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“दलित शोधार्थियों को तटस्थ होकर शोध करने की आवश्यकता है”

शोध करना साहित्य, समाज अथवा उन सभी के लिए के लिए ज़रूरी है जो कुछ नया दिखाना और देखना चाहते हैं, अपने इतिहास से प्रेरणा लेते हैं। आज हमारे सामने जितनी भी पुस्तकें या रिपोर्ट या ऐसी सामग्री जिससे समाज के सभी वर्गों की वास्तविकता का पता चलता है वह सभी शोध से ही संभव हो पाया है। ऐसा समाज जो सदियों से शोषण का शिकार रहा है उस तबके के लिए शोध और ज़रूरी हो जाता है।

आज के समय में शोध अंतर्विषयक हो गया है इससे किसी भी विषय या क्षेत्र को समझने में आसानी होती है, तटस्थता बनी रहती है। अंतर्विषयक शोध के सहारे दलित शोधार्थी अपने शोध विषय के साथ-साथ उन सभी पक्षों को भी खोज सकते हैं जिनके ऊपर शोध बहुत कम हुए हैं और वे बेहद महत्वपूर्ण हैं।

साहित्य के क्षेत्र में:

साहित्य को समाज का दर्पण माना जाता है। यह परिभाषा सर्वप्रथम हिन्दी साहित्य के लेखक प्रेमचंद ने दिया था। उनके परिभाषा के अनुसार उनकी अपनी दृष्टि व परिस्थिति थी। लेकिन आज जब उसी परिभाषा को लेकर विचार करते हैं तो स्थिति कुछ अलग दिखती है। मुख्य सवाल यह है कि जब साहित्य समाज का दर्पण है तो समाज के एक विशेष तबके को लेकर ही अब तक का साहित्य क्यों लिखा गया?

सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य को देखें तो स्पष्ट दिखाता है कि उसमें से दलित, आदिवासी व महिलाएं सिरे से गायब हैं। जबकि साहित्य के अंतर्गत प्रगतिशील साहित्य धारा भी अपनी उपस्थिती दर्ज करवा चुका होता है। कुछ लोग कहते हैं कि पूरा हिन्दी साहित्य ही प्रगतिशील है। तो यहां सवाल है कि जब पूरा हिन्दी साहित्य ही प्रगतिशील है तो फिर इतना एक पक्षीय क्यूं है? हाशिये का समाज साहित्य से गायब क्यूं?

हिन्दी साहित्य के अंतर्गत लगभग सभी विश्वविद्यालयों में दलित शोधार्थी शोध करने के लिए एमफिल पीएचडी में प्रवेश लेते हैं। साहित्य के विद्यार्थियों की ये शिकायत रहती है कि दलित साहित्य या विमर्श पर साहित्य के अंतर्गत कम काम हुआ है। यह इसलिए होता है कि या तो शोधार्थी अपने कामों में पक्षपात करते हैं अथवा वह उसको गंभीरता के साथ करने में रुचि नहीं दिखाते।

इसमें एक बात स्पष्ट है कि जो जिस विचारधारा का होगा वह उसी विचारधारा की सीमा के तहत ही शोध करेगा। आपको यदि मौका मिला है और आप हाशिये के समाज के वर्ग से आते हैं तो आपका ये पहला कर्तव्य होगा कि आप भी अपने समाज के कवियों व लेखकों की पुस्तकों को पढ़े व उस पर सही शोध करें। क्योंकि वह आपकी समस्या है तो उसकी शोध दृष्टि आपको ही पता होगी।

दलित समाज से एकदम “ना” के बराबर शोधार्थी एमफिल पीएचडी में आते हैं। उसमें से ज़्यादातर तो मानसिक गुलाम होते हैं। मानसिक गुलाम मैं यहां इसलिए कह रहा हूं कि वे लोग उसी परिपाटी को अपनाते हैं जिस परिपाटी में मुख्य धारा के शोधार्थी या लेखक चलते हैं। और इस तरह अपना अस्तित्व खोकर किसी ऐसे मार्ग को अपना लेते हैं जो उन्हें स्वतंत्र चिंतन नहीं करने देता है।

अक्सर दलित शोधार्थियों के समक्ष ये समस्याएं आती हैं। जब दलित शोधार्थी को मौका मिलता है तो वह उस मौके को गंवा देता है। दलित शोधार्थियों का कर्तव्य है कि साहित्य के अंतर्गत ऐसे सभी हाशिये के लेखकों को खोजकर लाएं जिनपर अभी तक शोध या तो नहीं हुआ है या एक तटस्थ शोध नहीं हुआ है। और इतना ही नहीं जितने भी शोध हुए हैं उन सभी में ये देखने का प्रयास करना चाहिए कि उन शोधों में हाशिये के समाज अथवा दलित विमर्श के बारें में कैसा चिंतन किया गया है ।

दलित समाज के शोधार्थियों का यह भी कर्तव्य बनता है कि अपने शोध का विषय अपने समाज व आपकी विचारधारा के लेखकों को ही बनाएं । इससे शोध दृष्टि में तटस्थता भी आएगी और सच सामने आएगा । इसी को लेकर आदिवासी कवि वारुण सोनवाने की एक कविता भी है

समस्या हमारी है किन्तु मुझे ले जाकर मंच के सामने नुमाइश की तरह बैठा दिया गया है और मेरी समस्या मुझसे न बोलवाकर वो खुद कह रहे हैं।

बात स्पष्ट है कि जिसकी जो समस्या है वह खुद कहेगा तो उसमें यथार्थता आएगी नहीं वह सिर्फ किताबी ज्ञान बनकर रह जाएगा।

साहित्य में ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जाएंगे जहां पर दलितों, स्त्रियों के साथ पक्षपात किया गया है। कहने के लिए तो साहित्य के अंतर्गत प्रगतिवादी धारा भी है और साहित्य को समाज का दर्पण भी कहा जाता है फिर साहित्य में ये पक्षपात क्यूं? इन सभी बहुसंख्यक समाज को हाशिये पर क्यूं कर दिया गया है। ज़ाहिर सी बात है कि वजह यही रही होगी जो आज है। किसी लेखक के चिंतन को ज़िंदा करने के लिए उसकी आलोचना व समीक्षा ज़रूरी होती है वह भी तटस्थ भाव से। जिसकी कमी हिन्दी साहित्य के अंतर्गत दिखाई देती है

लिखित दस्तावेज़ किसी भी समाज के इतिहास को बताने के लिए अतिआवश्यक होते हैं। हिन्दी साहित्य के अंतर्गत जिसे हाशिये का समाज कहा गया है उस समाज के साहित्य को नोटिस न करने के कारण और उस पर शोध न होने की कमी के कारण उसे हाशिये पर रहना पड़ रहा है। जबकि साहित्य भरपूर मात्रा में लिखा गया है ।

विमर्शों का आगमन ही इस बात का पूरा संकेत है कि साहित्य में कहीं न कहीं पक्षपात हुआ है । वरना सुमन राजे को हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास लिखने की जरूरत न पड़ती । मुक्तिबोध को नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र लिखने की ज़रूरत ना पड़ती। पूरे हिन्दी साहित्य का अध्ययन करने पर देखते हैं कि दलित और महिला रचनाकार एक सिरे से गायब हैं।

आज के महिला शोधार्थियों का यह कर्तव्य है कि वह इन सभी हाशिये पर डाल दिये गए लेखकों पर अध्ययन करें और शोध करें। क्योंकि ये आपकी समस्या है तो आप ही इसे शोध के द्वारा सही तरीके से परिभाषित कर सकती हैं।

दलित समाज के लेखकों के पास इतना पैसा नहीं होता कि वे अपनी पुस्तकों को छ्पवाकर प्रचार प्रसार कर सकें। यह स्थिति जब प्रिंट मीडिया नहीं था तब से है।

अन्य विषयों में :

साहित्य की तरह ही स्थिति लगभग सभी विषयों में है। समाजशास्त्र, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि सभी विषयों में है। सबसे ज़्यादा समस्या इतिहास में आती है। यहां मुख्यधारा का इतिहासकार हाशिये के समाज को अपने विचारधारा के अनुसार लिखने का प्रयास करता है। दलित शोधार्थियों का कर्तव्य है कि वे अपने समाज के नायकों को खोजें, उनकी सही पहचान करें, उनकी उपलब्धियों को एक तटस्थ भाव से समाज के सामने लाएं।

ऐसे कई बहुजन नायक और उनके द्वारा लिखित दस्तावेज़ आज भी गुमनामी में हैं। दलित शोधार्थी बिना किसी मेहनत के सिर्फ इन्टरनेट के भरोसे अपना शोध पूरा कर लेना चाहता है। लेकिन समस्या वहीं फिर आती है कि हम जिन पुस्तकों का आधार बनाकर शोध कर रहे हैं वह वास्तविकता के कितना नज़दीक है। दूसरी चीज हम बिना शोध किए ये भी कैसे पता लगाएंगे की वास्तविकता क्या है । यदि यह पुस्तक गलत गई तो सही क्या है सही कौन सी पुस्तक में दिया गया है।

एक उदाहरण के तौर पर समझने का प्रयास करते हैं। मेरे एक पीएचडी शोधार्थी मित्र हैं उनका चयन पीएचडी में तो आरक्षित कोटे से हो गया। जब विषय चयन का समय आया तो वह कोई कामचलाऊ सा विषय खोजने लगे। सत्य यह भी है कि आप जब ऐसे कामचलाऊ विषय का चयन करते हो तो वह आपको आसानी से मिल भी जाता है। क्योंकि ऐसे विषयों पर आसानी से पुस्तकें भी उपलब्ध हो जाती हैं। किन्तु आप जब वास्तव में हाशिये के समाज के ऊपर काम करना चाहते हैं तो उसमें आपको मेहनत करनी होती है जो कोई करना नहीं चाहता। ज़ाहिर सी बात है उन्हीं की तरह इनके पहले वाले भी रहे होंगे तभी तो उस विषय पर सही पुस्तके नहीं उपलब्ध हैं।

दलित शोधार्थी एमफिल, पीएचडी में आने के बाद कामचलाऊ विषयों पर शोध क्यों करना चाहते हैं? वे गंभीर विषयों पर शोध क्यों नहीं करना चाहते। वही आगे जब शोध पूरा कर लेंगे तो उन्हीं की शिकायत होती है कि अमुक विषय पर प्रमाणित पुस्तकें नहीं हैं। अमुक दलित कवि या लेखक या संपादक के ऊपर शोध नहीं हुआ है। तो यहां स्पष्ट है कि आपको जब मौका मिला था तो आपने गंवा दिया इसी प्रकार अन्य लोग भीं हैं तो आप उम्मीद किससे करते हैं।


ये आलेख मुख्यतः दलित समाज के शोधार्थियों के लिए लिखा गया है। दलित शोधार्थी बिना किसी झिझक के, बिना किसी मानसिक दबाव के अपना शोध कार्य करें और उन सभी पक्षों व विषयों को सामने लाएं जिससे सत्यता प्रमाणित हो ।

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