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क्या चुनावों में सत्ता परिवर्तन से कुछ बदलता भी है?

मैं एक आम भारतीय हूं और देश की करोड़ों आबादी की तरह हर रोज़ ज़िन्दगी से एक नई जंग लड़ने के तैयार रहता हूं। कभी कॉलेज के लिए लेट हो रहा होता हूं, कभी ऑफिस में बॉस की डांट को प्रसाद की तरह खा रहा होता हूं या कहीं किसी सरकारी अफसर को सुविधा शुल्क देकर अपना काम निकलवा रहा होता हूं।

इन सबके बीच चुनावी लहर भी शुरू हो चुकी है। आपको अपने ऑफिस और कॉलेज में अलग-अलग राजनीतिक विचारधारा के बहसबाज़ मिल जायेंगे लेकिन सवाल यह है कि क्या चुनावों में सत्ता परिवर्तन से कुछ बदलता भी है?

समाजवाद के पैरोकार रहे राम मनोहर लोहिया कहते थे कि लोकतंत्र की रोटी पलटती रहनी चाहिये। अगर यह कहा जाए कि चुनावों में सत्ता और परिवर्तन से कुछ नहीं होता तो यह भारतीय राजनीति, जनता, अधिकारियों द्वारा पिछले 70 सालों में किये गये विकास की अनदेखी होगी लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि जिस तीव्र गति से देश को आगे बढ़ना था, हम उससे मीलों पीछे हैं।

आज आज़ादी के इतने सालों बाद भी देश बुनियादी सुविधाओं रोटी, कपड़ा और मकान जैसी समस्या से पूरी तरह उबर नहीं पाया है। 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में बेघरों की संख्या 1.77 मिलियन है जो कि देश की कुल आबादी का 0.15 % है। एक रिपोर्ट के अनुसार देश की 195.9 मिलियन आबादी भूख तथा कुपोषण की समस्या से जूझ रही है, जो कि ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैण्ड और न्यूज़ीलैण्ड की कुल आबादी से भी ज़्यादा है।

सवाल यह उठता है कि क्या राजनीति ही इन सभी समस्याओं की ज़िम्मेदार है? जवाब है हां, क्योंकि देश की सभी आर्थिक, सामाजिक, स्वास्थ्य तथा शिक्षा सम्बन्धी नीतियां वही सरकार तय करती है, जो राजनीति के दंगल से जीतकर आई होती है। अब दंगल में जिस तरह के दांव पेंच आज़माये गए होंगे पहलवान भी वैसे ही बात करेगा।

भारतीय राजनीति के गिरते स्तर के कारण-

पैसे की भरमार- 

मौजूदा लोकसभा में 543 सदस्यों में से 442 करोड़पति हैं, जबकी 2009 में 315 और 2004 में 156 करोड़पति सांसद थे।

पिछले कुछ बड़े घोटालों की रकम तो कई विभागों के सालाना बजट से भी ज़्यादा है। चुनाव प्रचारों में पानी की तरह बहाए जाने वाले पैसे को जनप्रतिनिधि भ्रष्टाचार और घोटालों के ज़रिये कमाने का प्रयास करते हैं।

वीआईपी कल्चर-

किसी रैली में हज़ारों बाइकों पर जोश भरते युवा, लग्ज़री कारों का काफिला हो या फिर थाने में मंत्री जी के फोन से हड़बड़ी, ये सब उसी वीआईपी कल्चर का नतीजा है। पैसा होने के साथ व्यक्ति सरकारी तथा गैर सरकारी संगठनों पर रौब जमाने का प्रयास करता है और ऐसी छवि गढ़ लेता है कि आम आदमी की समस्याओं और पहुंच से दूर हो जाता, जिससे लोगों के ज़मीनी मुद्दे हल होने की बजाय बढ़ जाते हैं।

आपराधिक संरक्षणवाद-

मौजूदा लोकसभा में 186 सांसदों के ऊपर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, जो कुल लोकसभा का 34 प्रतिशत हिस्सा है, जिनमें भारतीय जनता पार्टी के 98 कॉंग्रेस के 44 सांसद शामिल हैं।

फोटो सोर्स- Getty

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उर्फ अजय कुमार बिष्ट के खिलाफ कई मुकदमे चल रहे हैं। योगी के खिलाफ धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने और सद्भाव बिगाड़ने के मामले में आईपीसी की धारा 153ए के तहत दो मामले दर्ज हैं। इसके अलावा उनके खिलाफ वर्ग और धर्म विशेष के धार्मिक स्थान को अपमानित करने के आरोप में आईपीसी की धारा 295 के दो मामले दर्ज हैं।

साथ ही आईपीसी की धारा 506 के तहत आपराधिक धमकी का एक मामला आईपीसी की धारा 307 के तहत हत्या के प्रयास का एक संगीन मामला भी दर्ज है।

आईपीसी की धारा 147 के तहत दंगे के मामले में सज़ा से संबंधित 3 आरोप भी उनपर हैं। आईपीसी के खंड 148 के तहत उनपर घातक हथियारों से लैस दंगों से संबंधित होने के दो आरोप दर्ज हैं। इसके अलावा भी उनपर कई मामले दर्ज हैं।

आपराधिक प्रवृति के लोग जब सरकार का हिस्सा बनते हैं तो वह संस्थाओं पर अलोकतांत्रिक दबाव बनाते हैं, फलस्वरूप संगठन सुचारू रूप से कार्य नहीं कर पाता और इसका सीधा असर जनता पर होता है।

व्यावसायिक हस्तक्षेप-

कई प्राइवेट व्यावसायिक संगठन राजनीतिक पार्टियों को चुनावों में भारी फंड उपलब्ध कराते हैं, जिसके बदले में वे अपने फायदे नुकसान के हिसाब से सरकारी नीतियों में हस्तक्षेप करते हैं, जिसका प्रतिकूल असर जनता पर पड़ता है। 2G स्कैम, IPL में कथित हेरा फेरी, राफेल, बोफोर्स घोटाला आदि इसका उदाहरण है।

कैसे सुधरेंगे हालात-

• चुनावों में जनता सड़क, बिजली, रोज़गार समेत अन्य ज़मीनी मुद्दों को ध्यान में रखकर वोट करे।

• राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदों की एक अधिकतम राशि तय की जाये और इसे सार्वजनिक किया जाये।

• चुनाव आयोग प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से दिये गये धार्मिक बयानों पर कड़ी कार्रवाई करके प्रत्याशी की उम्मीदवारी निरस्त करे।

• राजनीतिक दल, वादों के साथ उन्हें कैसे पूरा करेंगे कि एक रुपरेखा जनता के सामने रखें।

• चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवारों की न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय हो।

राजनीति में कभी कोई बुराई नहीं होती, राजनीति और लोकतन्त्र, आत्मा और शरीर की तरह है, इसे राजनीति करने वाले लोग बुरा बनाते हैं। सिर्फ नेता ही देश की बद्तर होती सियासत के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं, बल्की वह जनता जो धर्म, जाति, बाहुबल, धन और व्यक्तिगत लाभ के लिए वोट करती है, उतनी ही उत्तरदायी है।

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