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जिन आदिवासियों से विकास के नाम पर छीना जा रहा जल, जंगल, ज़मीन, वही हैं विकास से वंचित

भारत युवाओं का देश है, यहां की कुल आबादी में 65% युवा हैं, जिनकी आयु 35 वर्ष से नीचे है। युवा पीढ़ी को देश की रीढ़ कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। युवा ही देश की दिशा एवं दशा तय करते हैं। युवाशक्ति भारत के निर्माण में देश के सभी युवाओं की सहभागिता होनी चाहिए।

विद्यार्थी, शोधार्थी, कवि, लेखक, प्रोफेसर, कर्मचारी, आईएएस, आईपीएस, पत्रकार, चिकित्सक, इंजिनियर, वैज्ञानिक, फोर्स, राजनेता, किसान, मज़दूर आदि से लेकर बेरोज़गार युवाओं की बौद्धिक एवं शारीरिक बल स्रोतों का सदुपयोग कर युवा शक्ति भारत का निर्माण किया जा सकता है। भारत अभी नौजवान है और एक अरब 27 करोड़ आबादी में से युवाओं का प्रतिशत सबसे अधिक है। पिछले कुछ सालों का रिकॉर्ड देखें तो युवाओं ने राष्ट्रव्यापी समस्याओं पर सफलतापूर्वक आंदोलन कर अभिव्यक्ति की मिसाल पेश की है। इसके बावजूद भी बहुसंख्यक (आदिवासी, दलित, बहुजन) युवा उपेक्षा के शिकार हैं। उपेक्षित युवाओं में देश के आदिवासी युवाओं का सूचकांक सबसे निचले स्तर पर है। हम इस आलेख में आदिवासी युवाओं पर ही विमर्श करेंगे।

आदिवासी, प्रकृतिवाद और आधुनिकीकरण-

आदिवासी युवाओं पर विचार विमर्श करने के लिए प्रकृतिवादी आदिवासी नज़रिये का होना बहुत आवश्यक है। आदिवासियों का प्रकृति से सम्बन्ध, उन्हें एक अलग दृष्टिकोण देता है। प्रकृतिपूजक आदिवासी मौजूदा शैक्षणिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों एवं क्रियाकलापों के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे हैं। क्योंकि विकास योजनाएं तथा नीतियां आदिवासियों के मूल स्वभाव तथा अस्मिता के विपरीत बनाये जा रहे हैं। विकास योजनाएं तथा नीतियां कुछ वर्ग विशेष को ध्यान में रखकर बनाये जा रहे हैं, जिससे बहुसंख्यक आदिवासी उपेक्षित हैं।

कैसी हो विकास योजनाएं तथा नीतियां-

योजनाएं और नीतियां ऐसी बनाई जानी चाहिए जो प्रकृतिवाद और मानवतावाद पर आधारित हो, जिससे विद्यार्थियों एवं युवाओं में तर्क एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अंकुर प्रस्फुटित हो सके। प्रकृतिवादी सिद्धान्तों पर चलने वाले आदिवासियों के लिये आधुनिकीकरण और विकास की नीतियों ने उनके स्वभाव के विपरीत पृष्ठभूमि का निर्माण कर दिया है।

वैश्वीकरण तथा औद्योगीकरण की अंधी दौड़ ने दुनिया के आदिवासियों से उनके जल जंगल ज़मीन के अधिकार छीन लिए और बेतहाशा शोषण और नरसंहार किये, जिसके फलस्वरूप दुनियाभर में करोड़ों आदिवासियों का अस्तित्व मिट चुका है। इनमें से करोड़ों की संख्या में प्रतिभाशाली आदिवासी युवाओं से खदानों में बेगारी मज़दूरी करवाई गयी। बचपन से लेकर युवावस्था तक खदानों में काम करते हुए आदिवासी युवा उपेक्षा के ही शिकार रहे हैं, बेकार होने के बाद उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया जाता था।

दुनिया के करोड़ों आदिवासियों का अस्तित्व खत्म होने के बाद और दुनिया में छाई जलवायु परिवर्तन तथा ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते संकट के साथ तेज़ी से खत्म हो रहें आदिवासियों के अस्तित्व से चिंतित होकर संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) ने आदिवासियों के मानवाधिकारों की रक्षा के साथ-साथ शैक्षणिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान को बचाने एवं अक्षुण्ण बनाये रखने के उद्देश्य से 9 अगस्त 1994 से ‘वर्ल्ड इंडिजनस डे’ घोषित किया। प्रतिवर्ष यह पर्व 9 अगस्त को भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में मनाया जा रहा है। परंतु भारत की केंद्र एवं राज्य सरकार अपनी विकास योजना में शामिल गोपनीय साजिश के तहत ‘वर्ल्ड इंडिजनस डे’ को राष्ट्रीय पर्व का दर्जा देने से ही इंकार कर रही है और सरकार के प्रतिनिधि संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत में आदिवासी न होने की बात कहते हैं।

साफ ज़ाहिर होता है कि केंद्र सरकार, राज्य सरकार तथा पूंजीपति वर्ग आदिवासियों के मानवाधिकारों को ताक में रखकर बैठे हैं। तो जाहिर है कि आदिवासी युवाओं को उपेक्षित रखने का षड़यंत्र सरकार के द्वारा बरकरार रखा ही जायेगा। सरकारें और पूंजीपति सामन्तवादी वर्ग आदिवासियों के युवा क्रन्तिकारी इतिहास से परिचित हैं, वे नहीं चाहते कि फिर से तिलका मांझी, सिद्धू कान्हू, फूलो झानो, बिरसा मुंडा पैदा हों और वैचारिक हुल-उलगुलान की शुरुआत हो।

कोमरम भीम, बाबूराव शेडमाके, वीरनारायण सिंह सोनाखान, गुण्डाधुर, रघुनाथ शाह पैदा हों और गोंडवाना की वैचारिक क्रांति का शोला भड़क उठे। मनुवादी सरकारें युवाओं को उपेक्षित कर आदिवासियों के दमन की जो असंवैधानिक तथा अमानवीय नीति अपनाकर दबाना चाहती हैं, वह शायद न्यूटन का क्रिया प्रतिक्रिया का नियम नहीं जानती हैं। जिसके अनुसार जिसे जितनी ताकत के साथ दबाओ वह उतनी ही ताकत के साथ ऊपर उठता है। सन 1950 अर्थात संविधान लागू होने के पश्चात् सरकार की गलत नीतियों पर विमर्श करना अत्यंत अवश्यक है जो आदिवासी युवाओं को सबसे अधिक प्रभावित और उपेक्षित कर रहे हैं।

प्रोफेसर दयाशंकर के अनुसार, “सन 1950 में संविधान लागू होने पर आदिवासियों के प्रति हमारी संवैधानिक नीति चाहे जितनी अच्छी रही हो, लेकिन हमारी राष्ट्रीय विकास की नीति कुछ और रही है। सन् 1950 के बाद की हमारी राष्ट्रीय विकास नीति सतत अंतरराष्ट्रीय विकास नीति के दबाव में रही है। और वह ना केवल हमारी संवैधानिक नीति को प्रभावित करती रही है, बल्कि बदलती भी रही है। इससे आदिवासियों के अपने प्रश्न भी बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं।” (शोध आलेख ‘विकास बांध और विस्थापन’ से)

संविधान और जवाहरलाल नेहरू का ‘आदिवासी पंचशील’ आदिवासियों को संवैधानिक भाषा में ‘अनुसूचित जनजाति’ कहा गया है, परंतु यह स्पष्टतः परिभाषित नहीं हैं। संविधान में विशेष अधिकारों का प्रावधान किया गया है जो संविधान के पांचवी अनुसूची एवं छठीं अनुसूची के नाम से उद्धृत है। पांचवीं अनुसूची का प्रावधान उत्तर पूर्व के आदिवासियों ट्राइबल्स को छोड़कर अन्य सभी आदिवासी बहुल राज्यों/क्षेत्रों के आदिवासियों की उन्नति एवं मानवाधिकार की संवैधानिक सुरक्षा के लिए किया गया है, इसके बावजूद भी आदिवासियों की स्थिति बद से बदतर हुई है। आदिवासियों का शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक विकास सूचकांक सबसे निचले पायदान पर है, वहीं शोषण,अत्याचार, अन्याय, रेप, बलात्कार,बंधुआ तस्करी आदि में बढ़ोतरी हुई है।

इन मामलों में युवा ही सबसे ज़्यादा अन्याय, शोषण और अत्याचार के शिकार हुए हैं, जिन्हें न्याय मिलने की कोई उम्मीद नहीं है। वे साजिशन उपेक्षित हैं। छठवीं अनुसूची का प्रावधान पूर्वी भारत के लिए किया गया है, जिसमें खास व्यवस्था स्वायत्त ज़िला परिषद का प्रबंध है। जिनकी स्थिति आंशिक रूप से बहिस्कृत क्षेत्र के आदिवासियों से बेहतर है परंतु शोषण अत्याचार में खास गिरावट दर्ज नहीं की गई है। गौरतलब है कि भारत का संविधान कितना ही अच्छा हो, अगर संविधान लागू करने वाले जन कल्याण के विरोधी हैं तो वह संविधान भी कारगार नहीं।

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने आदिवासियों के समग्र विकास के लिए “आदिवासी पंचशील” की बात कही थी। यह “आदिवासी पंचशील” आदिवासियों को उनके अनुसार पारम्परिक एवं आधुनिकता के साथ सामंजस्य बैठाकर उनकी समग्र उन्नति का रास्ता प्रसस्त करने के लिए विशेष अधिकारों का प्रावधान करती है।

1. आदिवासियों को उनकी अपनी समझ के अनुरूप विकास करने देना चाहिए, उनके ऊपर बाहर से कुछ नहीं थोपना चाहिए। उनकी परम्परागत कला कारीगरी तथा संस्कृति को हर तरह से प्रोत्साहित करने के लिए प्रयास करना चाहिए।

2. ज़मीन और जंगल में आदिवासियों के अधिकारों का सम्मान किया जाना चाहिए।

3. प्रशासनिक कामकाज तथा विकास के कार्य के लिए उन्हीं लोगों को प्रशिक्षित कर तैयार करना चाहिये। इसमें कोई संदेह नहीं है कि शुरुआत में बाहर से कुछ तकनीकी कर्मियों के मदद की ज़रूरत हो, लेकिन आदिवासी क्षेत्रों को ज़्यादा बाहरी लोगों के आने से बचाना चाहिए।

4. आदिवासी क्षेत्रों को अत्यधिक प्रशासन और योजनाओं की बहुलता में नहीं रखना चाहिए। बल्कि हमें इस तरह संतुलन बनाना है जिससे की यह उनके सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थानों के विरुद्ध न हो।

5. आदिवासी इलाके में हुए विकास कार्य का मूल्यांकन आदिवासी समाज में विकास की यात्रा और मानव चरित्र के विकास के आधार पर होनी चाहिए ना कि लक्ष्य पूर्ति और रूपये के खर्च के आधार पर।

(आदिवासियों की बदलती आर्थिक स्थिति का अध्ययन- डॉ. मुस्ताक अली ई मसवी ,पृष्ठ 2-3 पर उतधृत एलविन वेरियर का उदाहरण। साभार प्रो. दयाशंकर “विकाश बांध और विस्थापन”)

तत्कालीन प्रधानमंत्री का आदिवासी पंचशील का विचार सिर्फ दिखावटी था या यू कहें कि आदिवासी पंचशील तत्कालीन केंद्र सरकार का कोरा आदर्श था जो 1952 की प्रथम पंचवर्षीय योजना में तेज विकास नीति, वैश्विकरण की नीति से सामने आ गया। 1952 में पारित “वन नीति” के कारण करोड़ों आदिवासी विस्थापित हुए लाखों आदिवासी युवा रोज़गार और अस्तित्व की लड़ाई लड़ने पलायन कर गए। जिनका कोई रिकॉर्ड नहीं, अधिकांश तो सरकारी आंकड़ों में दर्ज ही नहीं।

आदिवासी समुदाय में भी युवाओं की संख्या सबसे अधिक है जो आज़ादी के बाद से आज तक सरकार की गलत विकास नीति के कारण साजिशन उपेक्षित हैं।

अप्रभावी शिक्षा नीति एवं योजनाएं-

“आदिवासी पंचशील” में उल्लेखित आदर्शों के विपरीत विकास की सभी नीतियां तथा योजनाएं रखी गयीं। इन योजनाओं तथा नीतियों का आदिवासी पंचशील से सम्बन्ध दूर-दूर तक नज़र नहीं आता है। बल्कि आज़ादी के बाद से लेकर आज तक सरकार ने आदिवासियों, जिनकी जनसंख्या 8% है के प्रति सिर्फ तुष्टिकरण की नीतियां ही अपनाई है जो अधिकांशतः कागजी ही है और आदिवासियों की लंबी दूरी का नुकसान किया है। इन तुष्टिकरण की नीतियों से सबसे अधिक नुकसान आदिवासी युवाओं को हुआ है, चाहे वह कोई भी क्षेत्र हो। आदिवासी युवाओं के प्रति तुष्टिकरण की नीति ही अपनाई गयी, वहीं कुछ वर्ग विशेष के लोगों के लिए बेहतरीन महंगी शिक्षा व्यवस्था, रोज़गार, परिवहन , स्वास्थ्य सुविधा से लेकर तमाम वित्तीय सुविधा आसानी से उपलब्ध होती है।

यह आदिवासी युवाओं के साथ घोर अन्याय तथा उपेक्षा है। वैश्वीकरण, औद्योगीकरण, मशीनीकरण तथा सरकारी उपक्रमों का निजीकरण आदि ये सभी घातक हथियार हैं जो आदिवासी युवाओं को उनके मानवाधिकार से उपेक्षित रखने के सरकार की विकास नीति के गुप्त एजेंडे में शामिल है।

उपेक्षित किया जाने का मतलब सिर्फ अनदेखा किया जाना नहीं होता है, बल्कि सुनियोजित तरीके से बाल्यावस्था से ही दिमागी रूप से कुंद किया जाना, ताकि स्वतन्त्र रूप से वैचारिक तर्कशीलता का गुण विकसित ना हो पाए। समाज में प्रचलित अवैज्ञानिक परंपरा, रूढ़िवादी सोच, और धार्मिक संस्कार या कर्मकांड तर्क युक्त वैचारिकता के पंख काट देते हैं। यह काम भारत की वर्तमान शिक्षा पद्धति और कुछ सामाजिक संस्थाएं बहुत ही साफगोई से कर रही हैं, अर्थात मानसिक चेतना को सुनियोजित तरीके से नष्ट करना भी उपेक्षा ही है।

जॉर्ज कार्लिन के अनुसार-

Governments don’t want well informed, well-educated peoples capable of critical thinking, that is against their interests.  They want obedient workers, people who are just smart enough to run the machines and do the paperwork. And just dumb enough to passively accept it.

जॉर्ज कार्लिन की उपरोक्त तीक्ष्ण टिपण्णी भारत की शिक्षा नीति तथा विकास योजनाओं पर बिलकुल सटीक बैठती है। भारत की शिक्षा नीति 2 तरह की व्यवस्था करती है। सरकारी तथा निजी शैक्षणिक संस्थान, सरकारी शैक्षणिक संस्थान में राज्य सरकार संचालित और केंद्र सरकार संचालित बोर्ड आते हैं। वहीं निजी शैक्षणिक संस्थान तेज़ी से अपने साख जमा रहे हैं। आदिवासियों के अधिकांश बच्चे राज्य सरकार द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थानों में ही जाते हैं, जिनकी हालत बद् से बद्तर है।

कुछ बच्चे पलायन, विस्थापन तथा घुमंतू जीवन के कारण शैक्षणिक संस्थाओं से दूर हैं। बाकि सिर्फ 5% के लगभग बच्चे केन्द्रीय शैक्षणिक संस्थाओं तथा निजी शैक्षणिक संस्थाओं में जाते हैं अध्ययन के लिए। यह कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि सरकारी शैक्षणिक संस्थान/स्कूल जिसमें तुष्टिकरण की नीति अपनाई गयी है, लाखों की तादाद में सस्ते मज़दूर बनाने के कारखाने हैं। इनमें शिक्षा की गुणवत्ता की बजाय खिला पिलाकर धकेलने (उत्तीर्ण करने) की खतरनाक नीति लागू है, जिससे बच्चों की बुनियाद बहुत ही कमज़ोर हो रही है। ऐसे विद्यार्थी आगे की पढ़ाई के लिए सक्षम नहीं बन पा रहे हैं, अगर कुछ सक्षम हो जाएं और उच्च शिक्षा की तरफ रुख करते हैं तो विभिन्न प्रकार के अन्याय और प्रताड़नाओं के शिकार होना पड़ता है फलतः ऊपर बढ़ने ही नहीं दिया जाता है। उन्हें किसी ना किसी तरह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से उपेक्षित ही रखा जाता है।

सबसे अधिक योग्यता (मैरिट) के नाम पर उपेक्षित रखा जाता है जिसे प्राप्तांकों से मापा जाता है। फिर जातिवाद नामक क्रूर मनुवादी व्यवस्था दलित-आदिवासी युवाओं के काबिलियत की हत्या कर रहा है। आधुनिक भारत में शिक्षा का व्यापारीकरण अत्यन्त तेज़ी से फैल रहा है।
इसे महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद जी की कर्मभूमि में उद्धृत टिप्पणी से समझते हैं, वे लिखते हैं,

यह किराये की तालीम हमारे कैरेक्टर को तबाह किये डालती है। हमने तालीम को भी एक व्यापार बना लिया है। व्यापार में ज़्यादा पूंजी लगाओ ज्यादा नफ़ा होगा, तालीम में भी ज़्यादा खर्च करो ज़्यादा ऊंचा ओहदा पाओगे। मैं चाहता हूं ऊंची से ऊंची तालीम सबके लिए मुफ्त हो ताकि गरीब से गरीब आदमी भी ऊंची से ऊंची लियाकत हासिल कर सके और ऊंचा से ऊंचा ओहदा पा सके। यूनिवर्सिटी के दरवाज़े मैं सबके लिए खुला रखना चाहता हूं। सारा खर्च गवर्नमेंट पर पड़ना चाहिए। मुल्क को तालीम की उससे कहीं ज़्यादा ज़रूरत है जितनी फौज की।

सरकार नहीं चाहती कि युवा शिक्षित होकर क्रान्तिकारी वैचारिक परिवर्तन का माद्दा रख सके, वर्गभेद अमीरी गरीबी की खाई पाट सके, अन्याय, अत्याचार, उत्पीड़न के खिलाफ प्रखरता के साथ अपनी आवाज़ बुलंद कर सकें।

कैसा हो युवाओं का भविष्य?

शैक्षणिक व्यवस्था हर वर्ग के विद्यार्थियों के लिए सामान होनी चाहिए, जिसका भार सरकार वहन करे। वंचित तबका खासकर आदिवासी समुदाय की मुख्य समस्याओं में से एक उनकी भाषा है जिनकी वजह से विद्यालयों में उन्हें कमज़ोर और अयोग्य साबित कर दिया जाता है। बगैर किसी अध्ययन के कि क्यों आदिवासियों तथा आदिवासी विद्यार्थियों /युवाओं की स्थिति निंदनीय है?

डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर के प्रयासों से संविधान में आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी, ताकि उनकी शैक्षणिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक स्थिति में उन्नति हो सके। परन्तु आज़ादी के 70 साल बाद भी कोई परिवर्तन नहीं आया है बल्कि स्थिति और भी खराब हुई है। जब देश में गलत भेदभावपूंर्ण और असमान शिक्षा नीति अपनाई जायेगी तो संविधान द्वारा प्रद्दत आरक्षण (प्रतिनिधित्व) और शिक्षा का अधिकार आदिवासी युवाओं की उन्नति में सहायक कैसे हो सकते है?

आरक्षण होने के बावजूद भी आदिवासी युवाओं की शैक्षणिक,आर्थिक स्थिति खराब होने का कारण सरकार की गलत और असमान शिक्षा नीति है। जहां योग्यता को अंको से मापा जाता है। जो युवा आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और स्वास्थ्य संसाधनों से दूर रहकर संघर्ष करते हुए पढ़ाई करते हैं, उन्हें मेरिट (योग्यता) के नाम पर अयोग्य करार दिया जाता है। सरकारी उपक्रमों का निजीकरण ,उच्च शिक्षा हेतु छात्रवृत्ति बंद कर देना आदिवासी युवाओं की घोर उपेक्षा है। आदिवासी युवा सरकार की गैर आदिवासी नज़रिये का शिकार हैं, सरकार नहीं चाहती कि आदिवासी युवाओं में जागृति आये वे उच्च शिक्षित हों और अपने हक की लड़ाई लड़ने उठ खड़े हों। आदिवासी पंचशील का अगर पालन किया गया होता तो आदिवासी युवाओं के लिए अलग से कुछ करने की आवश्यकता नही होती लगभग 8% आदिवासी जो संभवतः यहां के मूलनिवासी हैं जो घोर उपेक्षा के शिकार हैं।

संविधान की पांचवी तथा छठवीं अनुसूची में प्रद्दत विशेषाधिकार आदिवासी तथा आदिवासी युवाओं के शैक्षणिक आर्थिक सामाजिक राजनैतिक और सांसकृतिक उन्नति में सहायक है। आदिवासी पंचशील पांचवी तथा छठवीं अनुसूची के अंतर्गत ही आता है । केंद्र सरकार, राज्य सरकार तथा कॉर्पोरेट घरानों ने आदिवासियों के जल जंगल ज़मीन का बहुत दोहन किया है, परन्तु उसके बदले में आदिवासी युवाओं का भविष्य अंधकार में धकेल दिया है, जो अपने खत्म होते अस्तित्व को बचाने में जुटे हुए हैं।

आदिवासी युवा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से उपेक्षित हैं यही कारण है कि आदिवासी युवाओं का शैक्षणिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक सूचकांक सबसे निचले स्तर पर है तथा उनकी विशिष्ठ सांस्कृतिक सभ्यता, परम्परा का अस्तित्व खतरे में है। प्राकृतिक संतुलन को अगर बनाये रखना है तो आदिवासी युवाओं को उपेक्षित ना कर उचित कदम उठायें यही समय की मांग है

(नोट- यह आर्टिकल पहले Adivasiresurgence.com पर प्रकाशित हो चुकी है।)

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