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“छत्तीसगढ़ में शहरों को विकास मिलता है और ग्रामीण आदिवासियों को बदहाली”

Ground Reality of Chhattisgarh Development in Rural area

भारत के तमाम राज्यों में कई राज्य इस तरह के हैं, जहां आपको राज्य सरकारों के तथाकथित विकास और राज्य के मानव विकास में अंतर साफतौर पर नज़र आएंगे। “धान का कटोरा” कहा जाने वाला राज्य छत्तीसगढ़ भी ऐसा ही राज्य है जहां नया रायपुर आधुनिक विकास की कहानी कहता है तो वहां के ग्रामीण आदिवासीयों का मौजूदा जीवन एक अलग ही कहानी बयां करता है।

कश्मीर की तरह हर पत्रकार, लेखक, पुलिस महकमों के अधिकारियों या राजनेताओं की डायरी छत्तीसगढ़ की एक नई तस्वीर बयां करती है। हर डायरी में आदिवासी समाज की महिलाओं की कहानियां झकझोर देने वाली हैं।

1 नवम्बर 2000 को मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ राज्य शक्ल में आया, जिसकी जनसंख्या 2011 की जनगणना के मुताबिक 2 करोड़ 55 लाख थी। इसमें 1, 28, 32, 895 पुरुष और 1, 27, 12, 303 औरतों की जनसंख्या थी।

यहां की साक्षरता दर 70.28 फीसदी है। आदिवासी, दलित बहुल आबादी वाले इस राज्य के सात ज़िले पूरी तरह आदिवासी बहुल हैं, जिनमें बस्तर, दंतेवाड़ा, कांकेर, सरगुजा, कोरबा, जशपुर, कोरिया तथा बिलासपुर, दुर्ग, धमतरी, जांजगीर-चांपा, कवर्धा, महासमुंद, रायगढ़, राजनांदगांव, रायपुर, मिश्रित आबादी वाले क्षेत्र हैं (जिनमें–दलित 2, 418, 722 (11.6) और आदिवासी 6, 616, 596 (31.8 हैं)।)

छत्तीसगढ़ प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न 44 फीसदी वन राजस्व देने वाला राज्य है, जहां ज़मीन के नीचे 27 तरह के खनिज संसाधन मौजूद हैं। 80 फीसदी आबादी खेती पर निर्भर है, देश का 30 फीसदी स्टील छत्तीसगढ़ पैदा करता है। छत्तीसगढ़ का 44.21% भौगोलिक क्षेत्र जंगलों से घिरा हुआ है, जिससे यहां की विशाल जैव विविधता का पता चलता है।

इन सबके बावजूद किसान आत्महत्या के मामले छत्तीसगढ़ में काफी ज़्यादा हैं। 2017 की रिपोर्ट के अनुसार ढाई सालों में 1,344 किसानों ने आत्महत्या की है।

बाबा साहब और काल मार्क्स दोनों ही कहते हैं कि किसी समाज या राज्य के विकास का आकलन करना है तो वहां की महिलाओं की स्थितियों का अध्ययन करो, सही वस्तुस्थिति तक पहुंच जाओगे।

छत्तीसगढ़ राज्य की आदिवासी महिलाओं के जीवन स्तर की स्थितियों का आकलन इतना विरोधाभासी है कि आप चौंके बिना नहीं रह सकते हैं। छत्तीसगढ़ी आदिवासी समाज महिलाओं की अस्मिता और स्वतंत्रता के सवाल पर अधिक वर्चस्वशाली नहीं है।

मसलन, आदिवासी समुदाय के सामाजिक जीवन में संपत्ति पर व्यक्ति विशेष का गौण अधिकार होने के कारण महिलाओं के विरुद्ध हिंसा नहीं देखने को मिलती है क्योंकि संपत्ति पर अधिकार स्त्री-पुरुष के मध्य अस्तित्व और वर्चस्व को जन्म देते हैं लेकिन एक अध्ययन के मुताबिक, छत्तीसगढ़ में 52 फीसदी औरतें किसी ना किसी तरह की हिंसा का शिकार होती हैं तो 38 फीसदी औरतों के साथ कभी ना कभी थप्पड़ मारने, घसीटे जाने, पिटाई किए जाने और जलाए जाने की घटनाएं होती हैं।

34 फीसद औरतें 15 से 19 की उम्र में पति या किसी साथी की हिंसा की शिकार होती हैं (इंटरनैशनल सेंटर रिसर्च ऑन वुमेन के तहत एक वर्कशॉप के दौरान मुझे ये आंकड़ें मिले हैं) 77 फीसदी औरतों के साथ 15 से 19 की उम्र में ज़बरदस्ती यौन सम्बंध बनाने की कोशिश की जाती है। 41 फीसदी औरतें 15 से 19 की उम्र में मॉं या सौतेली मॉं के हाथों शारीरिक यातनाएं झेलती हैं, 18 फीसदी औरतें 15 से 19 की उम्र में सौतेले पिता के हाथों पीटी जाती हैं।

ज़ाहिर है छत्तीसगढ़ शासन में आदिवासी सभ्यता-संस्कृति के संसर्ग में मौजूदा जीवनशैली को विकसित करने का प्रयास नहीं किया, जिसके कारण नव-संस्कृति और आदिवासी मूल संस्कृति के मध्य संघर्ष ने महिलाओं की स्थिति को बद्तर बना दिया है।

अधिकांश महानगरों में घरों में काम करने वाली लड़कियां छत्तीसगढ़ की-

दिल्ली में काम करने वाली घरेलू महिलाओं के छोटे से अध्ययन में मैंने यह पाया कि देश के अधिकांश महानगरों में घरों में काम करने वाली लड़कियां छत्तीसगढ़ की ही देखने को मिलती हैं। नए राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ से बड़ी संख्या में लड़कियों की तस्करी करके दिल्ली और दूसरे शहरों में भेजा गया है। शर्मनाक बात यह है कि ये लड़कियां छत्तीसगढ़ के सिर्फ 2 ज़िलों जशपुर (आदिवासी ज़िला) और रायगढ़ (आदवासी बहुल ज़िला) की हैं।

स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने के सरकारी एजेंडों को पूरा करने के लिए निकाला गया महिलाओं का गर्भाशय-

छत्तीसगढ़ में आदिवासी महिलाओं के स्वास्थ्य की स्थिति वहां महिलाओं के अलग हालात को बयां करता है। छत्तीसगढ़ विधानसभा में जुलाई 2013 में एक प्रश्न के लिखित जवाब में बताया गया था कि वर्ष 2010 से 2013 के बीच राज्य में औरतों के गर्भाशय निकालने के 1800 मामले सामने आए थे। (इनमें ज़्यादातर गरीब, दलित, आदिवासी महिलाएं थीं)।

गौरतलब है कि गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को अच्छी चिकित्सा सुविधा मुहैया करवाने के लिए 2007 की तत्कालीन केंद्र सरकार ने स्वास्थ्य बीमा योजना की शुरुआत की थी जिसके तहत स्मार्ट कार्ड के ज़रिये एक साल में मरीज़ के 30 हज़ार तक के चिकित्सा के खर्च की ज़िम्मेदारी सरकार वहन करेगी।

2012 में 22 औरतों के गर्भाशय को गर्भाशय के ग्रीवा कैंसर का डर दिखाकर निकाल लिया गया। स्थानीय अखबार में खबर छपने से निजी नर्सिंग होम के लालची डॉक्टरों की हैवानियत का भंडाफोड़ हुआ। जिन्होंने भोले भाले ग्रामीणों को गर्भाशय के कैंसर का डर दिखाकर सरकार की स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत इनके ऑपरेशन कर दिए।

छत्तीसगढ़ में पिछले 12 बरसों में गरीबों के लिए स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने का सरकारी एजेंडा और उसे पूरे करने का टारगेट कितना वीभत्स हो सकता है, इसके ज़िंदा सबूत छत्तीसगढ़ में हर जगह बिखरे पड़े हैं।

जनसंख्या काबू करने वाली योजना के तहत पैसों के लालची भेड़ियों ने सरकारी टारगेट पूरा करने के लिए भोले भाले बैगा आदिवासी औरतों की नसबंदी कर दी, वह भी मध्य प्रदेश में ले जाकर। इसके बाद मामला तूल पकड़ा और दिल्ली पहुंचा।

जबकि आदिवासी समाज वह समाज है जहां अभी तक बच्चियों की भ्रूण हत्या का कोई चलन नहीं है। छत्तीसगढ़ भवन में संयुक्त महिला संगठनों ने जब धरना प्रदर्शन किया तब मामला रफा दफा करने के लिए कुछ छोटे डॉक्टरों को डांट फटकार लगाई गयी। आजतक किसी भी अपराध में ज़िम्मेदार बड़े अधिकारियों को जेल नहीं हुई।

यहां की महिलाओं में लौह तत्व यानी आयरन की कमी एक जटिल समस्या बनकर उभरी है जिसके कारण प्रसव के समय जच्चा-बच्चा दोनों की जान पर खतरा बना रहा है। यह कहना गलत नहींं होगा कि आज छत्तीसगढ़ बतौर एक राज्य, एक समाज संक्रमण काल से गुज़र रहा है। वैसे तो यह राज्य बाहरी आक्रमण से महफूज़ रहा है मगर बाहर से आये गैर छत्तीसगढ़ियां, लालची और स्वार्थी तत्व, उद्योगपतियों के आगे दंडवत सरकारी मिशनरियों ने इस खूबसूरत धरती को बदसूरत बना दिया है।

आदिवासी परंपरा से समृद्ध है छत्तीसगढ़ी समाज, इसके पास कुदरती खजानों, संसाधनों की ऐसी ताकत है जिसपर गर्व किया जा सकता है मगर यही खजाना यहां की मूल आबादी की जान पर आफत बन चुका है।

हालांकि छत्तीसगढ़ की बदहाली का जायज़ा यहां के शहरों को देखकर ज़रा भी नहीं लगता है। आश्चर्य किया जा सकता है कि अपनी बदहाली के बाद भी यह राज्य सांस कैसे लेता है? किनके लिए लेता है?

ज़मीन की ज़बरदस्ती लूट, अपनी ही ज़मीनों से आदिवासियों की बेदखली और उससे उपजी गरीबी और बेरोज़गारी ही तो यहां की बहुल जनसंख्या के मूल सवाल हैं।

चुनाव में केवल विकास और भ्रष्टाचार मूल मुद्दा है। यहां जनता के मुद्दे भी नेताओं की तरह हैलीकाप्टर से उतर कर आ रहे हैं। इसका छत्तीसगढ़ के मूल निवासी से कोई वास्ता नहीं है, यह मेरी छत्तीसगढ़ डायरी का हिस्सा है।

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फोटो सोर्स- Getty

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