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“छोटी जगहों से जीतने वाले बड़े नेताओं को जनता की कद्र क्यों नहीं होती?”

बड़े चेहरे और बड़े नाम हमेशा बड़े काम नहीं करते, लोगों को यह बात तब ज़रूर याद रखनी चाहिए जब वो लोकतांत्रिक मेले में अपने मत का प्रयोग कर रहे हों। अमूमन राजनीति में जनता का महत्व और रायशुमारी प्रत्यक्ष रूप से चंद दिनों की ही होती है, शायद आचार संहिता लागू होने से खत्म होने तक ही।

हालांकि कहने को राजनीति की जनार्दन जनता ही होती है और नेता जनता का नुमाइंदा भर होता है, लेकिन केवल तब तक, जब तक चुनाव सर पर होते हैं।

उसके बाद सर पर लालबत्ती लग जाती है और नेता राजनेता बन जाते हैं, जीत मिलने के बाद ताकत भी मिलती है जो कई मामलों में असीमित भी होती है। लेकिन नेता जो वादे करता है वो किस हद तक पूरे किये जा सकते हैं?

कई बार बड़े चेहरे लोगों को लुभाते हैं, इसलिये शायद लोग उन्हें वोट दे दिया करते हैं, लेकिन चुनाव के बाद वो हवा हो जाते हैं। अबकी बार जब घर पर कोई वोट मांगने आए तो यह सवाल ज़रूर करियेगा कि अगली बार कब आएंगे? हो सके तो उनके वादे को फोन पर रिकॉर्ड कर लीजियेगा, कम से कम अगले चुनाव में काम आयेगा।

मत उसी को दान कीजियेगा जिसने कभी आपके क्षेत्र के लिये थोड़ा ही सही, पर संघर्ष किया हो। बड़े चेहरे अक्सर चुनाव जीतने के बाद और भी बड़े हो जाते हैं। आम चेहरों में थोड़ा ही सही पर वापस आने का डर तो होता ही है। अब लाज़मी हो चला है कि कुछ बड़े चेहरों का उनके चुनाव क्षेत्रों का ज़िक्र भी किया जाए।

फूलपुर का नाम हममे से बहुत से लोगों ने शायद सुना भी ना हो लेकिन मुझे यह नाम सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ पिछले कुम्भ मेले के समागम में। इलाहाबाद के पास होने के कारण फूलपुर से भारी भीड़ का आवागमन पूरे कुम्भ के दौरान होता रहा। किसी ने बातों ही बातों में बताया की फूलपुर ‘जवाहर लाल नेहरू का लोकसभा क्षेत्र रहा है।’

आज़ादी के बाद के पहले चुनाव से लेकर जब तक नेहरू जीवित थे तब तक वो लोकसभा के सदस्य के रूप में फूलपुर का प्रतिनिधित्व करते रहे।

यह बात मुझे तब से आज तक खटक रही है। मैं हैरान भी हुआ यह सोच कर कि फूलपुर का नाम इसके पहले सुनने में क्यों नहीं आया? ना राजनीति में, ना काजनीति में और ना ही विकास नीति में!

ऐसा कहा जाता है कि नेहरू तो विकासपुरुष थे, खासकर चण्डीगढ़ को करीब से देखने के बाद इस ऐहसास को बल तो मिलता है। फूलपुर में भी नेहरू जी ने वोट मांगते हुए कुछ तो वादे किए ही होंगे। नहीं भी किए होंगे तो कुछ ना कुछ ज़िम्मेदारी तो बनती ही होगी वहां के लोगों के प्रति उनकी! तो कुछ हुआ क्यों नहीं?

देश के राजनीतिक मानचित्र पर दशकों तक छाया रहने वाला फूलपुर आज नेहरू के नाम के सहारे अपने अस्तित्व को बचा तो लेगा पर तब क्या होगा जब हम भारत का भौगोलिक मानचित्र तैयार करेंगे या फिर देश में विकास का मानचित्र तैयार करेंगे? क्या तब भी नेहरू की राजनीतिक विरासत की राख, फूलपुर के माथे की आभा बन पायेगी?

फोटो साभार: सोशल मीडिया

इस सवाल का जवाब फूलपुर के उन बुज़ुर्गों के पास भी नहीं होगा, जिन्होंने कभी गर्व के साथ नेहरू को मत दिया होगा। अब जब कभी ये बुजुर्ग अपने परिवार के युवा सदस्यों को रोज़गार की तलाश में बाहर जाते हुए देखते होंगे तो दिल में एक दस्तक ज़रूर होती होगी। मन भी बेचैन ज़रूर होता होगा और हो भी क्यों ना, जब कभी आप राजनीति के शीर्ष पर रहे लोगों के साथ रहने का दम्भ भरते रहे हों। मौका मिले तो फूलपुर के बारे में पढ़ियेगा ज़रूर। नेहरू जी के बाद तो फूलपुर बस दरकिनार ही हो गया। राष्ट्र निर्माण के लिये कसरतें ज़रूर हुई पर केवल कुछ नए शहर बनाकर।

कमोबेश कुछ ऐसी ही कहानी रायबरेली की भी है। यूपीए सरकार के दिनों में एक बार रायबरेली के एक कामगार से मुलाकात हुई, वह मेरे घर पर गैस सिलिंडर की बदली करने आया था। उसकी भाषा ने मुझे ये ऐहसास तो करा दिया की वो उत्तर प्रदेश से है। मैं उत्सुकतावश पूछ बैठा, “कहां के हो?” जवाब मिला, “यूपी से हैं।” मैंने जवाब दिया, “ये तो हमको भी पता है, शहर कौन सा है? जवाब था, “रायबरेली।”

उसके जवाब में एक विश्वास था, थोड़ा ही सही पर था। जवाब सुनने के बाद मेरे जहन में फिर वही सवाल आया, मैंने उस कामगार से कहा, “यार आपकी मैडम की तो सरकार है देश में, वहां कोई काम नहीं मिला क्या? मनरेगा वगैरह भी तो चल रहा है, वहां पर कोशिश नहीं की क्या?”

युवक ने हताशा भरा जवाब दिया, “अरे सर जी वोट लेने के बाद कोई देखने थोड़े ही आता है। आप मनरेगा की बात कह रहे हैं, मनरेगा में एक तो काम कम ही मिलता है और काम मिल भी जाए तो पैसा उससे भी कम। पैसा तो साहब लोग की डकार जाते हैं।”

मैंने एक बार फिर पूछा, “फिर मैडम को वोट क्यों देते हो?” उसका जवाब था, “काम न सही, थोड़ा नाम तो है। कम से कम लोग मैडम के बहाने ही सही, जगह तो पहचान ही लेते है।” एक गिलास पानी पीकर वो कामगार तो चला गया, लेकिन कई अनसुलझे सवाल छोड़ गया। रायबरेली की स्थिति भी जगजाहिर है, कमोबेश फूलपुर से भी बदतर। ऐसा इसलिये क्योंकि रायबरेली में आज तक वो लोग काबिज़ हैं, जो सत्ता के शीर्ष पर हैं।

फोटो साभार: pixabay

अमेठी के एक कामगार के साथ भी लगभग एक ऐसी ही मुलकात हुई, जैसी कि रायबरेली के कामगार साथ हुई थी। फूलपुर, अमेठी, रायबरेली का जिक्र इसलिये, क्योंकि यहां के प्रतिनिधि सत्ता के शीर्ष पर रह चुके हैं, लेकिन विकास में नाम पर इन जगहों को चवन्नी से ज़्यादा कुछ भी नहीं मिला।

जिक्र बलिया का भी होना चाहिए, चन्द्रशेखर जी के कारण। फतेहपुर का भी, राजा माण्डा विश्वनाथ के चलते। वैसे जिक्र तो पूरे के पूरे उत्तर प्रदेश का हो सकता है। कई बड़े नेता अपने चुनाव क्षेत्र में विकास की गंगा तो छोड़ो, मूलभूत सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं करा पाए। अब की बार जब वोट दें तो चेहरे और नाम से तनिक भी प्रभावित ना हो।

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