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मुहब्बत की इस कानूनी जीत के साथ सामाजिक जीत भी ज़रूरी है

समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के साथ ही 6 सितम्बर का यह दिन भारतीय इतिहास में दर्ज हो चुका है। अब दो लोगों के प्यार को सरकार के फैसले की दरकार नहीं रहेगी। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि समलैंगिकता अपराध नहीं बल्कि अपनी पसंद का मुद्दा है और समाज को भी इसे हेय दृष्टि से देखना बंद कर देना चाहिए। समाज का बड़ा तबका आज भी समलैंगिकता को टैबू ही मानता है और अपनी रूढ़िवादिता को ही प्रकृति का नियम समझता है।

बड़ी अजीब सी बात है सोसाइटी को भूत-प्रेतों में यकीन है मगर समलैंगिकता को आधुनिकता से उत्पन्न हुई एक मानसिक बीमारी का पर्याय कहा जाता है। सेक्शन 377 के अपराध की श्रेणी से हटाए जाने से उम्मीद है कि अब लोगों में इसके बारे में पढ़ने और समझने की जिज्ञासा उत्पन्न होगी और वे काफी हद तक समलैंगिकता से रूबरू हो सकेंगे। अंग्रेज़ी साहित्य में बाकायदा एक सेक्शन समलैंगिक समुदायों के नाम है जिसे क्वीअर लिटरेचर के नाम से जाना जाता है। वर्जीनिया वुल्फ और जेम्स बाल्डविन जैसे महान लेखकों ने समलैंगिकता की आवाज़ को मुकम्मल पहचान दी है।

जब हम किस हाथ से खाएंगे यह हमारे बस की नहीं है तो किसी के समलैंगिक होने पर हम कैसे सवाल उठा सकते हैं? किससे संबंध रखना है किससे नहीं इसका निर्णय सरकार या न्यायालय कैसे ले सकती है?

धारा 377 के तहत समलैंगिकता को ‘अप्राकृतिक यौनाचार’ मानते हुए अपराध की श्रेणी में रखा गया था जिसके लिए 10 वर्षों की कैद एवं जुर्माने का प्रावधान था। इतना ही नहीं, यह अपराध गैर ज़मानती था और आपको शक की बिनाह पर या या गुप्त सूचना का हवाला देकर भी उठाया जा सकता था। क्या यह हास्यास्पद नहीं है कि दो वयस्कों की आपसी सहमति और इच्छाएं इतनी आपत्तिजनक लगीं कि इसे गैर ज़मानती अपराध की श्रेणी में रखना पड़ा?

वैसे धारा 377 इस देश में अंग्रेजों ने 1862 में लागू की गई थी। इंग्लैंड में भी सेक्शुअल ऑफेंस एक्ट 1967 के तहत समलैंगिकता को डिक्रिमनलाइज़्ड यानी अपराध की श्रेणी से हटा दिया गया है। कोई भी महिला/पुरुष 21 वर्ष के पश्चात अपनी मर्ज़ी से किसी भी अन्य पुरुष/महिला के साथ संबंध बना सकता/सकती है।

कितनी अजीब बात है कि कहां एक ओर 1942 में पूरा हिंदुस्तान भारत छोड़ो आंदोलन में अंग्रेजों से आज़ादी चाहता था और कहां हमारा समाज आज भी अंग्रेज़ों के नियम, कानून को प्राकृतिक मानकर उसी ढर्रे पर चलना चाहता है। एक तरफ जहां संविधान हमें अनुच्छेद 21 के तहत जीने एवं अनुच्छेद 14 के तहत समानता का अधिकार देता है, वहीं दूसरी ओर धारा 377 इन अधिकारों के ऊपर ग्रहण सा प्रतीत होता था।

इस मामले में जुलाई 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटाने का फैसला दिया था। केंद्र सरकार ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। जिसके बाद दिसंबर 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश को पलटते हुए समलैंगिकता को वापस से अपराध की श्रेणी में डाल दिया।

मगर उम्मीद की किरण एक बार फिर से जगी जब पांच लोगों की याचिका दायर करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इसपर पुनर्विचार करने का फैसला किया। 10 जुलाई, 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 की संवैधानिकता पर विचार करने के लिए पांच सदस्यीय बेंच का गठन किया। अब जो फैसला आ चुका है तो फैज़ की ये लाइनें चरितार्थ होती सी मालूम होती हैं-

“लाख पैग़ाम हो गए हैं

जब सबा एक पल चली है

जाओ अब सो रहो सितारों

दर्द की रात ढल चली है”

 

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