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मां सबके लिए मेहंदी पीस तो सकती थीं मगर खुद नहीं लगा सकती थीं क्योंकि वो विधवा हैं

हिंदी कैलेंडर शायद ही आज की युवा पीढ़ी को कंठस्थ याद रहता हो लेकिन इस कैलेंडर का सावन माह अत्यंत लोकप्रिय रहा है जो बच्चे से लेकर बूढ़ों तक के बीच।

बचपन से ही जैसे मैं घर में मां और दादी के मुंह से सुनती थी कि सावन का महीना शुरू हो गया है, मेरे अंदर खुशी की लहर दौड़ जाती थी क्योंकि यही वो माह है जब हिंदू धर्म के अधिकांश त्यौहारों की शुरुआत होती है। जिसका सिलसिला कार्तिक माह तक निरंतर चलता ही रहता है। त्यौहार का मतलब स्कूल की छुट्टी, पकवान बनना और घूमना-फिरना जैसे दुनिया भर के उत्साह।

समय बिता और सावन का अर्थ भी मेरे जीवन में बदलता गया। अब मेहंदी लगाने की ललक, घर की बड़ी बहनों और चाची, दादी की तरह हरी-हरी चूड़िया पहनने की ललक ने मेरी जीवन में जगह बना ली थी। मेहंदी के रंग से लेकर मेंहदी की खुशबू सब मनभावन हो गई।

मेरे घर के आस-पास मेहंदी के पौधे थे जिसके वजह से हमलोग कॉस्मेटिक मेहंदी की जगह नैचुरल मेंहदी को ज़्यादा इस्तेमाल करना पसंद करते थे। मेहंदी के पत्तों को पीसकर पेस्ट बनाने का काम अक्सर मेरी मां करती थीं।

इन सबके बीच एक अजीब मानसिकता से मेरा सामना होता था। मेरी मां को इस बात का डर लगा रहता था कि मेहंदी पीसते समय कहीं उनके हाथ में मेहंदी का रंग ना लग जाए और फिर ऐसा होने पर समाज क्या कहेगा, बस इस डर से वो अपने हाथों में प्लास्टिक का ग्लप्स पहनकर मेंहदी पीसती थीं।

इसके अलावा वो बाकि महिलाओं की तरह हरी कांच की चूड़ियां भी नहीं पहन सकती थीं। मेहंदी और चूड़ी तक ही  विधवाओं के साथ दोहरे व्यवहार की प्रथा सीमित नहीं रही, सावन में होने वाली हरियाली तीज से लेकर मधू श्रावणी पूजा तक विधवा औरतें नहीं कर सकती थीं और ना ही उसमें उपस्थिति हो सकती थीं।

मुझे मां का इस तरह से सावन के रंगों से दूर रहना खलता था और मैं हमेशा यही सोचती रही कि औरतों के शृंगार से पति के जीवित होने या ना होने का क्या सम्बंध?

लड़की के जन्म होने के साथ ही उसे काजल लगाया जाता है और बाद में हरेक शृंगार वो बचपन से ही करती है फिर ऐसी कौन सी वजह है कि विधवा होते मेहंदी लगाने, बिंदी लगाने से लेकर सजने-संवरने और चटक हरा, लाल रंग के कपड़े पहनने पर हमारा समाज प्रथा के नाम पर रोक लगा देता है?

अाज भी मुझे सावन माह अत्यंत प्रिय है। खेतों की हरियाली से लेकर नदियों के तट तक लबालब पानी मेरी निगाहों को सुकून देती है लेकिन अब मुझे ना तो मेहंदी आकर्षक लगती है और ना हरी चूड़िया क्योंकि इन सब पर हमारे अधिकार से ज़्यादा आज भी पितृसत्तात्मक समाज के दकियानूसी नियम लदे हुए हैं।

मुझे इंतज़ार उस सुबह का है जब हमारा समाज इतना प्रगतिशील हो जाएगा कि औरतों को कम-से-कम अपने कपड़े, अपने शृंगार को चुनने के लिए समाजिक चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ेगा, तब जाकर फिर मेहंदी की खुशबू और रंग मुझे आकर्षित करेगी।

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