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“स्कूल में पीरियड्स होने पर साइकिल पोछने वाला कपड़ा यूज़ करना पड़ता था”

सदियों से बात नहीं हुई महीनों की। अचानक परम्परा पर वार पैडमैन का अवतार।

अब विरोध के स्वर उठाएगा कोई ? नहीं क्योंकि ये महीना वो दर्द है जो सदियों से दबाया गया हर घर में अमीरों में, गरीबों में, शोषित में शोषकों में, और इस दर्द को कम करने की पहल की एक पुरुष ने। ये विडम्बना है या इत्तेफाक, या फिर संस्कार और सभ्यता के खिलाफ।

कितने लोग इस बारे में जानने को उत्सुक, कितने समझने को, कितनों के मन में इस मौन के खिलाफ स्वर है, लेकिन फिर भी चुप।

इस पहलू पर चलो खुलकर जानो

स्त्री एक कमनीय काया नहीं, नाज़ुक सी डोर नहीं

स्त्री एक बोझिल देह नहीं, कोमल कमज़ोर नहीं।

स्त्री सिर्फ प्रेम की मूरत नहीं, भोली सूरत नहीं।

स्त्री रक्त  का बहता  दरिया, रक्त से सनी देह भी है।

वही रक्त है ये जो किलकारी भरता है आंगन-आंगन

वही रक्त है प्राण किसी का, किसी का सूना आंगन।

रक्त की बहती धारा में बहता स्त्री का खुद का जीवन

हर माह निचुड़ती है लत्तों सी, बहती पिघले हिमखण्ड सी।

स्त्री खुद बनती है खून के कतरों से, फिर सैलाब सी बहती है।

रक्त के बहते इस दरिया में जीवन आंचल पाता है,

प्रेम की आग में जलता राही अपनी प्यास बुझाता है,

कभी छल से, कभी बल से बहते दरिया का पथ तोड़ा जाता है।

खून के धब्बे खुद पर लगते, पर स्त्री का मैला आंचल होता है।

फिर भी कितना सहती है, महीने पर हरदम चुप रहती है।

दोस्तों इसी चुप्पी को  तोड़ने के लिए बेहद ज़रूरी है कि हर स्कूल में इस विषय पर छठवीं कक्षा से लड़कियों के लिए एक विशेष क्लास हर माह आयोजित की जाय ताकि वे माहवारी की जटिलताओं को समझ सकें और उससे किस तरह सहज बनाना है ये समझ सकें। अपने व्यक्तिगत अनुभवों और समस्याओं से शायद कुछ लड़कियों को हिम्मत दे सकूं इस विषय पर खुलकर बात करने की तो ये मेरी सार्थकता होगी।

मुझे अच्छी तरह याद है वो वक्त जब माहवारी का शुरुआती दौर था, मेरा व मेरे साथ स्कूल जाने वाली मोहल्ले की लड़कियों का। समान उम्र ही थी हम सबकी तो आगे पीछे ही सबकी माहवारी भी शुरू हुई। घर से सिर्फ इतना ही सीखा था कि ऐसे वक्त में कपड़ा इस्तेमाल कैसे करना है। साफ या गन्दा जैसी तो कोई बात ही ना थी। हम सब छोटे ही तो थे आपस में सब अपनी समस्या साझा करतीं। किसी को घर में ज़मीन पर सोना पड़ता था तो किसी को अलग कमरे में कर दिया जाता और खाने का बर्तन भी अलग हो जाता।

किसी को बहुत दर्द होता, कोई बहुत खून आने से परेशान होती। किसी को  5 या 6 दिन तक माहवारी होती तो कोई 3 दिन में ही  फुर्सत पाकर खुश होती। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि स्कूल में ही माहवारी अचानक शुरू हो जाती तो कपड़े के इंतज़ाम के लिए साइकिल स्टैंड पर दौड़ लगाते हम सब। साइकिल स्टैंड पर इसलिए कि हम सबकी साइकिल में साइकिल साफ करने के लिए कुछ कपड़ा जो होता था गद्दी के नीचे। उसको एकत्र करके ही उस वक्त राहत की सांस लेते थे। और ये घटनाक्रम मेरे जैसी सैकड़ों लड़कियों के साथ होता था क्योंकि सरकारी विद्यालयों में आने वाली लड़कियां बहुत शिक्षित परिवारों की तो होती न थीं।

खैर, समय बीता कॉलेज में भी पहुंचे हमसब। मगर, मैंने महसूस किया कि भले ही हम थोड़ा समझदार हो गए थे और पैड का इस्तेमाल भी करना सीख ही लिया था, लेकिन तब भी एक गलती तो करते ही थे। वो ये कि पैड जब तक पूरा भीग ना जाये बदलते नहीं थे। इसके दो कारण ही समझ पाई हूं अब तक, पहला जानकारी का अभाव और दूसरा ये कि कम-से-कम पैड में माहवारी के चरण निपट जाए। क्योंकि तब घर में पैड हमारे लिए आता तो था पर उसे बचत के साथ प्रयोग करने की नसीहत भी मिलती थी। ज़्यादा इस्तेमाल होने पर कपड़ा इस्तेमाल करने की धमकी।

ये सिर्फ मेरी ही नहीं  मेरे साथ की तमाम लड़कियों की आपबीती थी। समय के साथ हम समझदार हुए स्वावलंबी भी हुए और आखिरकार हमने सीख भी लिया माहवारी में स्वच्छता का पाठ और अपने आसपास की तमाम लड़कियों को भी बखूबी समझाया जब भी मौका लगा। लेकिन, आज भी तमाम बच्चियां इस मुद्दे पर ना तो जागरूक हैं ना शिक्षित। माहवारी पर जागरूक करने के लिए स्कूल से बेहतर जगह क्या होगी, स्कूली शिक्षा को अनपढ़ और रूढ़िवादी समाज भी  मान्यता दे ही देता है तो क्यों ना स्वच्छता और स्वास्थ्य  की शिक्षा में एक अध्याय “स्वच्छ और स्वस्थ  माहवारी के पहलू” का हो। इसके लिए स्कूलों में विशेष कक्षा की सार्थक पहल अनिवार्य रूप से हो तो सोच तो बदलेगी साथ ही ऑफिस, स्कूल, में या सुलभ शौचालयों में  महिलाओं की ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए डस्टबीन, कुछ पेपर, और पैड की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि आपात स्थिति में राहत महसूस हो सके। ऐसे कुछ प्रावधानों पर महिलाएं अपना अधिकार समझकर मुखर होकर बोलें तो बहुत सी माहवारी संबंधी समस्याओं से निजात मिलेगी।

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