Site icon Youth Ki Awaaz

“समलैंगिक समुदाय को दी गई यातनाओं के लिए इतिहास को माफी मांगनी चाहिए”

आज़ाद भारत में आबादी का एक बड़ा हिस्सा औपनिवेशिक भारत में 1861 में बने ‘आर्डर ऑफ दी नेचर’ के बने कानून के आधार पर देश का नागरिक होते हुए अपनी पहचान छुपाते हुए जीवन जीने को विवश रहा है। मौजूदा समाज, सामाजिक और राजनीतिक चेतना में समलैंगिकता के सवाल पर विरोधाभासी स्थिति में था। जबकि सांस्कृतिक प्रगतिशीलता का दंभ भरते हुए देश ने धीरे-धीरे उन सामाजिक बदलाव को भी स्वीकार्य किया है जिसको लेकर परंपरागत समाज कभी सहज नहीं था। मसलन, सह-जीवन और किराए की कोख जैसी प्रवृत्तियां समाज को स्वीकार्य नहीं थी, पर धीरे-धीरे वह समाज में अपनी स्वीकार्यता बना रही है।

समलैंगिकता और धारा 377 के विषय पर आज देश की सर्वोच्च अदालत की पांच जजों (चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, एएम खानविल्कर, डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा) की बेंच ने सर्वसम्मति से फैसला दिया है। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा कि समलैंगिक समुदाय के पास आम नागरिक के बराबर अधिकार है, समलैंगिक सेक्स आपराधिक नहीं है। संविधान पीठ ने समलैंगिकता को जैविक और प्राकृतिक मानते हुए इसे व्यक्तियों का निजी अधिकार माना है और धारा 377 को समानता के अधिकार का हनन माना है।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिक समुदायों के अधिकारों के मानवीय पहलूओं पर ध्यान देने की कोशिश की है। जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने यहां तक कहा कि इतिहास को समलैंगिक समुदाय को उनकी यातना के लिए माफी मांगनी चाहिए। समलैंगिक समुदाय को बहुसंख्यकों द्वारा समलैंगिकता को पहचान ना देने पर डर के साए में रहने के लिए विवश होना पड़ा।

निसंदेह, लंबी लड़ाई के बाद समलैंगिक समुदाय की यह जीत ऐतिहासिक है जिसका जश्न लोग सड़कों पर मनाने के लिए उतर रहे हैं। मौजूदा फैसले के बाद, अब भारत भी विश्व के 26वें देश में शामिल हो गया है, जहां समलैंगिक समुदाय के लोगों को संवैधानिक अधिकार प्राप्त है।

जहां एक तरफ, समलैंगिक समुदाय के लिए खुशी का माहौल है वहीं दूसरी तरह इसकी चुनौतियां अधिक गंभीर हैं, जिसपर विचार करना ज़रूरी है। सर्वोच्च न्यायालय के मौजूदा फैसले के बाद समलैंगिक समुदाय को संवैधानिक अधिकार तो मिल गए हैं परंतु सामाजिक और राजनीतिक अधिकार के लिए अभी लंबा संघर्ष करना होगा। समलैंगिक समुदाय को यह समझना होगा कि संवैधानिक अधिकार के साथ-साथ सामाजिक और राजनीतिक चेतना ही किसी समुदाय की प्रासंगिकता को जायज ठहराती है और उसको स्वीकार्य करती है।

समलैंगिक सम्बंधों को कानूनी वैधता मिलने के बाद समलैंगिक विवाह, संपत्ति और पैतृक अधिकारों के मुद्दों को भी नए तरीके से पुर्नपरिभाषित करने के लिए पुर्नसंघर्ष भी करना होगा। हम यह नहीं भूल सकते हैं कि विवाह और परिवार अभी तक समुदाय के नियम-कायदों से भी संचालित हो रहे हैं और सामुदायिक नियम-कायदे कई बार न्याय को हाशिए पर ढकेल देते हैं।

समलैंगिकता को सर्वमान्य समाज में स्वीकार्य करने के लिए सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मोर्चों पर कई तरह की पहल करनी होगी। हम यह नहीं भूल सकते हैं कि जो समाज स्त्री-पुरुष को ही एक साथ देखकर सहज व्यवहार नहीं करता, दिमागी फितूर मन में लेकर चलता है, वह समाज स्त्री-स्त्री और पुरुष-पुरुष के मध्य अधिक सहजता को लेकर भी कई दिमागी कसीदे ज़रूर गढ़ेगा। इसके लिए ज़रूरी है कि समलैंगिकता के विषय पर राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रयासों में गतिशीलता आए। इसके साथ-साथ तमाम राजनीतिक दलों को भी समलैंगिकता के पक्ष में लोकतांत्रिक राय बनाने की ज़रूरत है क्योंकि अब तक इस विषय पर वह अपनी राय नाप-तौल कर ही रखते हैं। इन प्रयासों से ही सामाजिक संस्थाए समलैंगिक लोगों के साथ सहज हो सकेंगी और यथोचित व्यवहार समलैंगिक समुदाय के साथ कायम हो सकेगा।

आज का भारत हर राह पर विकास तो कर रहा है, आधुनिकता की भेड़-चाल में कदमताल भी कर रहा है पर कहीं ना कहीं लोगों की सोच आज भी पुरातन सांस्कृतिक चेतना के दवाब में ज़्यादा बदली नहीं है। धारा 377 के पक्ष में कई लोग तर्क रखते हैं वह अलोकतांत्रिक है, जैसे समलैंगिकता अप्राकृतिक है, समलैंगिकता पश्चिम सभ्यता की देन है, समलैंगिकता को वैध करने से एक दिन पूरा देश समलैंगिक हो जाएगा, समलैंगिकता को वैध करने से बच्चों और युवा पीढ़ी पर गलत असर पड़ेगा।

इन यथास्थितियों के साथ-साथ यह भी समझना ज़रूरी है कि आज़ाद भारत में एक साथ दो कानून प्रभावी रूप से चलते हैं, भारत के संविधान का कानून और दूसरा समाज का कानून। देश का लोकतांत्रिक कानून तो समानता के साथ जीवन जीने का अधिकार दे देता है पर समाज का सामुदायिक कानून अपनी मान्यताओं के आधार पर सारे अधिकार को ठेंगे पर रखता है और जीने के अधिकार की धज्जियां उड़ाता है। साथ-ही-साथ यह भी एक अकाट्य सत्य है कि भारत के संविधान में भी तभी बदलाव आता है जब समाज की सोच में बदलाव अगड़ाई लेती है। किसी भी देश का संविधान हमेशा समाज की सोच का ही प्रतिबिम्ब होता है।

बहरहाल, आज समलैंगिक समुदाय के लिए संवैधानिक आज़ादी का दिन है यह उनके संघर्ष की पहली अंगड़ाई है। यह समलैंगिक समुदाय के संघर्ष की पहली जीत तो है लेकिन अभी और भी संघर्षों के लिए संगठित होकर लंबी लड़ाई लड़नी है।

Exit mobile version