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पटना यूनिवर्सिटी छात्र संघ चुनाव से एक पूर्व छात्र की उम्मीदें

ताकत और सत्ता के आसपास संदर्भ लगे रहते हैं, लेकिन यह समझने के लिए बहुत उम्र खर्च करनी पड़ती है। छात्र राजनीति इस तथ्य के कितना आसपास चलती है, यह अन्वेषण का विषय है।

मैंने अपने जीवन का पहला चुनाव दिल्ली यूनिवर्सिटी में देखा- मेरे लिए वह छात्र-शक्ति, निबंधन और छात्र नेताओं के कठपुतलियों की तरह ज़ोर-ज़ोर से नाचने के प्रदर्शन का चरम था। पूरी अवधि फर्स्ट इयर में पढ़ने वाले हमलोग उत्साह से तमाशा देखते, नॉर्थ कैम्पस से अक्षरधाम और ग्रेट इंडिया प्लेस, नापते रहे। हुजूम सा चलता था जो कॉलेज आता, प्रचार करता निकल जाता। आंदोलन की बातें, शक्ति प्रदर्शन, सब एक ठोस लक्ष्य की तरफ।

जाने क्या-क्या बदलता है, विकास किन पटरियों से आप तक आता है। जो दूसरा चुनाव देखा, वह पटना यूनिवर्सिटी का छात्र-संघ का चुनाव। तब तक वहां तीन साल बीत चुके थे, कैम्पस के सब डर झेल चुका था और हम दौड़ों में दौड़ते हुए, बैच के तौर पर पक चुके थे।

जिस भी पार्टी के लड़के जीते हों, जो भी पैनल बना हो, एक दिन भी मेरी क्लास में हम लोगों से मिलने कोई नहीं आया। अगले दो साल और यूनिवर्सिटी में बिताने थे और शायद कुछ आंदोलन हुआ हो, जिससे कुछ वैचारिक बदला हो, राष्ट्र बचा हो या राजनीति की धारा बदल गयी हो, मुझे दरभंगा हाउस से वॉशरूम का इस्तेमाल करने पटना कॉलेज जाना पड़ता, लड़कियां यौन उत्पीड़न से परेशान और धमकियां मारपीट सब वैसा ही, जिस स्थिति में रहने की आदत हो गयी थी।

अब वहां नहीं हूं लेकिन जहां आदमी अपने पहले कदम चलता है, पांच साल तक प्रेम करता है, इतिहास और समय दोनों से दो चार होता है, वह स्थान खास हो ही जाता है।

वह आपके एकांत के लिए लौटने की उन जगहों में से होता है, जहां से बेहतर की ओर भले ही आप बहुत आगे निकल चुके हों, जैसे उस जहाज़ का एक लंगर आपके पैर में मांस में घुसा रहता है जो बार बार आपको उधर ही खींचता है, वहां से जोड़े रखता है, बस इसी हैसियत से फिर देखा जा सकता है सब, सोचा जा सकता है कि विध्वंस की आपाधापी में भी उम्मीद के कोंपल का इंतज़ार।

लड़कियां अभी भी वहां उन्मुक्त नहीं उड़ सकतीं, हवा बोझिल सी है – चाहे वह झुंड जो शिकार की तरह उनका इंतज़ार करते हैं या वह प्रशासन जो मोबाइल फोन भी जमा करा लेता है। कई तर्कों में एक तर्क यह भी कि फोन पास हो तो कहीं वे प्रेम ना कर बैठें किसी से। जान का डर, मैंने उसी कैम्पस में जाना, सिर से बहता खून देखा। गमछा लपेटे विद्यार्थी, हॉकी स्टिक हाथ में लिए हुए – हर पार्टी के साथ जो भीड़ है, उसमें कुछ हिस्सा उनका भी था उसबार, इस बार वे सब पास हो चुके होंगे। क्या उस भीड़ के साथ अब भी कुछ वैसा है? कौन उत्तेजित करता है उनको? उनका फायदा तो नहीं इसमें, फिर किसका फायदा है? बेसिक सुविधाएं ही मिलें – यही प्रमुख मुद्दा बने।

शिक्षकों की कमी, मेस और कैंटीन का ना होना, यूनिवर्सिटी बस, सही वाइफाई – ये सब ख्वाब अगले चुनाव में भी देखे जा सकते हैं, जो चुनाव हो और साथ ही जो संघ बने उसके पास दखल लायक ताकत हो वरना जैसे देश की राजनीति शो -बिज़ है, यहां भी इतना ही भर हो सकता है। बाकी इतने तामझाम से चुने नेता, विश्वविद्यालय ऑफिस में छात्रों का माइग्रेशन सर्टिफिकेट निकालते अच्छे नहीं लगेंगे।

इस बार अखबारों से और सोशल मीडिया से एक नया ट्रेंड देखने को मिल रहा है। अमूमन कैम्पस में लेफ्ट पार्टियों, राजद और अभाविप के अलावा मैंने कोई दल नहीं देखे थे। मैं इन सब का मेंबर था, सेशन के शुरू में इनका मेंबरशिप ड्राइव चलता और कुछ डर से और कुछ उदासीनता की वजह से, हमलोग सबको दो-दो रुपए दे दिया करते यह सोचते हुए कि बला छूटी। बाद में हमने एक दूसरे का रास्ता कभी नहीं काटा।

इस बार मुझे दलों की भीड़ दिखाई देती है। यह अच्छा है या बुरा है – यह तय नहीं कर पाया अभी। वोट बटेंगे, यह भी सही है। एक मित्र ने मुझसे कहा, जब बारिश होती है, बहुत मेंढक बाहर आ जाते हैं, सम्भव है।

देशप्रेम और देशहित भी मुद्दा है- पढ़ने वाले चौंके नहीं। आखिर राष्ट्रहित का सबसे सही इस्तेमाल यही है कि इसका प्रयोग कर वोट मांगे जाएं। रोज़गार तो सरकार तय कर चुकी है- शिक्षा की उसमें ज़रूरत है नहीं। कोशिश हो सकती है कि अगली बार या इसी बार चुनाव पास आते हुए, पाकिस्तान को भी इस चुनाव में कोई पार्टी शामिल कर ले।

लेफ्ट के जो दो प्रमुख दल हैं, वे गठबंधन कर चुके हैं और इसको लेफ्ट यूनिटी कहा जा रहा है। उनका अलग-अलग लड़ना ही शायद उन्हें हरा गया पिछली बार। बाकी छोटी पार्टियों को पांच में से ही सीटें कैसे देते, क्या करते यह मामला फंसा होगा कहीं। लेकिन कैम्पस में उनका वजूद है। कैम्पस से दूर कॉलेज़ो में जो भी तस्वीर बने, संवाद के कई मंच – अल्पकालिक और दीर्घकालिक उन्होंने बनाने की कोशिश की।

उनके तथाकथित आंदोलन कितने कारगर रहे, वे विश्लेषण का विषय है लेकिन कैम्पस में पांच कवियों और लेखकों के नाम लेने वाले कुछ लोग थे, यह मुझ साहित्य के विद्यार्थी के लिए अनूठी बात थी। यहां हो सकता है मैं पक्षपात भी कर रहा हूं।

आंकड़े कहते हैं कि कुल उन्नीस हज़ार के लगभग वोटर्स होंगे- ज़मीन पर इससे अलग पिक्चर है। और वही विवाद का विषय भी है, इस हद तक कि पिछले संघ के कुछ सदस्य हाई कोर्ट तक चले गए हैं। अभी परीक्षाओं का समय है, सेंट -अप हो चुके हैं और अधिकांश लड़के कॉलेज से दूर हैं- लोकल लड़के सिर एक वोट देने यूनिवर्सिटी नहीं आना चाहते, हॉस्टल खाली हैं क्योंकि सेंट अप के बाद, कक्षाएं नहीं चलती और कई लोग पढ़ने, घर चले जाते हैं और मार्च में परीक्षाओं के समय लौटेंगे। तो मुख्य रूप से भीड़ अभी सिर्फ राजनीति से जुड़े छात्रों की ही है और वह मोटा-मोटी अपने पक्ष चुन चुके हैं। यहां विश्वविद्यालयप्रशासन ने अपनी सुविधाएं देख लीं।

तमाम कमियों और फ्यूटिलिटियों के बाद भी, मुझे लगता है हमें नेता और नीति से गुरेज़ नहीं होना चाहिए। अगर आज हमारे पास पकौड़े बेचने भर का ही ऑप्शन मुहैया है तो समय और सिस्टम दोनो मांग करते हैं कि हम राजनीतिक हो जाएं, नेता बनें, तार्किक होते हुए मुद्दे सोचते हुए ज़रूर वोट करें।

एक पुराना विद्यार्थी अपने आगे के लड़कों से यही उम्मीद कर सकता है और यही आकांक्षा रख सकता है कि बंधनों और मानसिक गुलामी से आगे, एक ऐसी सुबह हो जब सूरज, एक बड़ा लाल सितारा, आसमान में चमके।

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