Site icon Youth Ki Awaaz

तथ्यों और इतिहास की खिल्ली उड़ा रहा है सोनी टीवी का शो पोरस

पद्मावती प्रकरण पर पहले से ही बहुत कुछ कहा जा चुका है। इतिहास क्या है? परंपरा क्या? इतिहास की सीमाएं क्या है और इतिहास का विचारधारा से क्या संबंध है? ये प्रश्न विवाद का विषय रहा है। आज हर कोई इतिहास को अपनी जागीर समझने लगा है। जैसे लाठी वाला, भैंस को अपनी दिशा ले जाने को उन्नत रहता है, वैसे ही हर कोई इतिहास को अपनी सुविधा के अनुसार तोड़ने मरोड़ने में लगा हुआ है।

समस्या तब और विकट हो जाती है जब हमारी इतिहास की समझ विभेदकारी स्वरुप अख्तियार कर लेती है। जब इतिहास नफरत फैलाने का ज़रिया बन जाए तो वो इतिहास नहीं रह जाता है बल्कि एक हथियार बन जाता है, एक औज़ार बन जाता है, ज्ञान नहीं रह जाता। इतिहास और सिनेमा का जब भी मेल हुआ है, पीड़ा सदैव इतिहास को ही भोगनी पड़ी है।

पद्मावती के लिए संजय लीला भंसाली की आलोचना अवश्य होनी चाहिए लेकिन उन कारणों से नहीं जिनसे कुछ तथाकथित राष्ट्रवादी और संस्कृति के रक्षक उनके पीछे पड़े हैं। प्रश्न ये उठाना चाहिए कि राजपूतों को, जौहर जैसी नृशंस प्रथा को महिमामंडित करना और अलाउद्दीन खिलजी को नकारात्मक दृष्टि से दिखाना कहां तक ऐतिहासिक गरिमा के साथ न्याय है? खैर इस विषय पर इससे अधिक कुछ भी कहना तब तक उचित नहीं जब तक फिल्म न देख ली जाए।

ये एकलौता मामला नहीं जहां इतिहास के साथ खिलवाड़ किया गया या किया जा रहा है या इतिहास में नायक और खलनायक खोजने के प्रयास किए जा रहे हैं, जो कहीं न कहीं हमारे वर्तमान पक्षपातों से मेल खाते हैं। हाल ही में सोनी टीवी ने पोरस नाम से एक तथाकथित ऐतिहासिक कार्यक्रम का प्रसारण शुरू किया जो न केवल इतिहास की खिल्ली उड़ाता है बल्कि खुलेआम ऐतिहासिक पक्षपात भी करता है।

क्या हमारी अस्मिता इतनी कमज़ोर है कि पूरे झूठ या अधपके सत्यों के सहारे चलना पड़े? पोरस की वीरता का बखान करना कोई बुरी बात नहीं, पर किसी को सही दिखाने के लिए किसी और को बुरा दिखाना जायज़ तो नहीं, वो भी एक ऐसी शख्सियत जिसकी भारत से बाहर एक गौरवशाली पहचान है। क्या ये दोहरा मापदंड नहीं कि हम अपनी विजय को वीरता का प्रतीक मानते है और दूसरों की विजय को उनकी धूर्तता का प्रतीक?

अतिवादी देशप्रेम उतना ही घातक है जितना देशविरोधी अवधारणा। यह कार्यक्रम तथ्यों से बड़े पैमाने पर छेड़छाड़ करता है मसलन- पोरस और सिकंदर को एक दिन जन्मा दिखाना, डेरियस को धूर्त व्यापारी दिखाना, पोरस को अखंड भारत का ध्येता दिखाना आदि।

ऐसा कालभ्रम वास्तव में हमारे अहं की तृप्ति का एक साधन मात्र है अन्यथा पंजाब का स्थानीय शासक कैसे भारत का प्रतिनिधि शासक बन जाता है? स्थानीय अस्मिता राष्ट्र की अखंडता की अवधारणा में कैसे परिवर्तित हो जाती है?

कोई हमें ये समझाएं कि अखंड भारत की यह अवधारणा प्राचीन समय में कहां से आई और क्या उस अखंड भारत की अवधारणा में आधुनिक दक्षिण और उत्तर पूर्वी भाग शामिल था? बहुत से सवाल उठाए जा सकते हैं- बनाने वालो के ज्ञान पर भी और उनकी नीयत पर भी।
और पढ़ें

ये हमारा दुर्भाग्य है कि हम लोग इतिहास का उपयोग पढ़ने के लिए नहीं लड़ने के लिए कर रहे हैं। हमारा इतिहास को देखने का नज़रिया बहुत संकुचित है, ये सिर्फ राजा महाराजाओं, युद्ध-योद्धाओं तक सीमित हो रहा है। महलों, किवाड़ों, घोड़ों और तलवारों के इतर भी बहुत सा इतिहास है, वो इतिहास जो आपके अहम की तृप्ति करे न करे लेकिन आपकी समझ को ज़रूर झकझोर देगा। आज हम फिल्मों और कार्यक्रमों में इतिहास के नाम पर कॉस्ट्यूम ड्रामा परोस रहे हैं, हम इतिहास की झूठी आड़ लेकर आधुनिक देशभक्ति बेच रहे हैं। ये इतिहास का व्यापार है और जो दूसरे किनारे से ये तमाशा देख रहा है, वो हमारे जैसा कोई इतिहासकार है।

Exit mobile version