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“क्या आम जनता को नेताओं के झूठे वादों से बचने की ज़रूरत है?”

कुछ दिन पहले कॉलेज के एक कार्यक्रम में शिरकत करने का मौका मिला। चर्चा का विषय था भाषा और नैतिकता। विषय के अनुरूप सार्थक और गंभीर चर्चा हुई। प्रारंभिक उद्बोधन में हिंदी के एक प्रोफेसर ने कहा कि आज का दौर राजनीतिक विमर्श का कबड्डी युग है। जिसमें एक व्यक्ति लाइन की दूसरी तरफ जाता है और सब उसपर एकसाथ झपट पड़ते हैं। खेल के तो फिर भी कुछ नियम कायदे हैं। राजनीति में नियम कागज़ों पर हैं।

चूंकि राजनीति में संवाद महत्वपूर्ण है और इसके लिए भाषा की ज़रूरत होती है। कुछ नेता चुनाव जीतने के लिए नियमों को ताक पर रखकर भाषा से खेलना शुरू कर देते हैं। आज राजनीतिक विमर्श में जिस किस्म की भाषा देखी जा रही है, उससे तो यही पता चलता है कि नेता और नैतिकता एक दूसरे के विपरीत हैं।

हिंदी में जिसे हम नैतिकता कहते हैं उसका संबंध इस बात से है कि हम सही और गलत में सही का चुनाव करें। अच्छे और बुरे में, अच्छे के साथ चलें। इसके लिए सही और गलत में फर्क कर पाना ज़रूरी है। शैतानी मनुष्य के लिए स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। सार्वजनिक जीवन में भाषा के अवमूल्यन का नतीजा यह होता है कि इससे हमारे सही और गलत की पहचान करने की क्षमता समाप्त हो जाती है। और इस भेद न कर पाने के चलते हमारे भीतर दूसरे किस्म की नाकामी पैदा होती है।

फोटो साभार: सोशल मीडिया

इससे एक तीसरी अवस्था पैदा होती है। यह अवस्था वह है जिसमें सही और गलत को जानते हुए हम गलत का चुनाव करते हैं। इस अवस्था में रहने वाले लोगों को पता होता है कि सामने वाला व्यक्ति झूठ बोल रहा है, गलतबयानी कर रहा है, गलत तथ्य पेश किया जा रहा है। लेकिन उसे इस बात की कोई परवाह नहीं होती। उलट यह तर्क दिया जाता है कि काम तो सध रहा है न!

अब यह एक ज़्यादा गहरी बीमारी की तरफ़ इशारा करता है, जिसमें आप तथ्यों की बात करते हैं, पर सामने वाला प्रभाव की बात करता है। जब तक आप तथ्यों को दुरुस्त करते हैं, झूठ प्रभाव पैदा कर चुका होता है। फिर जब आप सच लेकर जायें तो वही लोग कहेंगे कि इससे क्या फर्क पड़ता है, बात तो दमदार है न!

दरअसल वह कहना चाहता है हमें झूठ कोई परेशानी नहीं है, बल्कि हम तो झूठ चाहते हैं। हम लीडर से झूठ की मांग करते हैं। नेता इस मांग को समझता है और झूठ परोसता है। आज प्रभाव का तथ्य से कोई रिश्ता नहीं रह गया है, राजनीति में तो बिल्कुल नहीं। ऐसे में नेता जो चाहता है कि उसका प्रभाव पैदा हो, गलतबयानी की झड़ी लगाकर अपने प्रभाव को और गहरा कर सकता है।

तब हमें हैरानी होती है कि जो आंख के सामने दिख रही है, वह दूसरों को क्यों नहीं दिखती? वह इसलिये की वे पर्दे के पीछे देखना नहीं चाहते हैं। भाषा जब नैतिकता से अपना संबंध तोड़ लेती है, उसके क्या नतीज़े होते हैं, यह समझने के लिए प्रो मुदलियार की अध्यक्षता में बनाए गए उस रिपोर्ट को पढ़ना चाहिए जो उन्होंने 1948 में माध्यमिक शिक्षा आयोग के सामने पेश किया था।

उस रिपोर्ट का एक लंबा हिस्सा भाषा शिक्षण को लेकर है। प्रो मुदलियार कहते हैं “भाषा की शिक्षा जनतंत्र के लिए अहम है। चूंकि हमारे सोचने का काम भाषा पर निर्भर होता है, भाषा हमसे स्वतंत्र और पहले से मौजूद होता है इसलिए संभव है कि जिसे हम ख़ुद के सोचने का तरीका मानते हैं वह खुद का ना हो।

जब हम भाषा की बात करते हैं तो इसका मतलब भाषा के साथ सावधानी और सचेतन के रिश्ते की बात है।” प्रो मुदालियर के शब्दों में जनतंत्र के लिए भाषा के प्रति सचेतनता इसलिये आवश्यक है कि संसदीय जनतंत्र में सर्वाधिक महत्व मत का होता है। मत यानी विचार, विचार यानी सोचना। इसका मतलब मत का संबंध सोचने से है। और यह काम भाषा के बिना नहीं हो सकता।

संसदीय जनतंत्र में मत बनाये जाते हैं। ऐसे में हर नागरिक के पास यह मानसिक क्षमता होनी चाहिए कि जो उसे कहा जा रहा है वह उसकी जांच कर सके। क्योंकि जनतंत्र में लोगों को संगठित भाषा के जरिये किया जाता है, इसलिये इसका खतरा हमेशा बना होता है कि एक वक्त कोई लफ्फाज़ आएगा, और वह अपनी लफ्फाज़ी से लोगों के सोचने की क्षमता को कुंठित कर देगा। इस लफ्फाज़ की आंधी में तथ्य गायब हो जाएंगे। प्रभाव की आंधी में जनता सम्मोहित होकर सो सकती है। अतः जनतंत्र के लिए भाषा की शिक्षा एक बुनियादी ज़रूरत है। ताकि हम भूसे को दाने से अलग कर सकें। हम लफ्फाज़ी का आनंद तो लें, पर उसमें बहकर फैसला न लें।

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