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कभी जाति-धर्म तो कभी क्षेत्रवाद के नाम पर भड़की भीड़ के पीछे फायदा किसका?

भारत में तालिबानी भीड़ समय-समय पर अपना तांडव मेहनतकश आवाम पर करती है। उनका शिकार कभी मुस्लिम, दलित, बाहरी राज्य के मज़दूर तो कभी मेहनकश आवाम के लिए सत्ता के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने वाले लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी, प्रगतिशील नेता बनते हैं।

अभी ताज़ा घटना गुजरात की है, जहां उत्तर प्रदेश और बिहार के मज़दूरों पर हमले जारी हैं, जिस कारण हज़ारों की तादात में मज़दूरों का अपने घरों की तरफ पलायन जारी है। जिसको जो भी परिवहन का ज़रिया मिल रहा है, अपनी जान बचाकर भाग रहा है। मेहनतकश आवाम पर यह हमला कोई पहली बार या सिर्फ गुजरात में हुआ हो ऐसा नहीं है। इससे पहले भी ऐसे हमले अलग-अलग राज्यों में होते रहे हैं। ऐसे ही मेहनतकश अपनी जान बचाकर अपने घर की तरफ भागते रहे हैं। कभी आसाम तो कभी महाराष्ट्र तो कभी कोई दूसरे राज्य ऐसी अमानवीय घटनाओं में शामिल रहे हैं।

अब सबसे पहले तो सवाल ये हैं कि इन हमलों के पीछे जो भीड़ हमें दिखती है, जो इंसान के खून की प्यासी बन जाती है, इस भीड़ में कौन लोग शामिल होते हैं? कौन इस भीड़ को चला रहा है? कौन से विचार इस भीड़ के पीछे मज़बूती से खड़े हैं? क्या सिर्फ ये भीड़ बाहरी मज़दूरों को ही टारगेट करती है? भीड़ के गुस्से का कारण क्या है? पीड़ितों के पक्ष में हर जगह कौन लोग और कौन से विचार मज़बूती से खड़े रहते हैं?

पहले, दूसरे और तीसरे सवाल के जवाब को शुरू में ढूंढने की कोशिश करते हैं

इस भीड़ को हर जगह धर्म-जाति-इलाके के नाम पर राजनीति करने वाली पार्टियां, कॉर्पोरेट, दलाल, नौकरशाह और फासीवादी विचार मज़बूती से स्पोर्ट करते हैं। उसको अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते हैं।

इस भीड़ में कौन लोग शामिल किए जाएंगे, इसका फैसला इस भीड़ का शिकार कौन होगा इस आधार पर तय किया जाता है। अगर मुस्लिमों के खिलाफ भीड़ इकट्ठा करनी है तो भीड़ में हिन्दू धर्म की सभी जातियों के लोगों को शामिल किया जाता है। अगर भीड़ को दलितों पर हमला करना है तो हिन्दू धर्म के सवर्णों को शामिल किया जाता है। अगर बाहरी राज्य के मज़दूरों को शिकार बनाना है तो सभी धर्मों के लोग शामिल किए जाते हैं, क्या दलित, क्या स्वर्ण, क्या हिन्दू क्या मुस्लिम। अब अगर शिकार कोई बाहरी देश से हो तो सभी धर्म, जातियां, सभी राज्यों के सभी नागरिक भीड़ का हिस्सा होते हैं।

हम रोते-चिल्लाते तब हैं, जब हम खुद शिकार होते हैं लेकिन जब हम शिकारी भीड़ का हिस्सा होते हैं तो हुंवा-हुंवा करके अपनी बहादुरी को प्रदर्शित करते हैं।

अब चलते हैं चौथे सवाल की ओर, भीड़ के इस गुस्से का कारण क्या है, क्यों वो आदमखोर भीड़ बनकर इंसानों का खून पीती है?

इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है असमानता पर आधारित यह व्यवस्था। असमानता पर आधारित उस व्यवस्था के कारण अमीरी-गरीबी की खाई बढ़ती जा रही है। एक बहुत बड़ा तबका कमरतोड़ मेहनत करने के बाद भी रोज़मर्रा की ज़रूरतें रोटी-कपड़ा-मकान, शिक्षा, इलाज से वंचित है लेकिन एक बहुत छोटे वर्ग के पास वो सब है जो इस दुनिया में मेहनतकश आवाम ने पैदा किए हैं।

जो मेहनतकश आवाम है, जो मेहनत करने के बाद भी मौलिक संसाधनों से वंचित है, उनमें धीरे-धीरे गुस्सा पनप रहा होता है। अब यह गुस्सा निकलना तो उस वर्ग पर चाहिए जो बिना मेहनत किये मेहनतकश आवाम की मेहनत की कमाई को लूटकर ऐशो-आराम कर रहा है लेकिन यह गुस्सा निकल रहा है एक मेहनतकश का दूसरे मेहनतकश पर, इसके पीछे क्या कारण है?

शातिर लुटेरा वर्ग

जो लुटेरा वर्ग है वह बड़ा शातिर है। वह कभी मेहनतकश को एहसास ही नहीं होने देता कि उसकी मेहनत को लूटा जा रहा है। वह बड़े ही शातिराना तरीके से यह प्रचार करता है कि मज़दूर-किसान की बदहाली का असली कारण फलाना धर्म के लोग हैं, फलानी जाति के लोग हैं, पड़ोसी मुल्क है, पड़ोसी राज्य के लोग हैं। उसके इस प्रचार में मीडिया से लेकर उनके द्वारा बनाये गए धार्मिक, जातिय व इलाकाई संगठन, राजनीतिक पार्टियां शामिल रहती हैं।

इंसान को दूसरे इंसान की जाति-धर्म का डर दिखाकर इकट्ठा किया जाता है। उनको जाति-धर्म आधारित संगठनों में भीड़ के रूप में भर्ती करते हुए पहला पाठ ही यह पढ़ाया जाता है,

देखो फलानी जाति, फलाना धर्म और फलाने मुल्क के लोग कितने संगठित हैं। संगठित होने के कारण ही वे हमारी जाति-धर्म-इलाके का हक खाकर आगे बढ़े जा रहे हैं। आज जो शिक्षा-रोज़गार-स्वास्थ्य, भुखमरी जितनी भी इंसान की समस्याएं हैं, उनका ज़िम्मेवार ये ही लोग हैं। वे हिंसक हैं, निर्दयी हैं, आदमखोर हैं। वे तैयार हैं हम पर हमला करने के लिए, वे तैयार हैं हमें मिटाने के लिए, अगर आज हम संगठित नहीं हुए तो आने वाले समय में हमारी जाति-धर्म का नामो-निशान ही मिट जाएगा इसलिए जितनी जल्दी हो सके हमें इकट्ठा होकर दूसरी जाति या धर्म के लोगों को रोकना होगा। उनको मिटाना होगा।

धीरे-धीरे लोग जातिय, धार्मिक, इलाकाई, राष्ट्रवादी संगठनों में जमा होने लगते हैं। वे अपने से दूसरी पहचान वालों से नफरत करने लगते हैं, उनको अपना दुश्मन समझने लगते हैं। इस फिराक में रहते हैं कि कब हमको मौका मिले ताकि उनको मारकर अपना छीना जा रहा हक बचाया जा सके।

भीड़ के दिमाग में यह बैठाया जाता है कि यह जो मौजूदा कानून व्यवस्था है वो दूसरों का पक्ष लेती है। ऐसी कानून व्यवस्था की परवाह किये बिना भीड़ को खुद अपना इंसाफ करने की ज़रूरत है क्योंकि भीड़ द्वारा किया गया इंसाफ सर्वोपरि है।

इसके बाद भीड़ जो तांडव समय-समय पर करती है उसी का नतीजा कभी मुंबई, कभी बंगाल, कभी आसाम, कभी गुजरात तो कभी दूसरी जगह की घटनाएं हमारे सामने आती रहती हैं। भीड़ कभी मुस्लिमों, कभी सिखों, कभी ईसाइयों, कभी दलितों को, कभी दूसरी भाषा वालों को, कभी उत्तर भारतीयों या कभी दक्षिण भारतीयों, कभी बंग्लादेशी घुसपैठियों, कभी रोहिंग्या मुसलमानों के खात्मे के लिए इकट्ठा होकर नरसंहार करती रहती है।

आवाम की असली दुश्मन है कॉर्पोरेट पूंजी, जिसकी लूट नीति के कारण सभी समस्याएं पैदा हुई हैं। जिसका विरोध मेहनतकश आवाम को इकट्ठा होकर करना चाहिए लेकिन पूंजीपतियों द्वारा सत्ता में बैठाए गए राजनीतिज्ञ, सिस्टम में बैठें दलाल नौकरशाहों के जाल में फंसकर हम असली दुश्मन के खिलाफ लड़ने की बजाए हिंसक भीड़ का हिस्सा बनकर हमारी ही मेहनतकश आवाम का कत्लेआम कर रहे हैं।

 फिर भी उम्मीद की चिंगारी बाकी है, एक बहुत बड़ा तबका जिसमें प्रगतिशील कलाकार, पत्रकार, बुद्धिजीवी, छात्र, किसान, मज़दूर, नौजवान और वामपन्थी पार्टियां मज़बूती से इस भीड़ और भीड़ को संचालित करने वालों के खिलाफ लड़ रही हैं। अपनी जान की कुर्बानियां दे रही हैं।

उम्मीद की किरण का सवेरा बहुत जल्दी होगा। वो सुबह जिसमें ऐसी भीड़ किसी को अपना शिकार नहीं बनाएगी। किसी मेहनतकश को अपना काम धंधा छोड़कर भीड़ के डर से ऐसे कभी नहीं भागना पड़ेगा। किसी मां से ना नजीब छीना जाएगा और ना किसी बेटे से उसका बाप अखलाक छीना जाएगा और ना ही किसी स्वामी को इसलिए मारा पीटा जाएगा क्योंकि वो तार्किक आलोचना कर रहे हैं। उस दिन मेहनतकश इकट्ठा होकर लुटेरे की लूट बन्द करवाएगा।

मेहनतकश आवाम को भी लुटेरी फासीवादी सत्ता की चाल में फंसने की बजाए दुश्मन को पहचानने की ज़रूरत है। जाति, धर्म, राष्ट्रवाद के मुद्दों पर उलझने की बजाए मेहनतकश आवाम की एकता और उसकी सत्ता स्थापित करने की तरफ बढ़ें।

वो सुबह कभी तो आयेगी, वो सुबह कभी तो आयेगी

इन काली सदियों के सर से, जब रात का आंचल ढलकेगा

जब अम्बर झूम के नाचेगी, जब धरती नगमे गाएगी

वो सुबह कभी तो आयेगी।

– साहिर लुधियानवी

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लेखक परिचय- उदय चे स्वतंत्र लेखक और सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

नोट- यह लेख पहले हस्तेक्षप.com पर प्रकाशित हो चुका है।

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