Site icon Youth Ki Awaaz

अम्बेडकर: एक सोच- बाबा साहब की पुण्यतिथि पर विशेष

जिला मुख्यालय से करीब 60 किलोमीटर दूर, काफी विकसित टाइप के दिखने वाले इस गांव में बिजली के खम्भे पहुंच गए हैं, जिनमें गाहे-बगाहे सप्लाई भी आ ही जाती है। सड़क कहना तो अतिशयोक्ति होगी पर हां, एक रास्तानुमा संरचना उपलब्ध है जो बारिश के अलावा बाकी समयों में अपनी सेवाएं देती रहती है। यहीं प्राथमिक विद्यालय नाम की एक जर्जर इमारत भी है जो अक्सर जुअारियों को धूप और वर्षा से बचाकर निरंतर कार्यरत रहने का संबल देती है।

बाकी तो कुछ विशेष नहीं हां लैपटाप हर उस घर में दिखते हैं, जिनके कोई रिश्तेदार शहर के निवासी हैं और बिना विद्यालय गए इंटर पास कराने वाले किसी व्यापारी के सम्पर्क में हैं।

इस गांव की निरंतर व्याप्त चुप्पी में तब खलल पड़ता है जब करीब तीस लाठीधारी दलित युवक, गांव के दूसरे किनारे पर रहने वाले उच्च जाति वालों के पुरखों का महिमामण्डन गरिया-गरिया के करते हुए जंग पर निकल पड़ते हैं । इस युद्ध की वजह थी- उनकी बस्ती में स्थित ‘देवप्रतिमा’ का खण्डन। यह प्रतिमा थी- बाबा साहब अम्बेडकर की।

भारत का स्वाधीनता संग्राम नि:सन्देह अनेक महान व्यक्तियों द्वारा लड़ा गया। कुछ ने अपनी जान दी, कुछ ने अंग्रेज़ों को मौत के घाट उतारा। हिंसा, अहिंसा, सत्याग्रह, क्रांति आदि अनेक संसाधनों से यह लड़ाई जीती गई। इन महापुरुषों का योगदान मूल्यांकन से परे है, किंतु फिर भी ऐसा क्यों हुआ कि एक ऐसे व्यक्ति को जिसने कोई सीधी लड़ाई नहीं की और जो खुद यदा-कदा महात्मा गांधी के खिलाफ चला गया, देवता का दर्जा मिला?

नीला कोट, गोल चश्मा और हाथ में कानून की किताब लिए उसकी मुस्कुराती प्रतिमा महानगरों के व्यस्ततम चौराहों और सुदूर ग्रामीण दलित बस्तियों में सुशोभित है। उसके विचारों के उत्तराधिकार का दावा करने वाले दल निरंतर अपना जनाधार बढ़ा रहे हैं और अतीत में जिन दलों ने उसका विरोध किया था वो आज उसकी विरासत के लिए छटपटा रहे हैं।

वजह साफ है- आज अम्बेडकर एक व्यक्ति से कहीं ऊपर उठकर एक विचारधारा मे तब्दील हो चुके हैं। एक विचारधारा जो कथित नीची जाति में जन्मे लोगों पर होने वाले अत्याचारों की न सिर्फ भर्त्सना करती है बल्कि उन्हें अपने अधिकारों के लिये लड़ने का आत्मिक बल भी देती है। यह विचारधारा उन लाखों करोड़ों लोगों को सुकून देती है जिन्हें हज़ारों सालों तक हास्यास्पद आधारों पर प्रताड़ित किया गया। जिनके बच्चों को प्यास से तड़पने दिया गया क्योंकि वे ठाकुरों के कुओं से पानी नहीं भर सकते थे। उन्हें अनपढ़ रहने को मजबूर किया गया क्योंकि पाखण्डी ब्राह्मण उनकी छाया से बचते थे। मंदिरों मे उनका प्रवेश सदा से वर्जित था और अगर कभी उन्होने अपने अधिकार मांगे तो उन्हें उनकी समूची बस्ती समेत ज़िन्दा जला दिया गया।

ऐसे में अम्बेडकर के विराट व्यक्तित्व ने उस समूचे समाज को नया जीवन दिया। अम्बेडकर ने इन अत्याचारों को नियति न मानकर उनका विरोध किया, शिक्षा प्राप्त की और शिक्षा का प्रसार किया। हाशिए के इस पार सिमटे जनसमूह को उम्मीद की एक किरण दी। संविधान में उनके अधिकारों को प्रतिष्ठापित किया और जब अंत में हिन्दू धर्म से अत्यधिक व्यथित हो गए तो अपने सहचरों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण किया।

महात्मा गांधी नि:सन्देह दलित समाज की पीड़ाओं से व्यथित थे और उन्होंने इस समाज के कल्याण के लिये कई महान कार्य भी किए लेकिन दलितों के मसीहा का दर्जा गांधी के बजाए अम्बेडकर को मिला। कारण साफ था- गांधी के सीखे हुए यथार्थ में संवेदना तो थी पर अम्बेडकर के भोगे हुए यथार्थ की स्वयंवेदना से यह कोसों दूर थी। गांधी अंततः वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक थे और संभवतः उनके संस्कार यदा-कदा उनके विचारों पर भारी पड़ जाते थे। वहीं अम्बेडकर ने वर्णाश्रम जैसी संकल्पना का सिरे से खण्डन किया और दलित समाज से राजनीतिक सशक्तता हासिल करने का आह्वाहन किया।

अम्बेडकर एक सम्पूर्ण योद्धा थे जो आजीवन अपने समाज, अपनी पार्टी और अपनी सरकार से लड़ते रहे। यह उनकी विद्वता ही थी जिसने भारतीय संविधान के समक्ष सबको समान स्थान दिलवाया।

उनकी लड़ाई किसी समुदाय विशेष के समर्थन में नहीं अपितु हर तरह के अन्याय के खिलाफ थी। आज उनके विचारों का अनुसरण करने का दावा करने वालों का धर्म बनता है कि समाज मे व्याप्त हर उस अत्याचार का विरोध करें जो किसी भी धर्म, जाति या समुदाय पर होता है। परिनिर्वाण दिवस पर इस महान व्यक्तित्व को शत-शत नमन।

फोटो आभार: getty images

Exit mobile version