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संडास साफ कर गली-मोहल्ले को चमकाने वाली औरत अशुद्ध कैसे हो जाती है?

“मुझसे मेरा संडास मत छीनो। संडास ही तो मेरी ज़िन्दगी है।” एक औरत का रोते हुए, हारे हुए शब्दों में यह बात कहना शायद बहुतों को विचित्र लगे। संडास, मैला, कचड़ा आदि आखिर किसी की ज़िन्दगी कैसे हो सकती है? वह भी एक ऐसे समय में जब हम एक आधुनिक और विकसित समाज में जीने का ताल ठोक कर दावा करते हैं।

मगर आज भी एक ऐसा समाज है जहां मैला, संडास, कचड़ा लोगों की ज़िन्दगी का एक ज़रूरी हिस्सा है और उन्हें सबकी हेय नज़रों का सामना करना पड़ता है।

दरअसल, संडास ना छीनने की बात ‘सीता गली’ नाटक का डायलॉग है। चार साल पहले मैंने अपने थियेटर ग्रुप (इप्टा जेएनयू) के साथ इसका मंचन किया था। ‘मैत्रीय पुष्पा’ की रचना ‘छुटकारा’ का नाट्य रूपांतरण ‘सीता गली’ मैला ढोने वाली एक महिला की कहानी पर आधारित है। इस नाटक के ज़रिए समाज में व्याप्त छूआछूत, जातिवाद जैसी समस्याओं को सावर्जनिक करने की कोशिश की गई है।

फोटो प्रतीकात्मक है।

कई बार आप जो मंच पर पेश करते हैं, उसे अपने जीवन की किसी घटना से जुड़ा महसूस भी करते हैं। इस नाटक के साथ भी कुछ ऐसा ही था। ‘सीता गली‘ के ज़रिए मेरे सामने बचपन की कुछ तस्वीरें आ गई थीं, जहां ऐसी घटनाओं से खुद मेरा सामना हुआ था।

बात उस वक्त की है जब मैं पटना के एक स्कूल में पढ़ती थी। मेरी एक सहपाठी को सिर्फ इसलिए हेय दृष्टि का सामना करना पड़ता था क्योंकि वह ‘डोम’ जाति से ताल्लुक रखती थी। उसके माता-पिता में से कोई एक मैला ढोने का काम करते थे (मुझे ठीक से याद नहीं कि मां या पिता में से कौन इस पेशे में था)। क्लास में सभी उससे दूर ही रहा करते थे। वह पीछे की किसी बेंच पर अलग-थलग बैठा करती थी। क्लास में उसके दोस्त भी गिने-चुने ही थे।

उसके कपड़े हमेशा मैले और मुड़े-चुडे हुआ करते थे। मैंने उसके बालों में कभी भी तेल लगे नहीं देखा और इस वजह से उसके बाल बिलकुल रूखे-सूखे से लगते थे। वह बालों में मुश्किल से कभी कंघी करती थी और इन सबका परिणाम यह हुआ कि उसके बाल वीभत्स रूप ले चुके थे।

मुझे उस वक्त उसके इस रूप के कारण का पता नहीं था, इस वजह से मैंने भी कभी उससे दोस्ती करने की कोशिश नहीं की। कई दोस्त अकसर उसकी ओर इशारा करते हुए कहती, “अरे दूर रहो इससे, डोम है यह”।

हमारी टीचर भी कई बार उसके पुराने और गंदे कपड़ों को निशाना बनाते हुए उसे उसकी नीची जाति से होने का ताना दिया करती थीं, जबकि उसके पुराने और गंदे कपड़ों का कारण उसकी जाति नहीं बल्कि उसकी गरीबी थी।

‘सीता गली’ नाटक में मैंने उन सभी घटनाओं को एक बार फिर देखा, जहां नाटक की मुख्य पात्र में मुझे मेरी सहपाठी नज़र आई। जेएनयू में हुए इस नाटक में ऊंची जाति के समाज का ढोंग दिखाया गया था। खुद को सभ्य कहने वाले इस समाज की असभ्यता और अमानवीयता को दिखाया गया था।

फोटो प्रतीकात्मक है।

कहानी में मुख्य पात्र के रूप में छन्नो अपनी शादी के बाद से ही सीता गली में मैला और संडास उठाने का काम करती है। सीता गली को साफ सुथरा रखना ही उसके जीवन का जैसे एक लक्ष्य बन चुका हो। नाटक में दिखाया गया कि गली के कुछ लोग छन्नो को मानते ज़रूर हैं, मगर दूर से। यह उनका ढोंग था क्योंकि अगर छन्नो ना हो तो उनका मैला कौन ढोएगा?

जब वह सीता गली में ही मकान खरीद लेती है तभी से ही शुरू होता है सारा तमाशा। जो औरत गली की सफाई के लिए अपनी सारी ज़िन्दगी लगा देती है, उसके ही गली में बस जाने से गली वालों को गली के अशुद्ध होने की चिंता सताने लगती है। फिर तो उसे संडास का काम मिलना भी बंद हो जाता है।

छन्नो के मेहतरानी होने के कारण उसकी बेटी से भी उम्मीद की जाती है कि वह भी मेहतरानी ही बने। समाज उसके दूसरे काम करने पर उसे ताने देता है, उसे गालियां पड़ती है। मगर यहां छन्नो की बेटी रज्जो हिम्मती है, लोगों से डरती नहीं है। वह संडास का काम चले जाने से अपनी मां की तरह दुखी नहीं बल्कि खुश है कि उसकी मां को अब संडास नहीं उठाना पड़ेगा।

रज्जो की स्थिति कोई काल्पनिक नहीं है। पटना के काजीपुर के मुसहर इलाके में मैला ढोने वाले एक व्यक्ति का कहना है,

हम अब नहीं चाहते कि हमारे घर की औरतें यह काम करें। इसमें हमें बिलकुल भी इज्ज़त नहीं मिलती। हमारी मां, दादी इस काम में थीं लेकिन अब हमने अपनी औरतों को इस काम में भेजना छोड़ दिया है।

वो आगे कहते हैं,

हालांकि इसका हमें नुकसान भी होता है। हमारी घर की औरतों को दूसरे काम मिलने मुश्किल होते हैं। उन्हें कोई हाउस हेल्पर के रूप में नहीं रखना चाहता क्योंकि हम मैला ढोने वाले परिवार से आते हैं। हमारा घर की रसोई में घुसना अशुद्ध माना जाता है।

बचपन में पटना के कदमकुंआ स्थित मेरे किराया के घर के सामने भी एक डोम जाति से ताल्लुक रखने वाला परिवार रहता था। उस घर में दो जुड़वा बच्चियां थीं। मेरे पड़ोस के एक घर में बचपन से ही दोनों काम करती थी लेकिन उन दोनों बच्चियों को पूजा घर और रसोईघर में घुसने की अनुमति नहीं थी। वजह वही, उनका छोटी जाति से ताल्लुक रखना। मैं बता दूं कि दोनों बच्चियों की उम्र महज़ 6 या 7 साल रही होगी। (हालांकि इस उम्र में उनसे काम करवाना भी गुनाह ही था)।

भले यह माना जाने लगा है कि समाज में मैला ढोने की प्रथा लगभग खत्म हो चुकी है। मगर वास्तविकता इससे कुछ अलग है। आज भी मैला ढोने की प्रथा अनेक जगहों पर धड़ल्ले से चालू है।

इस दिशा में अगर कानून की बात करें तो इस प्रथा को लेकर कानून भी बनाए गए हैं। सबसे पहले 1993 में इसको लेकर कानून पारित हुआ था, फिर 2013 में इससे संबंधित दूसरा कानून पारित हुआ। 1993 में पारित कानून के अनुसार शुष्क शौचालयों के निर्माण पर प्रतिबंध लगाया गया।

कानून के अनुसार बिना सुरक्षात्मक उपकरणों के सीवरों की सफाई पर प्रतिबंध है। मगर आज आप अपने आस-पास अगर देखें तो यह काम सुरक्षात्मक उपकरणों के बिना ही होते दिखता है और नतीजे में अब तक कितनी जानें जा चुकी हैं।

मैला ढोने की प्रथा पर आज सवाल उठाना ज़रूरी है, जो किसी भी समाज को कलंकित करने का ही काम करती है। और, साथ ही एक पूरे जातीय समुदाय को मनुष्य से हीनतर दर्जे के होने का कलंक पीढियों से ढोना पड़ता है।

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