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2018 के वे मुद्दें जिन्हें सरकार और मीडिया दोनों ने नज़रअंदाज़ किया

एक बार फिर से एक साल गुज़रने वाला है और नया साल दस्तक देने के लिए दरवाज़े पर खड़ा है। ऐसे में हर साल की तरह इस बार भी पिछले साल की खूबियों और खामियों पर चर्चा की जाएंगी। जो छूट गया, उसके लिए अफसोस करने के साथ ही आने वाले वर्ष में उसे पाने के लिए एक नये उत्साह से संकल्प लिये जायेंगे।

इस दिशा में सबसे ज़रूरी हो जाता है किसी भी देश की सरकार और सरकारी तंत्र के कार्यों का विश्लेषण करना। साथ ही, वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मीडिया के कार्यों का निरीक्षण एवं विश्लेषण करना भी ज़रूरी है, क्योंकि आज के दौर में सरकार के पक्ष एवं विपक्ष में जनमानस के विचारों को गढ़ने में मीडिया की अहम भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है।

मेरे विचार से आनेवाले समय में साल 2018 को तीन चीज़ों के लिए सबसे याद किया जायेगा। पहला, न्यायपालिक द्वारा लिए गये कुछ अहम निर्णयों, जिन्हें Milestone Decisions कहा जा सकता है, दूसरा, सेलिब्रिटिज़ मैरिज और तीसरा है गौ राजनीति।

न्यायपालिका के पांच महत्वपूर्ण निर्णयों में सबरीमाला मंदिर और महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर मंदिर में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति, धारा-377 की निरस्तता, सरकारी कामकाज में कुछ शर्तों सहित ‘आधार’ की अनिवार्यता को खत्म करना, एडल्ट्री को अपराध की श्रेणी से बाहर करना और सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाहियों की लाइव स्ट्रीमिंग और वीडियो रिकॉर्डिंग की अनुमति देना रहा है।

जिन सेलिब्रेटिज़ की शादियों को लेकर साल 2018 के लगभग हर महीने में मीडिया में हलचल बनी रही, उनमें इशा अंबानी और आनंद पीरामल, निक जोनास और प्रियंका चोपड़ा, दीपिका पादुकोण और रणवीर सिंह, सोनम कपूर और आनंद आहुजा, नेहा धूपिया और अंगद बेदी, कपिल सिंह और गिन्नी चतरथ, हिमेश रेशमिया और सोनिया कपूर, मिलिंद सोमन और अंकिता कंवर, मोहित मारवाह और अंतरा मोतीवाला सहित कई अन्य फिल्म और टीवी एक्टर्स शामिल हैं।

साल 2018 में गौ रक्षा का मुद्दा एक बहुचर्चित मुद्दा रहा। गौ भक्तों ने गाय की रक्षा के लिए अपने जान-माल की बाज़ी लगा दी। अगर रास्ते में किसी को लोग गाय या भैंस को ट्रक में ले जाते हुए देख लेते, तो उन्हें बिना कुछ पूछे, बिना कुछ कहे अपनी गौ भक्ति का सबूत देने लगते। इस तरह की हिंसा में कई मासूम लोगों को अपनी जान-माल से हाथ धोना पड़ा।

देश में गौ रक्षा के नाम पर धरने लगाना और प्रदर्शन करना आम बात हो गई है। इसकी वजह से बीते साल देश में मॉब लिंचिग के सबसे ज़्यादा मामले सामने आये। बुलंदशहर को एक बार फिर से भीषण दंगों का सामना करना पड़ा। इन सबमें सोशल मीडिया की भूमिका भी एक नए रूप में सामने आयी। व्हाट्सऐप से लेकर ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि हर माध्यम पर जमकर नफरत के बीज बोए गये, जिनकी फसल मासूमों की जान के रूप में काटी गयी।

इनके अलावा,  2019 के आम चुनावों को देखते हुए हर राजनीतिक पार्टी या हस्ती जनता को लुभाने के लिए खुद को उनका हितैषी साबित करने में लगी रही। इस वजह से भगवाकरण की राजनीति भी अपने चरम पर देखने को मिली। देश का कोई भी मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, दरगाह आदि कोई भी धार्मिक जगह शायद ही बचा हो, जहां राजनीति के कदम ना पहुंचे हो।

इन तमाम खबरों और मुद्दों की आड़ में कई मुद्दे पर्दे के पीछे ही रह गये, जिन पर ना तो सरकार द्वारा गंभीरता से ध्यान दिया गया और ना ही मीडिया द्वारा उन्हें पर्याप्त कवरेज़ दी गयी। इनमें कुछ प्रमुख मुद्दे इस प्रकार हैं-

देश के आर्थिक हालात में अस्थिरता, शेयर मार्केट में सतत उतार-चढ़ाव, विकास दर में कमी, किसानों की समस्याएं, सीमावर्ती तथा नक्सली क्षेत्रों में जवानों की मौत, अल्पसंख्यक समुदायों की समस्याएं पत्रकारों पर लगातार होने वाले हमले और उनकी हत्याएं, महिला अधिकारों का हनन, महिला एवं लड़कियों की सुरक्षा के मामले, छोटे बच्चों के साथ होने वाले यौन दुराचार के बढ़ते मामले, दलित शोषण, सरकारी नौकरियों की कमी, तेज़ी से बढ़ती मंहगाई, प्राइवेट स्कूलों की बेतहाशा बढ़ती फीस, लगातार बढ़ते सोशल मीडिया हमले।

ऐसे ही कई मामले हैं, जिनके बारे में ठोस एवं गंभीर निर्णय लेना सरकार की और इनके बारे में सतत तथा निष्पक्ष रिपोर्टिंग करना मीडिया की ज़िम्मेदारी बनती थी लेकिन अफसोस कि लगभग पूरे साल देश के विभिन्न हिस्सों में किसान अपनी ऊपज की मिलने वाली कम कीमत और कृषि भूमि के असमान वितरण के खिलाफ कई बार आवाज़ उठाते रहे हैं लेकिन सरकार हमेशा की तरह सिवाय दिलासों के उन्हें और कुछ भी दे पाने में असफल रही।

जब-जब किसानों के आंदोलन ने भड़काऊ रुख लिया, मीडिया ने भी केवल तभी उनकी कवरेज़ करना लाज़िमी समझा। उन्हें भूख और गरीबी से मर रहे किसानों से ज़्यादा इस बात की चिंता थी कि तैमूर बाबा को कई दिनों से पॉटी क्यों नहीं हुई या फिर दीपिका पादुकोण के मंगलसूत्र की कीमत क्या थी?

पूरे साल देश की आर्थिक स्थिति डांवा-डोल दिखी, फिर भी सरकार के प्रतिनिधियों की विदेश यात्राओं पर पानी की तरह पैसे बहाये गये। सीमा पर आंतरिक तथा बाह्य हमलों में हमारे बहादुर जवान शहीद होते रहे पर सरकार अभी भी सर्जिकल स्ट्राइक को ही लेकर अपनी पीठ ठोंकती दिखी।

ना तो अभी तक कश्मीर समस्या का कोई समुचित समाधान होता नज़र आ रहा है और ना ही नक्सली हमले खत्म हो रहे हैं, जिनकी एक बहुत बड़ी वजह से आम जनता में सरकार और प्रशासन से उपजी घोर निराशा है। सरकार द्वारा साम-दाम-दंड-भेद हर तरह से जनविरोधी स्वरों और जनआंदोलनों को दबाने का भी प्रयास किया गया। रोज़गार के अवसरों में निरंतर होने वाली भारी कमी, जो पिछले कुछ सालों में केवल नक्सली ही नहीं, बल्कि क्षेत्रीय अपराधों के पनपने की भी एक बड़ी वजह बनी है।

साल 2018 को एक बार फिर से पत्रकारों पर होने वाले हमलों और उनकी हत्याओं के लिए भी याद किया जायेगा। पिछले डेढ़ सालों में देशभर में कई पत्रकारों की हत्या कर दी गयी। कई अन्य पर जानलेवा हमले हुए और इसके लिए करीब 140 लोगों के खिलाफ कुल 200 से अधिक मामले दर्ज किये गये।

इसके बावजूद इस दिशा में अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं और शायद यही वजह है कि लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ के आकाओं ने सरकार की नीतियों की आलोचना करने या उसकी खामियां गिनवाने की बजाय अनुष्का शर्मा व विराट कोहली जैसे सेलेब्रिटिज़ की शादियों की खबरें दिखाना या फिर पक्ष-विपक्ष के दो-चार पार्टी प्रवक्ताओं को बुलाकर उन्हें किसी मुद्दे पर आपस में लड़वाना ज़्यादा उचित समझा।

2019 चुनावों के मद्देनजर पूरे साल सरकार के विपक्ष विरोधी बयान राजनीति पर हावी रहे। आत्म विश्लेषण या विरोधी स्वरों के कारणों का विश्लेषण करने की बजाय हर जगह सरकार कभी या तो वह खुद ही अपनी पीठ थपथपाती नज़र आई या फिर कभी विपक्ष के खिलाफ आग उगलती दिखी।

मैं यह मानती हूं कि मोदी सरकार ने देशहित में कई अहम निर्णय लिये हैं लेकिन इन निर्णयों का समुचित लाभ ज़रूरतमंद तबकों को मिल पा रहा है कि नहीं, यह देखना भी सरकार और सरकारी नुमाइंदों की ही जबावदेही बनती है।

एक ओर सरकार ने हर गांव घर की रसोई में एलपीजी गैस पहुंचाने के लिए ‘उज्जवला योजना’ लागू किया, तो दूसरी ओर रसोई गैस के दामों में पिछले एक साल में दोगुनी से भी अधिक की वृद्धि करके कई घरों में महिलाओं की किस्मत को फिर से लकड़ी और कोयले के चूल्हें में झोंक दिया। एक तरफ जन-धन योजना के तहत ज़ीरो बैलेंस अकाउंट खुलवाने की छूट दी, तो दूसरी ओर बचत खाते में तीन हज़ार या उससे अधिक की न्यूनतम राशि को मेंटेन करना अनिवार्य कर दिया। ऐसे में भला बेचारा गरीब खाये क्या और बचाये क्या?

अब्राहम लिंकन का कहना था, “You can fool some of the people all of the time, and all of the people some of the time, but you cannot fool all of the people all of the time”। यह बात चाहे कोई व्यक्ति हो अथवा किसी देश की सरकार, हर किसी पर समान रूप से लागू होती है। गत सप्ताह के विधानसभा परिणामों के सापेक्ष इसे और ज्यादा अच्छी तरीके से समझा जा सकता है।

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