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क्षेत्रवाद के नाम पर हिंसा फैलाने वालों को राजनीतिक शह क्यों प्राप्त होती है?

गुजरात हिंसा

गुजरात में हिंसक माहौल

उस मुल्क की कल्पना कितनी भयावह होगी जहां भीड़ ही न्याय और कानून को संचालित करने की संस्था बन जाए। भीड़ ही सत्ता और न्यायिक तंत्र के समानांतर खड़ी हो जाए। लोकतंत्र को अधिग्रहित करने से लेकर संविधान की प्रस्तावना भी भीड़ ही तय करने लगे। मेरे ख्याल से उस देश का भविष्य सीरिया, गाज़ा, इराक और बनाना रिपब्लिक से भी भयावह होगा। गुजरात में क्षेत्रवादी ताकतें भीड़ में तब्दील होने लगी है। बिहार और उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों के नागरिकों को गुजरात से भगाया जा रहा है। पलायनवादियों को यह दलील देकर खदेड़ा जा रहा है कि एक बिहारी ने किसी बलात्कार की घटना को अंजाम दिया है, इसलिए सभी उत्तर भारतीयों को भगाया जाए।

यहीं स्थिति बीते कुछ साल पहले महाराष्ट्र में हुई थी जहां उत्तर भारतीयों पर बर्बरता के साथ हिंसक हमले हुए। उनके रोजी-रोज़गार के स्थाई स्रोतों को नष्ट किया गया। वहां क्षेत्रवादी अराजकों द्वारा दलीलें दी गई कि उत्तर भारतीय महाराष्ट्र में गंदगी फैलाते हैं। प्रदेश के हक को उत्तर भारतीय पलायन कर लूट लेते हैं। क्षेत्रवाद के नाम पर हिंसा फैलाने वाले अराजकों को हर बार राजनीतिक शह प्राप्त होती है जिसे लेकर मेरे ज़हन में कुछ चिंताएं हैं।

मेरी चिंता सबसे पहले गुजरात में उत्तर भारतीयों को भगाने के संदर्भ में है जहां हमलावरों द्वारा दलीलें पेश की गई कि एक बिहारी ने बलात्कार किया है इसलिए इन्हें प्रदेश से भगाया जा रहा है। हमलावरों की दलीलों पर मेरी चिंता यह है कि क्या किसी एक के कुकृत्य करने पर उसकी सज़ा सबको दी जानी चाहिए? यदि नहीं, फिर तो किसी एक बिहारी की वजह से पूरे उत्तर भारतीयों को बलात्कारी की संज्ञा देकर भगाना कितना न्यायसंगत है। यदि इसका जवाब हां हैं फिर तो उसी गुजरात राज्य से ललित मोदी, मेहुल चौकसी और नीरव मोदी भी नागरिक हैं फिर क्या हमलावरों के तर्क के आधार पर तमाम गुजराती नागरिकों पर संदेह करना न्यायसंगत है।

मेरी नज़रों में तो बिलकुल नहीं, क्योंकि किसी इक्के-दुक्के के ओछापन की वजह से किसी समाज,धर्म, राज्य और राष्ट्र की गरिमा पर आंच नहीं आ सकती। वजह शर्मनाक इसलिए भी प्रतीत होती है, क्योंकि यह सारी स्थितियां राजनीतिक रणनीति के छांव में तैयार की जाती है। क्षेत्रीयता के चेतनाओं को अन्य क्षेत्रीय नागरिकों के खिलाफ ज़हर फैलाकर एकत्रित करने की धारणा एक प्रगतिशील मुल्क के बर्बादी की सबसे बड़ी वजह होती है।

इस सम्पूर्ण विषय पर मैं संविधान की कुछ बुनियादी बातों को भी यहां ज़िक्र करना चाहूंगा। संविधान के ‘भाग 3 मौलिक अधिकार के अनुच्छेद 15′ में स्पष्ट तौर पर ज़िक्र किया गया है कि “राज्य किसी भी नागरिक से धर्म, मूल-वंश, जाति, लिंग और जन्मस्थान आदि के आधार पर भेद-भाव नहीं करेगा, अनुच्छेद 19A के D में स्पष्ट लिखा गया है कि भारत के राज्यक्षेत्र में कोई भी कहीं भी घूम सकता है।उसी अनुच्छेद के अगले भाग में रोज़गार-व्यापार की स्वतंत्रता भी स्थापित की गई है।”

मेरे विचार से संविधान के तमाम अधिकारों को खारिज़ कर क्षेत्रवाद की हिंसक चाशनी में देश को डुबोने की तरकीब भारत में आंतरिक युध्द को जन्म दे सकती है। यदि हर राज्य में बाहरी पलायन करने वाले नागरिकों को भगाना ही राज्य के तरक्की की वजह हो सकती है, तब सर्वप्रथम संविधान के प्रस्तावना से ‘हम भारत के लोग’ को संशोधित कर अपने अनुसार राज्यों का ज़िक्र होना चाहिए। जब देश और संविधान की धारणा राज्य पर हावी होते क्षेत्रवादी ताकतों के आगे बौनी दिखाई पड़ रही है और देश और संविधान की धारणा ही संशयात्मक है, तब उसे भी हर स्तर पर संशोधित कर संघ-राज्य की मौलिक अधिकारों पर भी विमर्श करना चाहिए।

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