं, मायने यह कि यह किताबें इस्लामिक किताबों का ही आधुनिक रूप हैं।

इस कहानी के सामानांतर दूसरी कहानी ग्यारहवीं सदी की ईरानी युवती रेहाना की है। वह अपने अदीब (विद्वान) पति से कुछ सीखने की हमेशा चाहत रखती है जो विज्ञान, दर्शन और कला का जानकार है। रेहाना अपने पति से वह सब कुछ जान लेना चाहती है जिसके लिए मन में थोड़ी भी शंका हो। रेहाना सवाल करने से नहीं घबराती, किसी सवाल का माकूल जवाब पति से न मिलने पर वह आस-पास के लोगों से जानने की कोशिश भी करती है। संघर्षशील औरतों को रेहाना के किस्सों का स्मरण कर लेना चाहिए।

किताब पढ़कर हमें यह भी मालूम होगा कि सभी वाकयों की जानकारी हमें नहीं हो सकती। यह कुछ यूं हुआ कि मानो ज्ञान के समंदर से घिरा होकर भी कोई अंजान रह जाए, किताब में कुछ ऐसा ही बयान किया गया हैं। यह किताब मज़हबी नज़रिए से नहीं लिखी गई है, इतिहास की अंजान बातों को उजागर करना इसका मकसद है। इस रचना के जरिए सईद असलियत के एक अंजान पहलू को बताते हैं। अंजान पहलुओं को उजागर करने के क्रम में वो यूरोपीयन लोगों की सीमित सोच तक पहुंच जाते हैं।

दुनिया को लेकर यूरोपीय लोगों की धारणाएं कहां टिकती हैं? आज की दुनिया को वह किस नज़रिए से देखते हैं? मिसाल के लिए ‘एलजेबरा’ लफ्ज़ क्या था? इसका नामकरन असलियत में किस आदमी ने किया? फिर यह कि न्यूटन के पहले रोशनी के बारे में किसे जानकारी रही कि वो ज़र्रे से बनी है? इन बातों को जानने की कोशिश नहीं हुई।

उस समय में इस्लाम के हरेक पहलू को नज़रअंदाज़ किया गया। विज्ञान व तकनीक में इस्लाम के योगदान को यूरोपीयन लोगों ने इज्ज़त नहीं दी, शक की नज़रों से देखकर उसे नकार दिया। इस्लाम को लेकर अनेक पूर्वाग्रह कायम थे। सईद की यह किताब अन्य सभ्यताओं को नज़रअंदाज़ करने वाली नए ज़माने की वेस्टर्न सोच से दो-टूक संवाद करती है।

आधुनिक चिंतन दरअसल सामूहिक कोशिशों का फल है, लेकिन ‘माडर्न’ को खुद से ही जोड़कर वेस्ट दुनिया पर राज कर रहा है। बाकी देश उसे मानने को मजबूर हैं।

यह किताब आतंकवाद, लोकतंत्र और सभ्यता की परिभाषा को नए नज़रिए से गढ़ने की मांग करती है। इससे गुज़रते हुए हमें एहसाह होता है कि आधुनिकता केवल खास कपड़ों, शापिंग कॉम्पलेक्स या खान-पान से ही ताल्लुक नहीं रखती। यह इंसानी नज़रिए की एक खास अवस्था है। यह किताब तीसरी दुनिया के मुल्कों की कोशिशों के एक दस्तावेज़ के तौर पर नज़र आती है।

सईद की परवरिश विविधता से भरे परिवेश में हुई, वहां हर किस्म के लोग रहते थे फिर भी बहुसंख्यक आबादी और परिवेश का डर नहीं बैठा। इनके भाई अज़ीज़ मिर्ज़ा मुख्यधारा की बम्बईया सिनेमा में सक्रिय रहे। एक ही परिवार, दो भाई लेकिन विचारधाराएं अलग-अलग। एक ‘न्यू वेव’ सिनेमा का माहिर, तो दूसरा पॉपुलर बंबईया फिल्मों का निर्माता।

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