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‘किस्मत’ कैसे बनी बॉलीवुड की पहली ब्लॉकबस्टर फिल्म

1943 में रिलीज़ हुई फिल्म किस्मत आज भी एक प्रासांगिक फिल्म है। हिन्दी सिनेमा में इस मिज़ाज की कथावस्तु कामयाबी की मिसाल है। ज्ञान मुखर्जी की ‘किस्मत’ खुशी और गम के पाटों में उलझे शेखर (अशोक कुमार) एवं रानी (मुमताज़ शांति) की बनती-बिगड़ती तकदीरों की दास्तां है।

कथा एक तरह से शेखर और रानी की कहानियों का सुंदर संगम है। किस्मत को हिन्दी की पहली बड़ी ‘ब्लॉकबस्टर’ फिल्म होने का गौरव प्राप्त है। यह फिल्म सन् 1943 में रिलीज़ होकर, दो वर्ष से भी अधिक समय तक रजत पटल की शोभा बनी रही। अभिनेता अशोक कुमार नेगेटिव नायक ‘शेखर’ की भूमिका में हैं। हिन्दी सिनेमा में इस मिज़ाज का हीरो ‘किस्मत’ में पहली बार देखा गया। अशोक कुमार का ‘शेखर’ चोर-उचक्का जैसा अस्वीकार्य सामाजिक तत्त्व होकर भी दया, करुणा, प्रेम, मित्रता की मिसाल है।

फिल्म किस्मत का एक दृश्य। फोटो सोर्स- Wikimedia

शेखर (अशोक कुमार) एक चोर है, अक्सर ही धंधे (चोरी) को अंज़ाम देने में कानून के शिकंजे में फंस जाता है। हम देखते हैं कि कथा के आरंभ में वह सेंट्रल जेल से रिहा हुआ। पुलिस अधिकारी उम्मीद करता है कि इस लम्बी सज़ा के बाद शेखर आगे चोरी नहीं करेगा पर कानून के लम्बे हाथ का हवाला देते हुए वह फिर ना पकड़े जाने का विश्वास खो चुका है। तात्पर्य यह है कि वह आगे भी इस काम को करेगा, क्योंकि जब तक पुलिस होगी, चोर भी होंगे।

वह रिहा होकर, फिर से पुरानी राह (अपराध) पर चल देता है। एक सोने की घड़ी उसके हाथ लग जाती है, जिसे दरअसल किसी चोर ने एक बुज़ुर्ग आदमी के हाथों से उड़ा लिया था पर वह इस फन में शेखर से माहिर ना था।

बहरहाल, घड़ी शेखर के पास आ गई। घड़ी की तालाश में एक बुज़ुर्ग आदमी उसके पास आता है। यह व्यक्ति घड़ी के बदले कुछ रुपए का इंतज़ाम कर स्टेज कलाकार रानी (मुमताज़ शांति) का कार्यक्रम देखना चाह रहा है। शेखर को जब मालूम हुआ कि घड़ी एक ज़रूरतमंद आदमी की है तो उसने घड़ी उस आदमी को लौटा दी। अगले कुछ दृश्यों में शेखर की सहायता से वह बुज़ुर्ग थियेटर पहुंच जाता है, जहां रानी देवी आज एक कार्यक्रम प्रस्तुत कर रही है।

फिल्म किस्मत का एक दृश्य।

आज इस मौके पर वह एक सुंदर गीत, “दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है” प्रस्तुत करती है, जिसे तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत को खुली चुनौती माना जाना चाहिए। कार्यक्रम के माध्यम से यह बताया जाता है कि बुज़ुर्ग आदमी दरअसल ‘रानी देवी’ का अभागा पिता है और कार्यक्रम में आने की उसकी उत्सुकता का कारण समझ आता है। साथ ही एक बड़ा रहस्योद्घाटन यह भी होता है कि एक समय में बुज़ुर्ग इसी थियेटर का मालिक हुआ करता था लेकिन भाग्य (किस्मत) के फेर से अब इंद्रजीत बाबू (मुबारक) इसके मालिक हैं।

शेखर की आत्मीयता से वह काफी प्रभावित है, इतना कि वह शेखर को जीवन के गुज़रे दिनों की बात कहता है। बीते दिनों को याद करते हुए उसने उन खराब दिनों को नहीं भूला है जब उससे उसका सबकुछ छीन सा गया। गुज़रे दिनों में उसने अपना थियेटर स्टूडियो गंवा दिया, शराब के गम में अंधा होकर अपनी बिटिया रानी के लकवे का कारण बन गया, दरअसल नशे में धूत होकर वह भूल जाता है कि उसकी धुनों पर कोई नृत्य कर रहा है।

कहानी फिर से जब वर्त्तमान (आज) में आती है तो इस कार्यक्रम पर ठहरती है, जहां रानी देवी एक कार्यक्रम प्रस्तुत कर रही है। उस कार्यक्रम में इंद्रजीत बाबू की पत्नी का कीमती हार चोरी हो जाता है, शेखर वह हार गले से उड़ा लेता है लेकिन चुराए गए हार को रानी के संगीत-बॉक्स में छुपाकर वह पुलिस से बच निकलता है।

चोरी हुए हार की तफ्तीश के हवाले से इंस्पेक्टर (शाहनवाज़) इंद्रजीत बाबू के घर आता है, जहां तफ्तीश के दौरान उसे मीना देवी (इंद्रजीत बाबू की पत्नी) के घर से जुड़े एक इतिहास का पता चलता है। कहानी थोड़ी देर के लिए फ्लैशबैक में जाती है, जिसमें दृश्य है कि इंद्रजीत बाबू की दो संतानों में से ‘मदन’ किसी बात पर रूठकर घर छोड़ कर चला जाता है। इतने वर्षों के बाद आज भी परिवार को यह विश्वास है कि रूठा मदन एक दिन वापस ज़रूर लौटेगा। माता-पिता अब भी उसके इंतज़ार में हैं।

कथा में इस बिंदु पर दो परिवारों की तकदीर समझ में आती है, एक ओर इंद्रजीत बाबू बचपन की खोई संतान पाने को आशावान हैं, तो दूसरी ओर रानी पिता और परिवार के खोए सम्मान को वापस लाने हेतु संघर्षरत है।

मोतियों की माला की खोज में शेखर, रानी (मुमताज़ शांति) के घर आता है। रानी की नज़रों में शेखर की एक ‘सकारात्मक छवि’ है, रानी के खोए हुए बुज़ुर्ग पिता को उस तक लाकर तथा पिता का एक तोहफा उसे सौंपकर वह एक नेक, दयावान, मित्र व्यक्ति बन चुका है। शेखर का अच्छा (सज्जन) व्यवहार निस्संदेह उसे दूसरों के सामने नेक बता रहा है, किन्तु शेखर की ज़मीनी हकीकत उसके गलत पेशे ‘चोरी’ से जुड़ी है।

रानी के घर मेहमान बनकर एक मंझे हुए चोर की माफिक वह उसके ‘संगीत बॉक्स’ में छुपाए गए चोरी के हार को तलाश लेता है। घटनाक्रम में मोतियों की माला तो उसे मिल जाती है लेकिन रानी की सौम्य, सुंदर, दयावान व संघर्षशील छवि का कायल होकर बदले में ‘दिल’ वहीं खो देता है।

रानी को बिगड़े खस्ताहाल से उबारने के लिए शेखर उसके घर में किराएदार बन जाता है, ताकि मदद भी हो जाए और स्वाभिमानी रानी का मान भी बना रहे। शेखर घर में ‘पेइंग गेस्ट’ बनकर रहने लगा। निकटता का यह संयोग दोनों को एक दूसरे के करीब लाता है, रानी व शेखर प्रेम के जादू में बंधकर प्यार के तराने गुनगुनाने रहे हैं, “धीरे-धीरे आ रे बादल आ रे मेरा बुलबुल सो रहा है”।

रानी के निश्छल व सुंदर आचरण के संपर्क में आकर शेखर का एक तरह से हृदय-परिवर्तन हो जाता है। उसका मन चोरी से हट गया, वह इस गलत काम से उदासीन सा होकर ‘पार्टनर’ (मोती) को नया साथी तलाश करने की बात कहकर कथा-क्रम को नया मोड़ देता है। बदला हुआ शेखर गलत राह को छोड़, रानी को सभी दुखों से उबारने का संकल्प लेता है। इसी क्रम में एक दिन रानी को शेखर का सच पता चल जाता है, सच जानकर वह बहुत दुखी है और उसके मुख से कवि प्रदीप का गीत, “किस्मत एक दिन हंसाए, एक दिन रूलाए” बरबस ही फूट पड़ता है, जो कि दुखद परिस्थिति का मर्म है।

फिल्म किस्मत का एक दृश्य। फोटो सोर्स- Wikimedia

सत्य ही है किस्मत के फेर में ‘शेखर का सच’ रानी और शेखर को एक ऐसे समय में पीड़ा देता है जब दोनों की ज़िंदगी सकारात्मक दौर से गुज़र रही है। यह बड़ा रहस्योद्घाटन ‘प्रेम अंधा होता है’ कथा को नया मोड़ देकर ‘इश्क आग का दरिया है’ पर ले जाता है।

शेखर इंद्रजीत बाबू की पत्नी का हार चुराने के इल्ज़ाम में पुलिस द्वारा पकड़ लिया जाता है। मन में एक अधूरे काम की चाह लिए वह इंस्पेक्टर की गिरफ्त से भाग जाता है। शेखर की चाह है कि रानी का लकवाग्रस्त पांव ठीक हो जाए, वह फिर से सम्पूर्ण जीवन को प्राप्त करे।

रानी के इला की ‘सद इच्छा’ मन में लिए वह अंतिम बार फिर इंद्रजीत बाबू के यहां चोरी को अंज़ाम देता है। हम देखते हैं कि इलाज के बाद रानी पूरी तरह ठीक है, उसके स्वस्थ होने की खबर सुनकर इंद्रजीत बाबू उसके पास आते हैं। वह एक स्टेज-शो का प्रस्ताव लेकर यहां तक आए हैं यह कार्यक्रम ‘कथा-क्रम’ की चरमसीमा (क्लाईमेक्स) द्वारा समक्ष प्रस्तुत होता है।

कुछ शर्तों के साथ रानी इंद्रजीत बाबू का प्रस्ताव स्वीकार करती है। कार्यक्रम का ‘प्रचार’ किया जाता है, रानी देवी के सभी प्रशंसक थियेटर पहुंचते हैं। इंद्रजीत बाबू का परिवार तथा रानी के घर से भी लोग कार्यक्रम में आते हैं। पुलिस इंस्पेक्टर शेखर की तलाश में कार्यक्रम में मौजूद है, शेखर वहां भेष बदलकर आता है। परिस्थितियां और माहौल कुछ यूं हैं कि जैसे कोई बड़ा संदेश मिलने वाला हो। हुआ भी ऐसा ही कुछ घटना दरअसल कथानक के ‘चरमोत्कर्ष’ स्वरूप ही समक्ष आती है।

कार्यक्रम में रानी देवी (रानी) कवि प्रदीप की एक मर्मस्पर्शी रचना, “सब घर दीवाली, मेरे घर अंधेरा सुना रही है” गाती हैं। वहां आए शेखर से रानी का दुख देखा ना गया, वह भेष उतारकर रानी को सूरत दिखाता है। आनंद से वशीभूत रानी के स्वर बदलने लगते हैं, पुलिस समझ लेती है कि यह शेखर की मौजूदगी से ही संंभव है।

वह पकड़ लिया जाता है, मन में शेखर के भविष्य को लेकर विचार आते हैं। निर्देशक बड़ी सुंदरता से इंद्रजीत बाबू ‘संतान’ प्रसंग को उस विचार स्थल पर रख देता है। तालाशी के दौरान पुलिस को शेखर के पास से एक ‘लॉकेट’ मिलता है, लॉकेट को इंद्रजीत बाबू अपने खोए लड़के ‘मदन’ से जोड़कर शेखर की असलियत पूछते हैं। सुखमय व भाग्यवादी अंत में इंद्रजीत बाबू को ‘शेखर’ में अपनी खोई संतान ‘मदन’ मिलता है, एक समय में विरोधी रहे दो परिवार किस्मत व ‘संयोग’ के फेर से सगे-संबंधी बन जाते हैं।

समीक्षा-

कथा, अभिनय, चरित्र-चित्रण, संगीत के घटकों से हिन्दी सिनेमा की लोकप्रिय फिल्म ‘किस्मत’ निकलकर आई है। लोकप्रिय इसलिए क्योंकि बड़े जनसमूह ने देखा और उसकी सराहना की। नतीजतन टिकट खिड़की पर रिकॉर्ड प्रदर्शन किया जो आज भी एक विशेष उपलब्धि है। कथा को ‘तकदीर’ के मनोवैज्ञानिक जज़्बात में पिरोया गया, वही सम्प्रेषण की थीम भी है। सन् चालीस के लिहाज़ से ‘कथानक’ समय से काफी आगे है, आज सिनेमा में यह थीम भले ही बेगानी हो चली हो लेकिन ‘तकदीर’ का गम आज भी आमजन को उतना ही सता रहा जितना साठ-पैंसठ बरस पहले। प्रशंसा करनी होगी ज्ञान मुखर्जी के विजन की जिससे एक ‘दूरगामी’ थीम निकलकर आई।

फिल्म किस्मत का एक दृश्य। फोटो सोर्स- Wikimedia

किस्मत में नेगेटीव हीरो ‘शेखर’ और आदर्शवादी नायिका ‘रानी देवी’ में चरित्रों का सुंदर विभेद गढ़ा गया है। शेखर का अवगुण रानी के सदगुण से अभिप्रेरित होकर सदगुण बन जाता है। किन्तु शेखर का मूल चरित्र भी पूरी तरह से ‘नकारात्मक’ प्रवृति की ओर नहीं झुका है, शेखर से पहले भला किसने एक नेकदिल, शरीफ, संवेदनशील चोर के बारे में सोचा होगा? यह सामाजिक पूर्वाग्रहों पर प्रभावशाली प्रहार था। हिन्दी सिनेमा का ‘शेखर’ शायद इसलिए ‘मील का पत्थर’ कहा जा सकता है।

अमिताभ बच्चन (परवाना), विनोद खन्ना (दयावान), शाहरुख खान (बाज़ीगर) जैसे नायकों (हीरो) की छवियों में ‘नेगेटीव’ नायक की पुनरावृत्ति हुई। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि सिनेमा में ‘शेखर’ के मिज़ाज का पात्र वर्षों बाद क्यों प्रासंगिक बना हुआ है। इस संदर्भ में फिल्म की रिकॉर्ड कामयाबी का एक सूत्र समझ में आता है।

शेखर फिर भी केवल एक पक्ष है, दूसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष ‘रानी देवी’ (मुमताज शांति) का संघर्षशील, जुझारू, हौसलापरस्त पात्र है। पिता के गुम हो जाने के बाद घर की ज़िम्मेदारी को बड़े हौसले से संभाला। रानी देवी का किरदार सिनेमा में संघर्षशील नारी की छवि प्रस्तुत करता है, जो शारीरिक बीमारी के बाद भी कला साधना को जारी रखे हुए है। यह चरित्र महिलाओं को आत्मबल से कुछ कर दिखाने का हौसला देता है। कहा जा सकता है कि महिलाओं ने खुद को ‘रानी देवी’ की शख्सियत से रिलेट किया होगा।

शेखर एवं रानी देवी के पात्र ‘किस्मत’ के प्रति विशेष रूचि जागृत करते हैं। कथावस्तु व चरित्र-चित्रण के प्रभावशाली पहलुओं पर बेहतरीन संगीत ने अच्छा सहयोग दिया है। कविवर प्रदीप के गीत ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालों, हिन्दुस्तान हमारा है’ ने तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत को खुली चुनौती देकर ख्याति अर्जित की थी। भारत छोड़ो आंदोलन के दौर में रिलीज़ किस्मत (1943) लम्बे अर्से तक थियेटरों की शोभा बनी रही।

तकदीर के जिस परिवेश में पात्रों की रचना हुई, उसमें सुखात्मक अंत की उम्मीद नहीं थी लेकिन ‘खोया-पाया’ के चरमोत्कर्ष में यह हुआ। ‘किस्मत’ हिन्दी सिनेमा में खोया-पाया फॉर्मूला के प्रारंभिक उपयोग का एक उदाहरण है, जिसे संयोग की ‘निकट सच्चाई’ आधार पर गढ़ा गया।

यह मनमोहन देसाई के फॉर्मूले से आगे की फिल्म थी। सत्तर के दशक की ज़्यादातर फिल्मों को ज्ञान मुखर्जी की बीज अवधारणा से प्रेरणा मिली लेकिन वह किस्मत जैसी कामयाबी नहीं दोहरा पाई। पुनरावृत्ति अतिवाद से ‘टाईपकास्ट’ हो चुकी थी। कथा में ‘खलनायक’ पात्र की संकल्पना नहीं की गई, यह फिल्म को फॉर्मूला फिल्मों की भीड़ से अलग करता है जोकि एक सुखद अनुभव रहा। वह शांतिप्रिय सिनेमा का दौर था, हिंसा-प्रतिहिंसा ‘समाधान’ नहीं बल्कि समस्या थी। आज के मुख्यधारा सिनेमा में शांति व अहिंसा की कीमत ना के बराबर है।

संयोग पर हम सबकी थोड़ी-बहुत आस्था रही है, जीवन में ‘संयोग’ मिलते हैं। सिनेमा को यदि समाज का अक्स मानें तो वहां ‘संयोग’ के अनेक प्रयोग देखें गए हैं, तकदीर का लिखा संयोग में प्रकट होता है। निदेशक ज्ञान मुखर्जी ने मानव ‘मनोविज्ञान’ के तारों को संतुलित प्रस्तुति से स्पर्श किया है। किस्मत की ‘तकदीर’ विचारधारा को ‘पलायनवाद’ की ओर नहीं ले जाती है, यहां तकदीर को परिस्थितियों एवं घटनाओं के प्रकाश में रखा गया है। भाग्य को ‘संयोग’ का प्रतिरूप मानते हुए फिल्म संदेश देती है ‘किस्मत कभी हंसाए, कभी रूलाए’ इसलिए कर्म मार्ग पर चलें।

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