Site icon Youth Ki Awaaz

मेरे ननिहाल की वो पद्मावतियां, जिन्होंने जौहर नहीं किया

‘पद्मवाती’ विवाद ने इन दिनों जैसे सारे नेशनल मुद्दों को पीछे छोड़ दिया है। करणी सेना का फिल्म के विरोध में हमला हो या पद्मावती से संबंधित इतिहास की चर्चा। हां, इस बीच फेसबुक वॉल पर ‘वॉचिंग पद्मावत’ के पोस्ट भी खूब चेपे जा रहे हैं। आखिर हमारी करणी सेना के वीर-बांकुरों ने इस फिल्म को फिल्म रहने ही कहां दिया है। उन्होंने तो अपनी करनी से जैसे इस फिल्म को देखना हर आम आदमी के लिए एक मिशन-सा बना दिया है। फिर उस मिशन की कामयाबी का डंका फेसबुक पर बजाना तो बनता ही है।

बहरहाल, मेरा मूड ना तो करणी सेना को गलियाने का है, ना ही पद्मवाती के इतिहास को सही गलत ठहराने का, ना ही फिल्म रिव्यू बताते हुए भंसाली साहब की तारीफ या बुराई करने का है। आप सबके दिमाग को रेस्ट देने के लिए थोड़ा इन सबसे दूर चलते हैं, और इतिहास के एक दूसरी छोर की ओर रुख करते हैं। 

पद्मावती के किस्से की बात हो या राजपूताना घरानों के दूसरे किस्सों की, बाहरी आक्रमण में राजाओं की हार के समय ‘जौहर’ को औरतों की “इज्ज़त” बचाने का सबसे सुरक्षित ज़रिया माना जाता था।

हमारा इतिहास इन जौहर की चर्चा भी छाती ठोककर करता है। लेकिन, इतिहास शायद ही उन औरतों की बात करता है, जिन्होंने जौहर जैसी भयावह मौत की जगह दूसरा रास्ता अपनाया था।

राजघराने के अलावा उस वंश के अधिसंख्य ऐसे पुरुष भी थे जिन्होंने अपनी पत्नियों को जौहर जैसी भयावह मौत में ढकेलने से ज़्यादा उन्हें कहीं सुरक्षित स्थान पर भेजना मुनासिफ समझा था। आज वे औरते कई पीढ़ियां गुज़र जाने के बाद एक नए वजूद के साथ पहचानी जाती हैं। मगर, सच पूछिए तो मेरी मुठभेड़ रानी पद्मावती के इतिहास के तार से जुड़ी इन औरतों के साथ बिल्कुल हाल में हुई है।

पिछले महीने पहली बार मुझे अपने ननिहाल के गांव बिहार के विशुनपुरवा जाने का मौका मिला जोकि नेपाल सीमा से लगे थारू जनजाति बहुल इलाका है।

गांव भ्रमण के दौरान मेरे पिता ने मज़ाकिया अंदाज़ में मुझसे कहा, “तुम्हें पता है, तुम चर्चित पद्मावती के खानदान की महिलाओं के बीच जा रही हो।” मुझे ये सुनकर बड़ी हैरानी हुई। मैंने सोचा कि आखिर ये कनेक्शन जुड़ता कैसे है। कहां सुदूर राजस्थान का इलाका और कहां बिहार। हमारी जिज्ञासा के बाद पिता ने उस इतिहास के इस खासे दिलचस्प हिस्से के बारे में हमें विस्तार से बताया।

थारू मूलतः राजस्थान स्थित थार प्रदेश के वासी माने जाते हैं जो मुगल आक्रमण के दौरान सुरक्षित शरणस्थली के रूप में बिहार और यूपी से सटे नेपाल के क्षेत्र में आ बसे थे। ऐसा माना जाता है कि इन दिनों खबरों में रही रानी पद्मावती भी उसी थार इलाके से थी। मुगलों के आक्रमण के समय जहां राजघरानों की औरतों के जौहर के किस्से सुने जाते हैं, वहीं यह भी तथ्य है कि वहां के छोटे और सामान्य सामंतों ने अपने घर की जवान महिलाओं की इज्ज़त की सुरक्षा के लिए उन्हें अपने विश्वस्त नौकरों के साथ उस समय के एकमात्र ‘हिन्दू राज्य’ नेपाल भेज दिया। नेपाल के साथ-साथ ये लोग बिहार और उत्तर प्रदेश की सीमावर्ती क्षेत्रों में भी फैले हुए हैं।

मगर, विडंबना यह रही कि काफी लंबा समय गुज़र जाने के बाद भी उन औरतों को वापस अपनी मातृभूमि ले जाने के लिए वहां से कोई मर्द नहीं आया। अनुमान लगाया जाता है कि उनके घरों के सारे के सारे मर्द मुगलों के साथ लड़ाई में मारे जा चुके थे।

संभवत: , कालांतर में उनके परिवारों की अविवाहित महिलाओं ने अपने साथ आये उन्हीं विश्वस्त अनुचरणों के साथ वैवाहिक रिश्ता बनाकर घर बसाना शुरू कर दिया। और, इस तरह राजपूताना खानदान की वे औरतें इसी इलाके की होकर रह गईं।

उन्हीं इलाकों में से एक मेरा ननिहाल विशुनपुरवा भी है, जो ठीक नेपाल बॉर्डर पर है। हालाकि पीढ़ी दर पीढ़ी बीत जाने के बाद उन थारू महिला-मर्दों को अपने इस इतिहास के बारे में शायद ही पता हो! वे तो अब इसी इलाके की सभ्यता-संस्कृति के साथ मिट्टी-हवा की तरह रच बस गए हैं।

भोजपुरी कवि-साहित्यकार और इतिहासकार सिपाही सिंह ‘श्रीमंत ‘ की एक किताब में थारूओं के इस दिलचस्प इतिहास और उनकी संस्कृति के बारे में विस्तृत चर्चा की गई है। सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’ ने स्कूल इंस्पेक्टर के तौर पर काफी दिनों तक इस थारू-बहुल क्षेत्र में काम किया था। उसी दौरान उन्होंने उनके इतिहास, उनकी संस्कृति और उनकी भाषा का गहन अध्ययन किया और एक शोधपरक पुस्तक लिखी जिसे उनकी मृत्यु के बहुत बाद प्रकाशित होने का मौका मिला।

Exit mobile version