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“जो गलत है, उसका हमेशा विरोध होना चाहिए”

मैं अक्सर न्यूज़, अखबारों या फिर सोशल मीडिया पर इस तरह के पोस्ट पढ़ती रहती हूं, जिनमें किसी लड़की ने अपना अनुभव शेयर किया हो कि फलां आदमी ने उसके साथ बदतमीजी की पर वह कुछ नहीं कर पायी।

इस बात का उनके मन में खूब गुस्सा होता है और अफसोस भी (यह उनकी राइटिंग से पता चलता है)। एक लड़की होने के नाते मैं उनके इस क्षोभ को बखूबी समझ सकती हूं, क्योंकि इस दुनिया में शायद ही कोई ऐसी लड़की होगी जिसे कभी आते-जाते, उठते-बैठते, सोते-जागते, हंसते-बोलते या कहीं किसी भी परिस्थिति में ऐसी ‘कुंठित मानसिकता’ का शिकार ना होना पड़ा हो।

मैं मानती हूं कि कई बार परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि अचानक राह चलती भीड़ में कोई आदमी आपको वाहियात तरीके से ‘इधर-उधर’ टच करके निकल जाये, या फिर कुछ बकवास कमेंट करके भीड़ में शामिल हो जाये। उस वक्त हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते क्योंकि वह इंसान उस भीड़ का हिस्सा होता है, जिसकी कोई निश्चित शक्ल-सूरत नहीं होती।

इनके लिए राह चलती ‘कोई लड़की’ ही नहीं, बल्कि उनकी अपनी मां-बहनें भी बस ‘देहमात्र’ होती हैं। मौका मिले तो वे शायद उन्हें भी अपनी हवस का शिकार बनाने से पीछे ना रहें। अत: ऐसे वाहियात लोगों की वाहियात हरकतों के लिए अफसोस करने के बजाय मैं ‘हाथी चले बाज़ार और कुत्ते भौंके हज़ार’ वाला एटीट्यूड अपनाती हूं।

उनसे बचने का एक ही तरीका है, आत्म सतर्कता और सावधानी। रही बात गुस्सा और अफसोस करने की तो जब मैंने कोई गलती की ही नहीं है, तो मैं काहे को गुस्से या कुढन में अपना खून जलाऊं।

अब बात दूसरी वाली परिस्थिति की, जहां आप अपने साथ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बदतमीज़ी करने वाले को जानती हों या फिर आपके साथ किस तरह की बदतमीज़ी की जा रही है, इसका आपको आभास हो रहा हो, तो इससे बचने लिए मैं आपको कोई सुझाव नहीं दूंगी। बस अपने कुछ अनुभवों को आप सबके साथ शेयर करना चाहूंगी। आगे आप खुद तय करें कि आपको क्या करना चाहिए।

पहली घटना- बात तब की है जब मैं इंटर में थी। ‘लालू राज के ज़माने में’ गया शहर के जिस कॉलेज में मेरा एडमिशन हुआ था, वहां एक स्थानीय एमएलए साहब के समर्थन से कॉलेज में चंद छुटभैये टाइप नेताओं और बिगड़ैल अमीरज़ादों का दबदबा था। कॉलेज में आनेवाली नयी लड़कियों की रैगिंग करना, हाथ पकड़ लेना, राह चलती किसी भी लड़की का दुपट्टा खींच लेना, उन्हें देखकर भद्दे कमेंट्स करना आदि ‘बेहद आम’ बात थी। किसी टीचर या प्रोफेसर तक को हिम्मत नहीं थी कि उन्हें कुछ कह सके। इस वजह से लड़कियां काफी डरी-सहमी रहती थीं।

जब मैं पहले दिन कॉलेज गयी तो मेरी कुछ फ्रेंड्स और सीनियर्स ने मुझे भी कॉलेज के रूल्स-रेगुलेशन समझाये। मसलन, गर्ल्स कॉमन रूम से सीधे क्लास और क्लास से सीधे कॉमन रूम में आना, बीच रास्ते या क्लास में कोई लड़का कुछ बोले या कमेंट करे तो इग्नोर करना, सूट के दुपट्टे में हमेशा पिन लगाकर रखना (उस कॉलेज में लड़कियों को सलवार-सूट पहनना अनिवार्य था) वगैरह-वगैरह।

मैं बचपन से प्राइवेट को-एड स्कूल में पढ़ी थी, जहां लड़कों से दोस्ती करने से लेकर लड़ने-झगड़ने और उनका टिफिन छीनकर खाने जैसी हरकतें मेरे लिए नॉर्मल बात थी। शायद इसी वजह से मुझे वे सारे इंस्ट्रक्शन ‘एबनॉर्मल’ लगे। मेरी परवरिश भी जिस परिवार में हुई थी, वहां कभी मुझे इस तरह की एक्टिविटी देखने को नहीं मिली थी।

शायद इसी वजह से मैं ना तो बाकी लड़कियों की तरह किताबों को सीने से दबाये और सिर झुकाए चलना सीख पायी और ना ही किसी की बकवास को चुपचाप रहकर इग्नोर कर पायी। जब, जहां, जो कुछ भी गलत लगा, खुलकर उसका विरोध किया।

कई बार तो क्लास में मारपीट तक की नौबत आ गयी। इसका परिणाम यह हुआ कि कुछ ही दिनों में मुझे कॉलेज के ब्यॉज़ गैंग द्वारा ‘झांसी की रानी’ का खिताब दे दिया गया। हालांकि बाद में उनमें से कुछ लड़कों से मेरी अच्छी दोस्ती भी हो गयी। जब मैंने उस कॉलेज से विदा लिया, तो उन्होंने इस बात का अफसोस भी जताया।

दूसरी घटना- जब मैं पोस्ट ग्रैजुएशन में थी, दिसंबर महीने में फाइनल एग्ज़ाम्स होने वाले थे। क्लासेज़ खत्म हो चुके थे। घर पर ही तैयारी करनी थी। हमारे घर में नीचे धूप नहीं आती थी इसलिए रोज़ मैं नहा-खाकर ऊपर छत पर पढ़ने चली जाती थी। कुछ दिनों बाद मैंने महसूस किया कि जब भी मैं पढ़ने बैठती हूं, ठीक सामने वाली छत पर एक लड़का खड़ा होकर लगातार मुझे घूरता रहता है और अकसर मेरी ओर देखते हुए फोन पर किसी ना किसी से ऊंची आवाज़ में बात करता था।

वह उस घर की छत पर बने एक कमरे में अकेला रहता था। हालांकि वह मुझसे कुछ नहीं कहता था पर उसके द्वारा यूं घूरते रहने से मुझे प्रॉब्लम थी। कुछ दिनों तक मैंने उसकी यह नौटंकी बर्दाश्त की फिर एक दिन सीधे-सीधे जाकर पूछ लिया कि भाई क्या परेशानी है तुम्हें? अपनी इस हरकत से बाज़ आना पसंद करोगे या फिर मकान-मालिक से शिकायत करने के बाद बेइज्ज़त होकर मकान छोड़ना?

मेरे अचानक ऐसे रिस्पॉन्स से वह सकपका गया और मैं… मैं… मैं… करते हुए अपने कमरे में चला गया। अगले दिन से मेरे रहते हुए वह कभी मुझे छत पर नज़र नहीं आया।

अपने 10 वर्षों के दिल्ली प्रवास के दौरान तो ना जाने ऐसी कई घटनाओं से पाला पड़ा पर वहां भी मनचले घाट-घाट, तो हम पात-पात।

तीसरी घटना- एक बार दरियागंज के अपने ऑफिस से लौटते हुए पहाड़गंज में बस में एक बुज़ुर्ग अंकल जी चढ़े। उन्हें दाईं ओर एक सीट मिल गयी और वो वहां बैठकर आसपास के लोगों से किसी मुद्दे पर बहस करने लगे। दाईं ओर मेरे अलावा, कुछ और हम उम्र एवं बुज़ुर्ग महिलाएं बैठी थीं।

मैंने गौर किया कि वो अंकल हर बात पीछे मां-बहन की गाली दिये जा रहे हैं और कोई उन्हें कुछ नहीं कह रहा। मुझसे यह बर्दाश्त नहीं हुआ और मैंने अपनी सीट से खड़े होकर उन्हें टोका। इस पर उनका कहना था, “बेटा जी, मैं आपको या यहां बैठी किसी महिला को गाली थोड़े ना दे रहा हूं”। मैंने जवाब दिया,

आप गाली मुझे दें या अपने घर की किसी महिला को पर दे तो रहे हैं एक महिला को ही ना और यहां बस में इतनी सारी महिलाएं बैठी हैं, क्या उनका कोई सम्मान नहीं?

मेरी इस बात का वहां बैठे कुछ अन्य बुज़ुर्गों और दूसरे लोगों ने भी समर्थन किया। तब जाकर वो अंकल चुप हुए। ऐसे ही कई अनुभव ट्रेन या ऑटो में यात्रा के दौरान भी आये दिन मुझे होते रहते हैं।

इन घटनाओं को पढ़ने के बाद अब आप यह तय करें कि क्या सही है और क्या गलत? या फिर आपको क्या करना चाहिए और क्या नहीं। मेरी लाइफ का तो सिंपल फंडा है, ‘Tit for Tat’ यानी कि ‘जैसे को तैसा’।

जो आपके साथ अच्छा करे, उसका भला करो, जो बुरा करे उसे अपने तरीके से सबक सिखाओ। जो दोस्त माने उसकी दोस्ती निभाओ, जो दुश्मन माने उसे अपनी ज़िन्दगी से बाहर का रास्ता दिखाओ। जो प्यार करे, उसके लिए जान देने से भी ना हिचको और जो नफरत करे, उन्हें माफ कर दो (क्योंकि यहां तो प्यार करने से ही फुर्सत नहीं तो नफरत कैसे और कब करें।)

अंत में सौ बातों की एक बात, जो गलत है, सो गलत है, उसका हर हाल में विरोध कीजिए और जो सही है, हमेशा उसका साथ दीजिए। खुद गलत हो, तो झुकना सीखिए और अगर सही हो, तो सिर्फ अपने दिल और दिमाग की सुनिए।

याद रखें, गलत सहना, उस गलत को और बढ़ावा देना होता है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं कि हमेशा लाठी-डंडे, पुलिस या कानून के ज़रिये ही विरोध किया जाये, आपका आत्मविश्वास, आपकी एक ‘करारी नज़र’ ही काफी है किसी बदतमीज़ के हौसले पस्त करने के लिए।

हमेशा चुप रहना हर समस्या का समाधान नहीं होता। कई बार बोलने/विरोध करने की भी ज़रूरत होती है। मेरा मानना है कि इंसान को हमेशा झुकना वहीं चाहिए जहां सामनेवाले में आपको झुकाने की ज़िद ना हो, वरना तो ‘झांसी की रानी’ बनने में ही भलाई है।

अब यह तय आपको करना है कि आपको घुटकर या डर-सहमकर जीना है या फिर फख्र से सिर उठाकर और सीना तानकर जीना है। यह ज़िन्दगी आपकी है इसलिए फैसला भी आपका होना चाहिए।

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